बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

तिरछी चितवन ना तको
हे सुलोचनी नारी
हो घायल यदि चलबसा
कहां करोगी वार

नयनों की मुस्कान ये
रचती सुमधुर छंद 
वीणा की स्वर लहरि सी
झंकृत हिय मकरंद

पलकें तेरी उठ रही
बैठे हिय आगार
मध्य इन्हे रोको तनिक
प्राण करें अभिसार
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कृष्ण कौशेय रोम से 
सजे नयन के द्वार
तनिक उनींदे ऊघड़े 
तड़पाये नित नार ।

तनिक झटक वह शीश को
मटकाती जब अक्षि
तड़प तड़प नर गिर मरें
ज्यूं तड़पाये दुर्भिक्ष 
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नयना भरे सोमरस 
है कम्बु ग्रीवा में वास  ( शंख )
अधर चसक में छलकते
कहो ? बुझा लूं प्यास ।

मीन बसे है नीर में
नीर बसे इत मीन
दृग तेरे अय चंचला
दुति सदृष्य गतिशील ।

अरुण मिला है क्षीर में
या सिन्दूरी नवनीत
कपोल तेरे अय सुन्दरी
कर चुम्बन हूं अभिजीत ।

भँवर तेरे कपोल के
भ्रमित करें चित चित्त
बूड़े बिना न रह सके
हो मृदु कठोर प्रवृति ।
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अलसायी आंखें अधखुली
भेद भरे भरमार
रति चित चितवन में भरे
लुब्ध करे ये नारि


केश खुले हहराय रहे
दृग डोर तनिक अलसाय रहे
अधरों के चसक असार हुए
कुच गंड तनिक रतनार हुए
उरु तुंदी अरु स्कन्ध थके
भग ओष्ट तनिक मुकुलित स्मित
रक्तिम रक्तिम नीर
रैन गई मरदन तरजन 
क्यूं रतिराज तेरे भरतार रहे


निशि रैन विभावरी
मुंहजोरी ललितमा ओढे रहे