मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

मां

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली :-

अनन्त मंगल घोषकारी    
*माँ* ध्वनि अपरमपार है ,
'ब्रम्ह' भौतिक लोक की ,
हर प्राण की आधार है  ၊

गढ़ती अनेको रूप जिससे
ये चराचर चल रहा
रहते अगढ़ पशु ,माँ पाठ बिन
मानव प्रगति जो कर रहा ၊

माँ आप में हैं देव तीनों
तृदेवियां भी आप में
ब्रम्हाण्ड की हर शक्तियां
माँ शब्द में ही व्याप्त हैं ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
तितलियों के पर में भरे जो रंग  तूने
पक्षियों के स्वरों में भरी जो गूंज है
नदियों को निनाद रेसमी जो दे रखी है

मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

नित सोता हूं तुझे संग ले
स्वप्न लोक में जज्बातों संग
कल उठूं ना तो

शनिवार, 26 नवंबर 2022

मेवे

जुनून के साथ ताकत से लबरेज़ कर देते है
आजमा के देखें, मेवे वो खुसूसी मज़ा देते हैं ।
ताज़े फलों का क्या,गिरे फटे लिज़लिजे हुए
सूखे मेवे हैं कि सबकी रंगत बदल देते हैं  ।

मज़ा चाहें गर, जिग़र, जान, तन-ओ-बदन का
खब्ती जहां में जुनूनी बन मज़ा लेने का
रंगत पे ना जायें, सब चिकने चुपड़े हैं यहां ,
मेवे में ही है कूबत, अन्दरूनी मज़ा देने का ।

ताज़ो में,ना हुनर , ना ही तहजीब है ,
बस नाजो अदा की ही वो तस्वीर हैं ,
तजुर्बे की झुर्रियां भर सूखे हैं  मेवे ,
अन्दरूनी सुकूं बाहरी ताज़गी से भर देते हैं ।

जहन्नुम  जन्नत सा है फरक  
जान सको , जो,ताजे सूखे का मरम  
एक नफ़ासत से भरा ,बस खींचे तन मन ,
दूजा अर्क-ए-तजुर्बे से , हर गुल खिला देते हैं l

आ करीब जरा,नजदीकियां बढ़ा,देखो
लबों पे रख , चश्मों से पिला कर देखो ,
खिलेगा बदन ,सुराख-ए-जिश्म खिल जायेंगे
हलक से जो उतरे मेवे , तो जन्नत का मज़ा देते हैं ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन भोपाल
दिनांक : २२.१२.२२

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

गज़ल : इस गली भी कभी आप आया करें

इस गली भी कभी आप आया करें ,
नज़र यूं ना हमसे चुराया करें ।
गुफ्तगूं- ए- ज़ुबा हो न हो , 
गुफ्तगू-ए-नज़र कर जाया करें ।

तब्बस्सुम लबों पर सजे ना सजे, 
साज़-ए-जिगर बजे ना बजे
आ जुल्फे जरा लहराया करें, 
चश्मों को बोसे कराया करें ।

आपकी मसरूफियत , हमें है पता
आप मगरूर हैं, है ये भी  पता
ये जवानी के दिन बस गिने चार हैं
मुंतज़र हमें यूं   न कराया करें ।

आपकी शोखियां कर रही जुल्म हैं
तड़पते जिगर को दे रही गुल्म हैं
सुकूं पा जाये दीदार कर ये
कुछ ऐसे जतन कर जाया करें ।

है कदर हुश्न की नजर-ए-इश्क में 
फ़ना हो रहा इस जमाने जो
न परदों में खुद को छिपाया करें
पास आने की जहमत उठाया करें  ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : २९ . १२ . २०२२






मंगलवार, 22 नवंबर 2022

प्रणय राग

प्रेम सुधा का प्यासा मन
ढूंढ़ रहा पपिहा बन 
स्वाती जल कण
मरू-रज जीवन
चूसे रस ,
कण कण,

विह्वल हिय
विह्वल मन तन,
शुष्क दृग द्वय
ढूढ़े उसको,
करे जो पूरित ,
तरल नीर सम,
प्रेम-विरह जल ।

