ग़ज़ल
दर्द दिल में जब उभर आता है
रूह पर न जाने कौन छा जाता है
आंखें वीरान सी हो जाती हैं
चेहरा ज़र्द पत्तों सा सूख जाता है ।
रह जाता नही अपना वजूद अपने वश में
दर्द ही दर्द विखर जाता है
देने वाले देता क्यूं है यूं गम के गुबार
गर्दिशों में खुशनुमा मंजर विखर जाता है ।
वक्त पड़ जाता क्यूं भारी समझदारी पर
दिल दे देता है जबाब क्यूं वफादारी पर
इश्क सै कैसी कुछ तो कहें
संग चलते चलते जाने ये कदम क्यूं बहक जाता है ।
रोज लड़ते रहे हम ख़ुदा से बन काफ़िर
वो हमसफर बने या खत्म कर दे ये सफर
दिल के दलहीज पर जो सुबो शाम
खैरमकदम कर दस्तक लगा जाता है।।
उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर १५.०३.२०१७
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