मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"  
वही रश्मि औ वही किरण है 
वही धरा औ वही गगन है 
वही  पवन है नीर वही  है 
वही कुंज  है वही लताएँ 

पर्वत सरिता तड़ाग वही हैं 
 वन आभा श्रृंगार वही है 
प्राण वायु औ गंध वही है 
भौरो  की गुंजार वही है 

क्या बदला है कुछ,नव प्रकाश में 
ना ढूंढो उसको बाह्य जगत में 
वहाँ मिलेगा कुछ ना तुमको 
डूबो तनिक अन्तःमन में 

क्या कुछ बदला है मन के भीतर ?
जब आये थे इस धरती पर 
क्या वैसा अंतस लिए हुए हो ?
या कुछ बन कर ,कुछ तने हुए हो !

अहंकार , मदभरी लालसा 
वैरी नहीं जगत की  हैं यें  
यही जन्म के बाद जगी है 
जो वैरी जग को ,तेरा कर दी है 

यदि विगत दिवस की सभी कलाएँ 
फिर फिर दोहराते जाओगे 
नए वर्ष की नई किरण से 
उमंग नई  क्या तुम पाओगे 

जब तक अन्तस  अंधकूप है 
कहाँ कही नव वर्ष है 
अंधकूप को उज्जवल कर दो 
क्षण प्रतिक्षण फिर नववर्ष है 

हर दिन हर क्षण, जो गुजर रहा है 
कर लो गणना वह वर्ष नया है 
हम बदलेंगे  युग बदलेगा 
परिवर्तन ही वर्ष नया है 

गुजर रहे हर इक पल से 
क्या हमने कुछ पाया है 
जो क्षण दे नई चेतना 
वह नया वर्ष ले आया है  

मान रहे नव वर्ष इसे तो 
बाह्य जगत से तोड़ो भ्रम 
अपने भीतर झांको देखो 
किस ओर  उझास कहाँ है तम 

अपनी कमियां ढूढो खुद ही 
औरो को बतलादो उसको 
बस यही तरीका है जिससे 
हटा सकोगे खुद को उससे 

सांझ सबेरे एक समय पर 
स्वयं  करो निरपेक्ष मनन 
क्या करना था क्या कर डाला 
जिस बिन भी चलता जीवन 

कल उसको ना दोहराऊंगा 
जिस बिन भी मैं जी पाऊंगा 
आत्म शान्ति जो दे जाए मुझको 
बस वही कार्य मैं दोहराऊंगा 

 राह यही  नव संकल्पो की 
लाएगी वह  अदभुत हर्ष 
तन मन कि हर  जोड़ी जिसको 
झूम कहेगी नया वर्ष 

आओ हम सब मिलजुल कर  
स्वागत द्वार सजाएं आज 
संकल्पित उत्साहित ध्वनि से 
नए वर्ष को लाएं आज 

   उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

शेर

मुसाफ़िर शायरी में ये शेर पढ़ा

हमे अपना इश्क तो एकतरफा और अधूरा ही पसन्द है..
पूरा होने पर तो आसमान का चाँद भी घटने लगता है...

जबाब देने को  कीड़ा कुल बुलाया, नज़र है 

चांद आसमां में , न घटता बढ़ता
बस देखनें का अंदाज बदल देती है तू
इश्क इक तरफा ..? है फितूर
पूछ देखो,पथ्थर में आग लगा देती है तू

प्रयास सही था या नहीं ..? कदरदानों से दाद का इंतजार होगा ।
उमेश ११. १२ . १६

शेर

कदर - ए- इश्क आती कहां है हुश्न को 
खुद़ पर गुरुर करता रहा है आज तक
इश्क पूरा कहां है हुश्न बिन
सबब सदियों से रहा इक तरफा - ए- इश्क
       उमेश

बुधवार, 3 नवंबर 2021

खामोशियां हूं ओढ़े

खामोशियां हूं ओढ़े 
मुस्कुराहटों के संग,
अन्दर है शोर इतना
ज्यूं लड़ रहा हूं जंग ၊
.....उमेश