हुलसित हिय
चित्कार करे ,
प्रतिध्वनित नाद
आमुख पर आ
झंकारित ।

व्याकुल अधर द्वय
कम्पित
विस्तारित नयनों से
प्रतीक्षित
चुम्बन को
प्रेयसी अधर को ।

रास-प्यास,आभास !
हुई संकुचित
स्व गुहा मध्य, पर
हार न माने
होगा संगम
भले लगे कल्प
यह रार है ठाने ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राज भवन , भोपाल
दिनांक : २३.११. २०२२




शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

नमामीशमीशान

वन्दन करता हूं तुम्हे, अखिल ब्रम्ह के धीश
मुक्ति शक्ति व वेद तुम, आदि व्याप्त जगदीश ॥
पूजन करूं हे शिव तेरी, है महिमा अनन्त अपार
गुण इच्छा सीमा रहित, हो चैतन्य ओढ़ अकाश ॥

हूं दण्डवत सम्मुख तेरे,अदृष्य ॐ की नाद
सम्मुख तेरे  दंडवत, मन चिन्तन अरु काल  ॥ 
कृपा सिन्धु कैलाशपति अनन्त गुणों के धाम
है अर्पित सब तुझे, वाणी, रूप, अरु काम ॥

धवलगिरि हिम सम बदन, कोटि मदन न्योछार 
शीश शिखर मंजुल सुरसरि, भ्रू,इन्दु करें मनुहार ॥
शिरोधर है नीलवर्ण  लिपटे भुंजग अनुकूल
भजूं  विलक्षण शम्भु तोहें, ना होयें प्रतिकूल ॥

श्रुतिपट सुन्दर कुण्डल, आनन सदा प्रमोद ,
विशाल अक्षिद्धय करुणामयी हे नीलकण्ठ आमोद । 
सामप्रिय भोले मेरे , नरमुण्ड सजे श्रीकण्ठ,
नाथ सभी के शम्भु तुम, भजूं तुम्हे अखण्ड ॥

हे रौद्ररूप हे श्रेष्ठरूप तुम तेजरूप हो अखिलेश्वर ,
अखण्ड अजर अमरत्वरूप त्रिविधि शूल के नाशक I
त्रिशूलधारी हे शिवापति, जहां भाव तहं आप,
ऐसे भोले को भजूं, कटे अनन्त  सन्ताप ॥

सज्जन हिय आनन्द तुम, नमन तुम्हे त्रिपुरारि,
कला के तुम ही आदि हो, हे कला के अन्तिम द्वार ।
कंदर्प दर्प भंजक तुम्ही, तुम्ही कल्प के काल,
हर्षित हो जड़ता हरो , हे कालों के काल ।

सुख शान्ति इह-पर मिले,पद शीश धरे जो नाथ 
बिन भजे अनन्त को, कहां कुधर्म का नाश ।
हर हृदय आगर तुम, भजूं उमा प्रिय उमेश
प्रसन्न हो रक्षा करो , हरो मेरे सब क्लेश |

ना जानूं पूजन  विधि, जप तप की क्या बात,
सदा खडा सम्मुख तेरे, कर जोड़े नत माथ ।
जरा-जन्म दुःख पिंड हूं, करूण खड़ा भगवान,
नतमस्तक हूं प्रसन्न हों,  मेरे कृपानिधान ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक १८ . १० . २२






नमामी शमशान

वन्दन करता हूं तुम्हे, अखिल ब्रम्ह के धीश
मुक्ति शक्ति व वेद तुम, आदि व्याप्त जगदीश ॥
पूजन करूं हे शिव तेरी, है महिमा अनन्त अपार
गुण इच्छा सीमा रहित, हो चैतन्य ओढ़ अकाश ॥

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

.

