शनिवार, 27 अप्रैल 2019

हे वारिधि



हे , वारिधि

हे , वारिधि
मैं भ्रमित नही
तेरे शान्त कलेवर से
हर बून्दो में
भरी वेदना
श्रम-श्वेद स्वाद
चख, जाना उनसे
अन्तस में चलती
हर लहरें
ज्वार नहीं ला पाती हैं
घनीभूत होती पीड़ा से
वही दबी रह जाती हैं ।


पर हे जलनिधि
उस पीड़ा को
तुम ही तो पाले बैठे हो
जान सके कोई न कभी
तुम ही तो ठाने बैठे हो
इक बार जरा हठ छोड़ो
बांटो तो जरा
इन भेदों को
घनीभूत होती पीड़ा
आकर्षित करती
बस टूटन को
विखराव तेरा
अन्तस में पले
उचित नही यह
हे अर्णव
धीर गंभीर रहे अन्तस
ऐसा भी जतन
कर अर्णव ।


मीठे रस ले
हर सरिता
कितना रस प्रेम लुटाती हैं
तेरी कुण्ठा से
खुद सारी
खारा बन रूप गंवाती हैं
अपनी नही
उनकी खातिर
थोड़ा तो बदल
अपना ये चलन
फिर देख खुशी
जग में कितनी
खारे में कहां
वह अपना पन ၊

उमेश श्रीवास्तव , इन्दौर , २८ . ०४ , १९

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

गज़ल၊ रात की नरमियां

रात की नरमियां
राख की गरमियां
दीखती जो नहीं
हैं मिजाजे हरम

आप खामोश हैं
या कि मदहोस हैं
जान पाते ,क्यूं नही
पाल रखा क्यूं भरम

ख्वाब आते नहीं
या कि भाते नहीं
दीखते क्यूं नहीं
रंगीनियों के सितम

रागिनी गा रही
या कि भरमा रही
लहरियों से जाना,
तूने नहीं

आज की जो तपिश
आज की वो नहीं
उड़ रही राख जो
आग की वो नहीं

पाल तू न भरम
तू बच जायेगा
राख है राख बन
तू भी उड़ जायेगा

यूं भटका किया
साथ तू ना जिया
नीद की गफलतों सा,
रहा,सारा तेरा करम

ये अगन ये जलन
औ रहेगा करम
शेष रह जायेगा
बस तेरा ये भरम

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २३.०४.२७

रविवार, 21 अप्रैल 2019

गजल दिल के जज्बों पे

दिल के जज्बों पे ,
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में
दिलकश इक रूप तू

तू जाने ना ,
दिल चाहे क्या,
ख्यालो में खोया खोया
दिल का हर लम्हा है

तू जब आती है,
खूं में रम जाती है
मेरे हर पल को तू
रंगत दे जाती है

दिल के जज्बों पे ,
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में
दिलकश इक रूप तू

दुनिया जो मेरी है
प्यास घनेरी है
मेरी इस अभिलाषा को
बरखा दे जाती तू

दिल के जज्बों पे ,
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में
दिलकश इक रूप तू

दिल की गलियों में आ
तुम जो छाई हो
तुम बिन जीना अब ना
कशक वो जगाई हो

दिल के जज्बातों से
ना करना यूं खेल तू
जीवन की खुशियां तुझसे
है सांसों की डोर तू

दिल के जज्बों पे ,
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में
दिलकश इक रूप तू

उमेश  १६.०४.१७ जबलपुर

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

धूप जेठ की चुभे
जल रहा तन बदन
सूखते तड़ाग भी
सूखता है ये चमन

नीम के पुष्प भी
ले रही निम्बोली है
भौरों की गुंज से
अब कर रही ठिठोली है

बेल के वृक्ष पर
सज गये विल्व है
पत्र से निःपत्र हो
लग रहे शिल्प हैं

आम्र की टिकोर तो
कर रहे किलोल हैं
बालकों के झुण्ड से
अब हो रही तोल है

शुष्क शुष्क सी धरा
शुष्क मृदा के प्राण हैं
शुष्क से खड़े दरख्त
वन प्रान्त के जो प्राण हैं