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

विजयादशमी

विजयादशमी

विजयी हुए थे राम मगर,
वह युग त्रेता बीत गया ၊
दुर्गुण पर्यायी रावण तो
इस युग में आकर जीत गया ၊ ।

हर प्राण हुआ है रावण अब
जो बचे रहे वे रीते हैं ,
सुख बांट रहे हैं रावण अब 
राम तो रीते रीते हैं ၊

खलनायक नाहक रावण  है
हर नायक आज दुर्दान्त यहां ,
था चरित्रत्रयी का, वह अधिनायक
हैं दुष्चरित्रता से ये निष्णान्त यहां ၊

पुतलों पर भले ही चेहरे हम
रावण के आज सजाते हैं ,
राम मुखौटे पहन पहन
रावण का दहन कराते हैं ၊

गौर से जो देखें हम अन्तस
तो रावण को वहां सजाये हैं,
पुतलों में रावण के भीतर
हम ,राम को आज बिठाये हैं ၊

हम विजय कर रहे सुर जन पर,
दुर्जन की जयकार लगाते हैं ၊
विजयादशमी को हम सब मिल,
यूं राम दहन कर आते हैं ၊

यदि यूं ही हम विजयी होते
हर सुर का हनन करायेंगे ၊
फिर ,वह दिन दूर नही साथी ,
हम रावण दिवस मनायेंगे ၊

अब तो जागो हे भारत,
स्वचरित्र सन्धानों तुम  ၊
रावण के अच्छे गुण अपना,
अपने रावण को संहारो तुम ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,दिनांक ०८.१०.१९ विजयादशमी , पुरी , उड़ीसा

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

तितलियों के पर में , जो रंग भरे हैं तूने
पक्षियों के स्वर में हैं भरी जो गूंज तूने

नदियों की निनाद कल-कल रेसम सी दे रखी है

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

अफ़सोस

फ़ितरत में है नहीं रह सकूँ दूर तुमसे 
मजबूर हो गया हूँ, अपने 'करम' से यारो
फिर रेत की दरिया में कश्ती है आ गई
सूखी कलम हमारी तर रोशनाई के बिना
                       
  उमेश, ग्वालियर १४.०२.१४

शनिवार, 5 जून 2021

अमदन = जानबूझ कर
रिंद = मनमौजी स्वच्छन्द धार्मिक बन्धन न मानने वाला
जब्र- जबरजस्ती बलपूर्वक जुल्म अत्याचार
दस्तूर - प्रथा, नियम

शुक्रवार, 4 जून 2021

अजश्र श्रोत मैं मीठे जल का,
शीतलता का, मुझमें है वास
अर्क भूत झोलकिया भी मुझमें
माखन सा, है स्निग्ध   गात ၊






हे पलास


हे पलास


हे पलास
तुम अद्भुत हो
सुन्दर
मोहक
चित्ताकर्षक
तप-भंगी
मोहिनी
उर्वशी हो
मादक - मदन
भूल मादकता
रीझ रीझ 
त्यागे चंचलता
ऐसी सूरत
के धनी हो
रति के अंगों सी कोमलता
भाव-भंगिमा की चंचलता
पाषाण ह्रदय स्पन्दित हो जाये
रसराज रसों के
आगार धनी हो
हे पलास
तुम अद्भुत हो ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी , दिनांक ४.६.२१


बुधवार, 2 जून 2021

शाश्वत सत्य

शाश्वत सत्य

बिदा होना है जब जिसको बिदा वो हो ही जायेगा,
पकड़ता क्यूं है, यूं बाहें, नही तू रोक पायेगा ၊

मुसाफिर था मुसाफिर है, चलना ही वो बस जाने ,
उसे तू रोकता क्यूं है, पलट वो फिर न आयेगा ၊