हो अन्धकार प्रबल जब दीप के ओलाक हो
दुःख गहन होने लगे तो आश की प्रतिमूर्त हो
नैतिक पतन के काल में आदर्श के स्तम्भ हो

शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

शिव भोले

शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले ।

प्रलयंकारी रूप ना धर
शिव भोले शिव भोले
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले ।

हे आदि योगी ! आदि माया
दे रही नित नव प्रलोभन
हैं प्रवंचित आज जन जन
बदलती नित नये चोले
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले ।

तांडव कर ना रुद्र बन कर
अभयकारी शिव रूप धर
जो बढ़ रही हैं कलुषिताएं  
भस्म हेतु त्रिनेत्र खोलें
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले ।
 
तुम आदि भी अनन्त भी
आकाश व पाताल भी
इस चर चराचर जगत के
शून्य भी साकार भी ।
आकार लो मेरे प्रभो
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले

विध्वंस के नायक मेरे
तुम श्रृजन के आगार भी
योग निद्रा त्याग दो अब
शुभ श्रृजन शंख निनाद होले ।
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले


संत, योगी, साधुजन
मोहित मुदित भ्रमित हैं
नीर क्षीर विवेक बुद्धि
विलुप्त सबके चित्त हैं
माया जनित आवरण
योग से कर चित्त भोले
शिव भोले, शिव भोले हर हर
शिव भोले , शिव भोले ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
०३.३० बजे अपरान्ह
दिनांक : १६.०९.२०२२




गुरुवार, 8 सितंबर 2022

रस नाद

क्या कहूं !
मौन के स्वरों में
अनुगूंज सा,
कर्णपटल पर 
नाद,अहसास
घनघोर,
वेदना की तीव्रता
महसूसता
टूटता सा
क्यूं न 
बस चुप ही रहूं ।
क्या कहूं ?

ध्वनि के अनेकों रूप
मैने हैं देखे ,
स्वादों को भी उनके
मैनें चखा है ,
स्पर्श उसका
हर रस संजोये, 
शिराओं के शिखर पर
अनुभव किया है ।

इक नाद ने ही
ब्रम्ह से
परिचय कराया,
इक नाद का ही प्रपंच,
ब्रम्हाण्ड सारा ।

इक नाद प्राणों में जगा
जग रच गया
प्राण की किलकारियों से
जग बस गया ।

इक मधुर ध्वनि, श्रृंगार
हिय गुहा मध्य
जब गूंजी कहीं
रस रागिनी
हर प्राण को
समेट ली ।

हो समर्पित
इक दूसरे को
कर,
प्राण, तन,मन
बुद्धि अर्पित
रच रहे
इस धरा के 
प्राण सारे ।

करुण का स्वर
कसैला,
हर इन्द्रियों पर परत सा
आरोह करता
अस्तित्व ,
ज्यूं संकुचित कर ,
मांस,अस्थि मज्जा, त्वचा
जो हैं पिंजर ।
इस पिंजर के अवयवों पर
भी राज करता ।
तोड़ देता अस्तित्व के
हर अवययों को
मेट देता इस धरा से
इस गेह को ।

जब गूंजती नाद विभत्स,
बच रहना सभी ,
बुद्धि में चुभती कील सी
विलग करती आत्म से
विवेक को,
बुद्धि को चखा
सोम रस
जिस दिशा भी फेर देती
उस दिशा के हर प्राण को
ईश्वरीय कृति मानने से
रोक देती ।

हास स्वर परिहास का
द्वन्द है,
खिलखिलाहट
मुस्कुराहट
कहकहों का छन्द है ,
पर पे पर खिला 
तो क्या हास है !
स्व से जुड़े ,
तो असल परिहास है ।

भय के स्वरों में तनिक
रोमांच जोड़ो
हो सके तो इससे
गठजोड़ कर लो, 
नाद इसका 
तार दिल के जोड़ता
बस बुद्धि से किंचित
विलगाव कर लो ।

रौद्रता का नाद
गम्भीर है,
हर रसों के विध्वंस का
आभीर है , 
यह राग चाहे कुशलता
सन्धान में
चूक तनिक भी
विध्वंस करती प्राण है ।

शान्ति मोहक मनोरम
अध्यात्म है
इसके स्वरों में
ब्रम्ह का ही
वास है
सब रस इसी में
हैं समाहित,
हर प्राण का
यह ही रसिक,
इसके रसिक बन
जीवन जिओ
जीते रहो
अनुशासनों में रस रहें
तुम भी रहो
सम रस रहे
तब ही तो सरगम राग है
सरगम बिना हर स्वर
भयानक नाद है ।

क्या कहूं !
मैने चखा है
हर नाद रस को
मौन रह 
हर स्वरों से
इसलिये मौन हूं
क्या कहूं अब क्या कहूं ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
भोपाल से छतरपुर यात्रा
महामना ट्रेन
दिनांक ०८.१०.२०२२











गुरुवार, 1 सितंबर 2022

शेर

मुसाफ़िर शायरी में ये शेर पढ़ा

हमे अपना इश्क तो एकतरफा और अधूरा ही पसन्द है..
पूरा होने पर तो आसमान का चाँद भी घटने लगता है...