पलास रंग यहां अलग
हरितिमा की शान है
कहीं कहीं ताम्रता ले
हैं ताने वो वितान हैं

कृष्ण कायता लिये
पाषाण खण्ड विशाल हैं
तृणों की शुष्क चादरें
चढी जिन पे जाल हैं

बांस की ये श्रृंखला
सुदूर तक जो दीखती
कैनियों के मध्य फंसे
उनके भी आज प्राण है

धूप से टपक रहे
पीत से, रस भरे
गमक रहे महक रहे
महुपुष्प प्रान्तरो की आन हैं

मृगों के झुण्ड छांव में
'सिमट गये रार कर
वानरों की टोलियां
खड़ी यहीं इधर उधर

सिहं नाद कर रहे
जल श्रेणियों की खोह में
पक्षियों के झुण्ड भी
उड़ चले हैं रोर में

दिग दिगंत जल रहा
पर चल रहे हर प्राण हैं
प्रचण्ड ,प्रचण्ड हो गया
यूं  दे रहा जो त्राण है ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव,जबलपुर,दिनांक १६.०४.२०१७

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

प्रेम रस

प्रेम सुधा की दो बून्दे
सागर को मीठा कर सकती
अमी सदृष्य, जरजर तन को
नव यौवन से हैं भर सकती

उपमायें जितनी दे सकते
जग के शायर औ कवि सारे
सब कम हैं , क्या देंगे वो
इस प्रेम तृषा के मारे ၊

रस प्रेम झरे जग कण कण से
पर भाग पड़े अनुरक्त जगत
अजर रहे अमरत्व लिये
चिर यौवन ज्यूं ये प्रकृति जगत ၊

उमेश १३ .०४ .२०१९ इन्दौर

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

पराभव

पराभव

सूखते तड़ाग, ताल ,कुओं की क्या बिसात
जब सूख रहे चारों तरफ,सागर के ही काफिले

पानी पानी हो गई पानी की हर बूँद
सूखे अधर कंठ जर्जर औ बंद बोतल देखकर

हमने सुना था कभी, पानी जो उतरा सब गया
अब तो चाँदी है उन्ही की जिनमे पानी  ना रहा

अब कलरव है कहाँ,कहाँ,गोधूली की रम्भान अब
छोड़ जाते जो धरा को उन प्राणियों का बस शोर है

जागने को कह रहे सोते रहे जो उम्र भर
है कयामत की रात जागो कह रहे वो चीख कर

पतन का भी कोई तल अब तो तू मान ले
हर अस्थि मज्जा रक्त में, खुद को ही पहचान ले

इस धरा पर कोई ,ना जिया, अनन्त काल तक
नीर बन फिर जी जगत में सब प्राणियों का उद्धार कर

उमेश कुमार श्रीवास्तव (१२.०४.२०१६)

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

चाहत मेरी

चाहत मेरी

मैं चाहता हूं प्यार से तुमको पुकार लूं
निहार छवि तेरी तुझे दिल में उतार लूं ၊

गंध कस्तूरी तेरी , अंग हो मेरा
पंचांबु से प्राणों में तुझको यूं उतार लूं ၊

चतुरांग से, जो सोम रस , तुझ से रिस रहा
व्याकुल ह्रदय से ,बन रसी अन्तस उतार लूं ၊

तू, तू ना रहे, मैं भी, व्योम हो रहूं
यूं क्षितिज सा गात क्यूं ना मैं संवार लूं ၊

गीत हो संगीत हो या ताल लय की घात
सब विधा में लख तुझे जीवन निखार लूं ၊

उमेश , सिंगरौली , ७.४ .१९

रविवार, 7 अप्रैल 2019

गज़ल

भटकती प्यास का
मधुमास लिये जीता रहा ၊
सीने में लहरों का
अहसास लिये जीता रहा ၊

नर्म कलियों की
सदा ,दिल को तमन्ना थी
मैं तो ख़ारों के
तख्तो ताज लिये जीता रहा ၊

बदगुमां सदियों से रहा
चाहत का जहां
हर्फ-ए-नज़रों पे
एतबार किये जीता रहा ၊

दरिया ए सहरा ,
समझ, शबनमी कतरे
हर इक घूंट
मदहोश हो पीता रहा

तुझ पे इल्जाम नहीं
हुश्न की मूरत
हुश्न की गलियों में इश्क
सदा यूं ही तो रीता रहा ၊

उमेश 07.04.2019 सिंगरौली 02:13:05