अरे तू रो रहा क्यूं है , उसे क्या जानता था तू !
जो माटी मानता अपनी , उसे वो छोड़ जायेगा ၊

अंधेरे से वो आया था  वहीं वह लुप्त हुआ अब है
उजाले में खड़ा तू है, तू कैसे देख पायेगा ၊

यहां सब यायावर, न कोई संगी साथी है ,
तू अपना ध्येय नियत कर ले, धरा से तू भी जायेगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी, दिनांक ०३.०६.२०२१

शुक्रवार, 28 मई 2021

शेर

जिन्दगी का हरदम, रहा, अलग ही फ़लसफा,
हद में रह नहीं सकते , बाहर निकल नहीं सकते ၊

जो जाग जाये खल्क ख़ुदा की रज़ा समझो
अभी तक तो यहां सब ने , सो कर गुजारी है ၊

तू मांगता क्यूं है , ख़ुदा तुझमें घर किये बैठा
ज़रा मानिन्द खुद के ही ,नज़र फेर जो तू ले ၊

....उमेश , शिवपुरी २८.०५.२१

गुरुवार, 20 मई 2021

वह एकाकी उड़ता वक
तकता, जल बिन, सूनी धरती
चला जा रहा उड़ता तकता
शुभ्र परों व व्यथित दृगों से,
म्लान धरा को  ၊

जल बिन सूनी हर काया है ,
पाषाण सदृष्य फिर हर माया है,
स्पन्दन है , पर रस विहीन सभी
जीव चाराचर सम्पूर्ण धरा पर ၊

उड़ा जा रहा टकटकी लगाये
मृदुता कहीं नजर न आये
सूखी निर्झरणी सूखे ताल
गिरि उपवन सब विह्वल





सोमवार, 17 मई 2021

रुबाई

चश्मो में चमकी तब्बस्सुम जो देखी 
मेरी जिंदगी मुस्कुराने लगी
रुखसार पे तेरी हया जो  देखी 
ये  जिंदगी  गुनगुनाने  लगी
लबो की तेरी गुलाबी ओ रंगत  
मुझमें फिर जुनू है जगाने लगी
क्या कहूँ क्या कहूँ क्या कहूँ ऐ जानम 
ख्वाबो में भी तू जो जगाने लगी
                                                                    उमेश श्रीवास्तव

रसराज "रति"(श्रृंगार

रसराज "रति"(श्रृंगार)

हम हास करें या क्रोध करें,
भयभीत रहें या उत्साह भरें,
विस्मित हो  कर बस शोक करें,
जुगुप्सीत हो कर निवेद करें ,
पर, भूल सके क्या रति रस को,
रसराज यही, आनन्द भरे ၊

जग कारक रसराज रति
मोहक,उर्जित,उन्माद जनक
पालक , मारक ,उद्धारक , रति
है ,अजर अमर अविनाशक ၊

 
आगार नहीं, जग कण कण को
श्रृंगार बिना इस वसुधा  पर
रसराज बिना रस हीन धरा
हर प्राण लगे मरु रज कण से ।

मन्मथ मथे मथनी सम
निर्जीव,सजीव सभी कण को
मकरंद बने, सुरभित चहुंदिश
अजर रहे रस भीगत जो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक १८. ०५ . २०२०

शनिवार, 15 मई 2021

दो मुक्तक

कौन कहता फूल बड़े नाजुक होते हैं
मैने देखा है उन्हे धूप में तप मुस्कुराते हुए।

झुकना तहजीब मेरी , मजबूरी नही ,
गुरुर पाल तू , खुद को, ज़मीदोज करता क्यूं है ၊
.......उमेश

शनिवार, 8 मई 2021

दो मुक्तक

कौन कहता फूल बड़े नाजुक होते हैं
मैने देखा है उन्हे धूप में तप मुस्कुराते हुए।

झुकना तहजीब मेरी , मजबूरी नही ,
गुरुर पाल तू , खुद को, ज़मीदोज करता क्यूं है ၊
.......उमेश

