मैं सोचता हूँ
कविताओं के विषय में
अपनी उन कविताओं के विषय में
जिन पर मैनें कभी,सोचा नहीं
बस जिया है स्वयं को
उन कविताओं के पात्रो के रूप में
कुंठाएँ शायद यूँ ही
बहा करती है
कविताओं के माध्यम से
अभिलाषाएँ यूँ ही
परवान चढ़ती हैं
कल्पनाओं की लता बन
बस यही कारण है कि
कभी सोचा नही
अपनी कविताओं पर
बस जिए चला गया
उसके, मधुर ,शुष्क,कोमल,तीक्ष्ण
धरा पर.
क्यो कि ,
सोचने में दर्द होता है
जीना, तो बस बहना है
तरल सा
जिस दिशा में बहाव हो
स्वयं ही निकल पड़ते हैं हम
कौन सा, उलटे बहाव में
चलना है हमें
पर आज जब
सोचता हूँ
अपनी उन्ही कविताओं पर
जिनमें शायद मैं ही
कहीं छिपा हूँ
तो पाता हूँ असहज
स्वयं को
कितनी आकांक्षाएँ,
अभिलाषाएँ और लक्ष्य
पाले थे
इस नामुराद नें
जिन्हे जीना पड़ा
कल्पनाओं के सहारे
क्यो कि यथार्थ
बहोत ही सख्त था
खुरदरा था
सह न सकता था मैं
टूटने का दर्द
इसलिए
भ्रम को सहारा बना
गढ़ता रहा
कविताओं में इक
इंद्रजाल सा
नवीन संसार
आज जब गुजर चुका है
इक लम्बा अंतराल
उम्र के इस पड़ाव पर
कविताओं के जंगलो में खड़ा
स्वयं को पाता हूँ नग्न
हम्माम में ज्यूँ
औ मुह चिढ़ाती सी
हर इक पंक्तियाँ, अब
कह रही हो ज्यूँ
कौन हो तुम!
हम तुम्हे जानती भी नहीं
इतने दिनो से हर कोशिशें
बेदम हुई, पर
तुम्हे,पहचानती भी नही
क्यूँ कहते हो, तुम बसे हो
हममें
जब कि हमारे लिए
इक अंजान हो तुम
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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