जबाब देने को  कीड़ा कुल बुलाया, नज़र है 

चांद आसमां में , न घटता बढ़ता
बस देखनें का अंदाज बदल देती है तू
इश्क इक तरफा ..? है फितूर
पूछ देखो,पथ्थर में आग लगा देती है तू

प्रयास सही था या नहीं ..? कदरदानों से दाद का इंतजार होगा ।
उमेश ११. १२ . १६

सोमवार, 1 अगस्त 2022

गजल वो अपनी तस्वीर ..

ग़ज़ल 
वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं
तदबीर से हम भी उन्हे दिल में जगह देते हैं
कभी रुखसारों की रंगत दिलकश
कभी लब पे मचलती शोख हँसी
कभी ज़ुल्फो की पेंचो में उलझाती अदा
कभी अँखियों से झाँकती शरारत
इक मीना में भरी इतनी मय की तासीर है 
औ कहते हैं कि पी के भी बा-होश रहो
क्या शै है दीदार-ए- हुश्न भी यारों
रोज नई जुंम्बीसे दे, जीना सिखा जाती है

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०२.०८.१६ जबलपुर

बुधवार, 20 जुलाई 2022

मेरे ना - समझ

मेरे ना - समझ 

उस ना - समझ ने
फिर, 
आवाज दी है
सोचा था जिसने
भुला ही दिया है ।

कोमल सी नाजुक सी
वो भावना थी
जिसे 
मन वाटिका में
था भटकने को छोडा ।

फिर आवाज दे कर
दी संजीवनी पर
 देखना यही कि
कितनी मौसमी है ।

खुद को कहें वो
हूं, ना समझ,  पर
बन्द लिफाफों के मजमूं
हैं जान लेते ।

हैं मुंतज़र में ,
मेरे हर्फ जाओ ,
नही बेरुखी से
ठुकराये न जाओ ।

तुम्हे पढ के शायद
कुछ रश्क जागे
चेहरे की रंगत
मुस्कान मांगे ।

चेहरे की रंगत
देख सकता नही पर
लबों पे  तब्बस्सुम 
खिली जरूर होगी ।

            उमेश कुमार श्रीवास्तव
.              शिवपुरी
               १२ . ०७ .२०२२






रविवार, 17 जुलाई 2022

मुक्तक

लाखों दफ़ा सोचा हम भी चुप रहें 
दिल के गुबार हैं कि रहने नहीं दिये ।
हम मुंतज़र में बैठे उन साज की धुनों को
जिनको ख़ुदा नें शायद सरगम नहीं दिये।

...उमेश

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

व्यथा

व्यथा

ऐ दामिनी 
न इतरा यूं
पयोधर की बन
प्रेयसी
गणिका
न वारिस तू
 वारिद की
तू बस अभिसारिका

ये नर्तन तेरा 
व्यर्थ
न जमा धौंस
इन नगाड़ों की
रीता है, हिय
कर्ण द्वय 
सुन्न, ग्रहण न करेंगे
स्वर इनके बेढब
 
आरूढ़ अषाढी 
मेघ सीस
हे मेघप्रिया
न खो आपा
सौदामिनी
सौम्य हो जा
ये घन जो रीता
चुक जायेगी
श्वेत वसन में
वासना का त्याग कर
जलधर त्याग देगा
तो क्या करेगी 
ऐ चंचला

मैं वियोगी
सह रहा व्यथा 
विरह
ये हास तेरा
परिहास बन
चुभन दे रहा
हिय को मेरे
आहों की मेरी
न बाट तक तू
मदन सा तेरा
हश्र हो ना
हूं भयभीत 
परिणति पर
तेरी
ऐ चपला

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर, दिनांक ११.०७.२०१७

शनिवार, 2 जुलाई 2022

रे अम्बुद सुन

रे अम्बुद सुन...

