ये मानव का रूप कौन सा ?
भागती सी जिन्दगी
दौड़ते से लोग
सांसे उखड़ रही
हांफते से लोग
चल रहे इधर कुछ
कुछ पल उधर रहे हैं
बस संग कोई नहीं है
अपने में खोये लोग
है दायरा बस उन्ही का
दूजा न कोई अब तो
कांधे पे अपने खुद को
ढोये पड़े हैं लोग
दूजे की गर वो सोचे
मानो गड़बड़ी है
प्रगति जो दिखी किसी की
तो, पर काटते हैं लोग
कोई जी रहा क्यूं
अपने मौज में है
आंखों की किरकिरी इसे
बतलाये पड़े है लोग
नेकी हमी से जिन्दा
हम उसके रहनुमा है
बदगुमानियों की गुदड़ी
ओढ़े पड़े हैं लोग
खुद पर कभी न आंखे
बस औरों को तक रहे हैं
खुशनामियों को अपनी,
चिघ्घाड़ते से लोग
कहते रहे धरा पर
धनी,ज्ञानी जिसे सब
निर्धन ,जड़ दिख रहे
ईर्ष्याग्रसित से लोग
अब तो बदल दो यारो
तस्वीर मानवों की
किस राह पे चले थे
किस राह खड़े हैं लोग
उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दिनांक १९.०३.१७
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