कब तक बलिदानों की भाषा
हम से बुलवावोगे ?
कबतक त्यागों की आशा ,
बस हममें ही पाओगे ?
कब तक एक जून की रोटी में भी
बचत हमें सिखलाओगे ?
कब तक अधनंगे तन से , चीर ,
चीर , ले जाओगे ?
कब तक दानी कहलाने का हक़ ,
बस, हमको दिलवावोगे ?
कब तक ज्वरित कांपते तन से
सकल बोझ ढुलवावोगे ?
बलिदानो का आह्यवाहन उठाने वालो
ऐ त्यागो की आश लगानें वालो
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर
जब स्वयं इन्हें अपना दिखलाओगे
ऐ पञ्च सितारा संस्कृतियो में पले बढे
हो तुम तो चर्बी बोझ तले दबे पड़े
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर ?
दूजो के हित , जब बचत तुम्ही दिखलाओगे
हम तो वंशज दधीचि के कहलाते
तुम भी कर्णधार हो राष्ट्र भूमि भारत के
जब लेते अस्थि हमारी धरणी उद्धार हेतु
फिर तुम कब , कर्ण बन दिखलाओगे
उमेश कुमार श्रीवास्तव
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