उठती माटी से सुरभित बास
 बून्दे सस्मित, ताल दे रही
तरु पल्लव कर उज्जवल आभास
मगन नाचते,बौराये से
धरा गगन मध्य झूम झूम
आभासी उद्गार जताते
रे जलद धरा है प्यासी प्यासी
जा ठहर तनिक,
तन भीगा मन भी कर तर तू
आभासी बरखा ना बन
ये तड़ाग लख सूखा रीता
ये प्रवाहिनी तकती तुझको
जलधारा की आश जगा
तू कर निरझर्णी फिर आपगा
न निष्ठुर बन
किसलय मेरे कर रहे प्रतीक्षा
मेरे नाभिक में
उनका तू उद्वारक बन
तेरा मंजुल श्याम वर्ण
मनमोहन की प्रतिछाया
जाये निर्थक नाम तेरा
क्या पायेगा
दे सकल जल निधि
थल जल कर
बे नीर पड़ा जग
जग  मग कर जल
हे वारिधर,
सुरभि सुवासित वसुधा
मांग रही अपने अंशो हेतु  
तुझी से , सौंप दिया था 
अम्बु तुझे जो ,
हे अम्बुद 
उमेश कुमार श्रीवास्तव
 दिनांक ०१.०७.१७ ,जबलपुर

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

बरखा जल

बरखा जल

कितनी अनुपम लगती प्रकृति
धुली धुली सी उज्ज्वल
चमक उठा है जग कण कण
पा कर पावन बरखा जल

झूम झूम कर इठलाती
कुंज पौध औ वृक्ष लताएँ
सुमन अधर भी देखो
प्रफुलित हो कर मुस्काएँ

शुष्क धरा के विदीर्ण हृदय पर
देखो हरियाली छाई
ज्यूँ विरहन नें पी स्वागत में
अपनी चुनरी लहराई

घनघोर घटायें घटाटोप
घूमड़ घूमड़ कर आती हैं
अपनी शीतल बूँदो से मोती
कितने आज लुटाती हैं

हैं साज़ सुनाई पड़ते कितने
औ राग सावनी सुर के
बरखा की बूंदे भी गिरती
आज सरगमी धुन पे

प्रकृति जगत का हर इक प्राणी
आनंद मग्न हो झूम रहा
पर एक हृदय ऐसा भी देखो
जो विरह अग्नि को चूम रहा

पी के वियोग में प्रेयसी हिय
मचल मचल हो मूढ़ रहा
पपिहा हो कर ज्यूँ विह्य्वल
पी पी कह पी ढूढ़ रहा

शीतल करती बरखा सब को
इक हृदय इधर पर जलता है
उधर बुझ रही धरा तृष्णा
इक आशदीप इत बुझता है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

रविवार, 26 जून 2022

प्रेम सुधा

प्रेम सुधा

यदि किसी हृदय में 
स्पन्दित होता है, प्रेम ,
ना जाने क्यूं ,
हृदय मेरा
अनायास ही , 
गीत प्रेम का गा उठता है ၊
और बनाने पुष्प ,
हर मुकुल ह्रदय को,
एकाकी ही,भ्रमर सदृष्य
गुंजित हो उठता है

घृणा ,क्रोध की
छल , कपट की
लोभ , मोह की
जो अनगिनत तरंगे
चहुदिश छाई
उन घोर तमस की 
बदली से,
तड़ित सदृष्य
प्रेम रश्मि मोहित कर देती
और ह्रदय मेरा
दीपस्तम्भ सा
उसे भेजता सन्देश 
समधरा पर
आने को
प्रमुदित हो,
"जीवन मधुमय प्रेम पुष्प"
यह बतला 
तम के कंटक दलदल से
ना घबराने को ၊

संघर्ष सदा है जीवन
पर आनन्द वहीं है
संघर्षहीन पथ 
रस स्वाद औ गंधहीन
बस भोग देह ,वह 
जीवन आनन्द नही है ၊

प्रेम सुधा से सान 
ईश ने यह गेह रची है
जगा उसे 
खुद जाग ,प्रेममय कर,
हर क्रिया ,कर्म को
अमर नही तू , तू भी जायेगा ही
पर,संघर्षों से जीवन के,
यूं हार मान कर,
अपने ही हाथों ,
अपने,अद्‌भुत जीवन को
ना मिटा इसे ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक 27.06.2020

मंगलवार, 7 जून 2022

रूहे इश्क न कभी मरता न फ़ना होता है
जिश्म - ए - इश्क, पैदाइसी फ़ना होता है ।



गुरुवार, 12 मई 2022

मां

मातृ दिवस पर इस वसुधा पर की सभी माताओं को मेरी ओर से आदरान्जली :-

अनन्त मंगल घोषकारी    
*माँ* ध्वनि अपरमपार है ,
'ब्रम्ह' भौतिक लोक की ,
हर प्राण की आधार है  ၊

गढ़ती अनेको रूप जिससे
ये चराचर चल रहा
रहते अगढ़ पशु ,माँ पाठ बिन
मानव प्रगति जो कर रहा ၊

माँ आप में हैं देव तीनों
तृदेवियां भी आप में
ब्रम्हाण्ड की हर शक्तियां
माँ शब्द में ही व्याप्त हैं ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

दर्द इक कशक

दर्द इक कशक

क्यूँ दर्द उन्हे ही मिलता है, जो सजदे में रहते हैं
क्यूँ  आती खुशियाँ  हिस्से उनके, जो गम बाँटते फिरते हैं

क्यूँ  परेशान वो रहता है, जो सब की सोच रहा होता
क्यूँ  मज़े वही है करता,जो निज हित की सोच रहा होता

क्यूँ अक्ल हार जाती आ कर,धन की गरिमा के आगे
क्यूँ सिमट रही है सज्जनता , दुर्जन मजमे के आगे

क्यूँ  कामयाबी का मतलब, कुछ अलग दिखाई पड़ता है
क्यूँ ईमानदारी का मतलब , बेवकूफ़ निकाला जाता है

क्यूँ दुनिया इतनी बदल रही कि घर सराय सा लगता है
क्यूँ खुद का वजूद भी अब खुद को, अबूझ बेगाना लगता है

रिस्ते नाते सब बदल गए ना कोई किसी का सगा रहा
हम पहुँच गये हैं किस युग में ? क्या कोई मुझे बता रहा ?

उमेश कुमार श्रीवास्तव(०१.०४.२०१६)

सोमवार, 28 मार्च 2022

बसन्त का छोर

बसन्त का छोर

नव पल्लव ज्यूं शोभित हैं
हर तरु की हर डाली पर
शुष्क धरा पर,शिशु टेसू
बिछा रहे ज्यूं मतवाली फर

नव मुकुन्द ज्यूं पुष्पित है
भ्रमर डोलते ज्यूं उन पर
शुष्क तृणों से भरी डगर पर
मृग डोले ज्यूं इधर उधर

आम्र तरु पर लटक रहे ज्यूं
कैरी गुच्छे गदराये से
महुए के फूलों से ज्यूं उठती
महक नशीली मतवाली सी

प्रात वायु की शीतलता में
ज्यूं प्रखर हो रहा अनल इधर
अरूण रक्तिमा में ही झलके
ज्यूं अंशुमालि का तेज प्रखर

जल धाराओं के चहुंदिश गुंजित 
ज्यूं पशु, पक्षी ,कीटों के शोर
हरित चुनरिया विहीन खेत
ज्यूं दिखा रहे बस इसी ओर

कूंच कर रहा ऋतुराज बसन्त
आता ग्रीष्म ऋतु का अब जोर

उमेशकुमारश्रीवास्तव ,जबलपुर , दिनांक २९.०३.१७

आकाक्षाओं के पद तले

आकाक्षाओं के पद तले

नित संघर्ष
स्वमं से
द्धन्द, मल्ल
उन्माद की
सीमा तले

जीवन !
जीवन
चलता चले
तल्ख धूप हो
या चांदनी हो चढ़ी
हम खड़े
ताड़ से , 
और
अखाड़े में पड़ी है 
उम्र ,
कदमों तले

तलासते खुशियां
गुम हो गये
खोजने लगे 
अब
स्वमं को 
सभी
सम्भवतया
स्वंम मैं भी

कई दिन हुए
खुद से मिले
औरों की आदत
यूं पड़ गई

आज जो हम मिले
चौंक ही हम गये
जो गैरोँ सा उसे
बस देखते ही रहे
किताबों में वो कहीं
पढ़ा सा लगा
वो अनजान था
कुछ परेशां लगा

कुछ इसारे किये
मगर मौन ही
इधर द्वन्द था
ना समझने का ही

हिकारत भरी 
नजर डाल कर
विदा कर दिया
अजनबी सा उसे

है फुरसत कहां
भूत से मैं मिलूं
आज से भी मिलूं
जब वक्त ,ये ही नहीं

दूर की सोच है
इक महल स्वप्न का
चाहतों के किले 
हैं घेरे मुझे
जिनके लिये
बस जी रहा हूं

आकाक्षाओं का घेरा 
संकुचित क्यूं करू
भोगना है मुझे
सुख की हर बून्द को

सुख के लिये
द्वन्द जी रहा हूं
चिन्तन बिना
कल जी रहा हूं
हूं खोया स्वमं को
आज की दौड़ में
ये जाने बिना
तम विवर में जीने के
पल जी रहा हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दि० २९.०३.१७

मंगलवार, 15 मार्च 2022

परिवर्तन

बून्द बून्द जीवन जल पीता
हर जीवन घट रीता रीता
तरल सरल निर्मल निर्झरता
त्याग चला ये जीवन मीता ।

सूख गये सब ही अब सोते
अपने सब अपनत्व हैं खोते
ह्रदय झरोखे सब के ही रीते
स्निग्ध भाव सब ही का बीता ।

मीत वृत्त खंडित हो जर्जर
अस्त व्यस्त रिस्तों के पंजर
दूर हुए सब अपनों के साये
दिये बुझे,है तम की अब गीता।

गिद्ध गये ,सब बने गिद्ध हैं
नोच खसोट में, सभी सिद्ध हैं
इनका किसी से भेद कहां है
इनका ही अब रूधिर सभी का ।

बदल गई सब परिभाषाएं
परवान चढ़ी हैं अभिलाषाएं
कहां रूकेंगी,क्या कोई जानें
विलख रहा है प्राण सभी का ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
महाकाल एक्सप्रेस ट्रेन
वाराणसी से झांसी यात्रा
दिनांक १५.०३.२०२२










रविवार, 13 मार्च 2022

गज़ल , मैं मलंग क्या करूं


                  गज़ल

मैं मलंग क्या करूं ,जो खुशमिजाज हूं,
सोचते सब मुझे,तकलीफ़ नहीं कोई ।

बदगुमानियां ना करा ,तब्बस्सुम लिये चेहरे
दर्द की मेरे ,कोई परवाह नहीं करता ।

खुदगर्ज ना बन सका, बीती जिन्दगी,
खुदगर्ज कह मुझे, सदा, सताता ये जहां ।

ख्वाब सा हूं जी रहा ,लोगों के बीच मैं,
तकदीर ख्वाब की यही, जग, भूलता जहां ।

था मलंग ,हूं मलंग ,मलंग ही रहूं 
रब से यही तकदीर, मैं, मांगता सदा ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
वाराणसी , दिनांक १३. ०३. २०२२

शनिवार, 12 मार्च 2022

होली

होली के रंग सब के संग

होली के रंग में
रंगीली उमंग में
आपका भी साथ हो
दिलों की ही बात हो
नयनों में प्यार हो
रंगों की बहार हो
हाथों में गुलाल हो
चेहरे सब के लाल हों

फागुनी बयार में
सुनहरी एक तान हो
झूमते बदन के संग
खिलती मुस्कान हो

यार हो प्यार हो
दुलार ओ सत्कार हो
जिन्दगी की रंगीनियों की
खुली इक दुकान हो

बांटिये खुले खुले
बन्द न कोई प्राण हो
प्यार भरे रंग सब
न दिल में कोई त्राण हो

हरे नीले पीले के संग
गुलाबी भी श्रृंगार हो
दिलों में भरे उंमग
लाली लिये प्यार हो

रिस्तों की खटास पर
मिठाइयौं की मार हो
मिटा दो खटास सब
होली की पुकार हो

गले लगा प्रिये सभी
रंग दो सभी चुनर
न हो अलग थलग कोई
बस प्यार की खुमार हो

आओ खेले होली हम सब
राधा कान्हा बन बन
प्रेम जगे धरती पर सात्विक
बने धरा वृन्दावन

सबके जीवन में खिल जायें
सतरंगी  फुलवारी
सुख की उझास यूं फैले
मिटे दुःखों की अंधियारी

सभी गुरु जन को सादर नमन के साथ, बन्धुओं को सादर ,एंव कनिष्ठ जन को सस्नेह होली का अमिनन्दन एंव मंगल कामना ।

उमेश श्रीवास्तव  जबलपुर १३.०३.२०१७

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

मां

हे मां ,
तेरा जन्म दिवस !
तू तो , 
अजर, अमर, अविनाशी है ।
आत्म-नीर बिन्दु सम
रही शाश्वत 
साकार जगत की काशी है ।

जन्मदात्रि तू 
अखिल विश्व की
ना जन्मी तू
अवतरित हुई ।
हम पायें सुरभित वसु
ले ब्रम्ह रूप पल्लवित हुई ।

जब जब धरा पर आये हम
तेरे ही अंकों में खेले
तेरे ही आंचल छांव तले
हर शीत , ग्रीष्म, बरखा झेले।
हर ज्ञान,ध्यान, विज्ञान हमें
तूने ही अर्पित किया सदा
इक माटी के लोंदे को
मनु अंश बना तारा है सदा ।

हर प्राण तुझी से
उत्सर्जित
हर ज्ञान तुझी से
आलोकित
इस जीवन के हर क्षण कण का
आमोद तुझी से आलोकित ।

अवतरण दिवस है यह तेरा
जन्म दिवस क्यूं मैं मानूं 
जननी बिन जग क्या संम्भव ?
ब्रम्ह तुझे क्यूं ना मानूं
आकार व्रम्ह ने दिया स्वयं को
तू ब्रम्ह रूप में आई है,
हूं अंश तेरा,मैं भी अविनाशी
बस यही खुशी मनाऊं मैं ।

तेरी छाया अनवरत रहे,
स्नेह,दुलार आशीष लिये
तू स्वस्थ्य और सानन्द रहे
हर रोम मेरा यह चाह लिये ।

आपके स्नेहाकांक्षी
उमेश कुमार श्रीवास्तव, 
श्रीमती अनुपमा श्रीवास्तव, 
शिवांशु श्रीवास्तव
शिवपुरी (म०प्र०)

हसरते चाह

हसरते चाह

तुमको सुकूं मैं दे सकूं'
यूं बेसुकूं रहता हूं मै
गुल खिलें रुख्सार पे
यूं दर्दे ख़ार चुनता हूं मैं

तुम खिल के मुस्कुरा सको
यूं गम तेरे चुनता हूं मैं
तुम सबा बनी बहा करो
यूं खिज़ा के संग पलता हूं मैं

मायूसियत कभी किसी 
मोड़ तुझे न आ  मिले
हर मोड़ पे तेरी राह के 
यूं मुंतजर रहता हूं मैं

मेरी हर खुशी तेरे दर पे है
तेरे गम का आसरा हूं मैं
इक तब्बस्सुम चाह ले
यूं जला  करता हूं मैं

तू फकत मुस्कराए जा
मेरे अश्क पे तू कभी न जा
मेरे गम मुझे अजीज़ हैं
यूं राह इस चलाता हूं मैं

तेरी जिन्दगी का नाख़ुदा
बस यूं ही नही हूं मै बना
तेरे रंजो गम वो दर्द की.
यूं इम्तहां करता हूं मैं

ये ही फकत है आरजू
देखूं तुझे हर मोड़ पे
तू मुझे तकती ज्यूं सदा
यूं ही तुझे मैं तका करूं ।

उमेश श्रीवास्तव २७.०१.२०१७ जबलपुर

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