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

कशिश

रात की नरमियां 
राख की गरमियां
दीखती जो नहीं
हैं मिजाजे हरम

आप खामोश हैं
या कि मदहोस हैं
जान पाते ,क्यूं नही
पाल रखा क्यूं भरम

ख्वाब आते नहीं
या कि भाते नहीं
दीखते क्यूं नहीं
रंगीनियों के सितम

रागिनी गा रही 
या कि भरमा रही
लहरियों से जाना, 
तूने नहीं

आज की जो तपिश
आज की वो नहीं
उड़ रही राख जो
आग की वो नहीं

पाल तू न भरम
तू बच जायेगा
राख है राख बन
तू भी उड़ जायेगा

यूं भटका किया
साथ तू ना जिया
नीद की गफलतों सा,
रहा,सारा तेरा करम

ये अगन ये जलन
औ रहेगा करम
शेष रह जायेगा
बस तेरा ये भरम

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २३.०४.२७

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

दिल के जज्बों पे

दिल के जज्बों पे , 
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में 
दिलकश इक रूप तू

तू जाने ना ,
दिल चाहे क्या, 
ख्यालो में खोया खोया
दिल का हर लम्हा है

तू जब आती है, 
खूं में रम जाती है
मेरे हर पल को तू
रंगत दे जाती है

दिल के जज्बों पे , 
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में 
दिलकश इक रूप तू

दुनिया जो मेरी है
प्यास घनेरी है
मेरी इस अभिलाषा को
बरखा दे जाती तू

दिल के जज्बों पे , 
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में 
दिलकश इक रूप तू

दिल की गलियों में आ
तुम जो छाई हो
तुम बिन जीना अब ना
कशक वो जगाई हो

दिल के जज्बातों से
ना करना यूं खेल तू
जीवन की खुशियां तुझसे
है सांसों की डोर तू

दिल के जज्बों पे , 
इक सुहानी धूप तू
नयनों की नज़रों में 
दिलकश इक रूप तू

उमेश  १६.०४.१७ जबलपुर

रविवार, 11 अप्रैल 2021

चाह

चाह

गंगा सी निर्मल धार बनूं
इक सोच सरल सी रहती है
मन मस्तिष्क हृदय से हो
इक निर्झरणी सी बहती है ।

कोयल सी कोमल कूक बनू
हिरणी सी चपल समअक्षि लिये
निडर रहूं तनिक न डिगूं
शार्दूल बनूं सत लक्ष्य लिये ।

दधीचि सदा आदर्श रहें
जन तारण की यदि मांग उठे
प्रमाद तनिक उर न धरूं
भगीरथ सा संकल्प रहे ।

व्यान अपान उदान समान
साध्य बने प्रण प्राण लिये
यमुना सी शीतल काया बनूं
तिस्ता सी चंचल स्वांग रचूं

हर हिय, हर हरि द्वार लगे
हर द्वार मुझे हरिद्वार लगे
हर हिय मे बसूं आदर बन के
हर हिय में बसें तापस बन के

जीवन की बस चाह यही
जी मैं सकूं सबका बन के
दे मैं सकूं हर की चाहत
साध सकूं अपना आगत ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर १२.०४.१७ ,(१२.३३)

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

नववर्ष सन्देश

अभिनन्दन नववर्ष तेरा
आपूरित कर सब सद - आकांक्षा
जन जन की
हो सबका नया सवेरा
..... सभी मित्र सज्जनों व देवियों को नववर्ष मंगलमय हो

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

रविवार, 28 मार्च 2021

बसन्त का छोर

बसन्त का छोर

नव पल्लव ज्यूं शोभित हैं
हर तरु की हर डाली पर
शुष्क धरा पर,शिशु टेसू
बिछा रहे ज्यूं मतवाली फर

नव मुकुन्द ज्यूं पुष्पित है
भ्रमर डोलते ज्यूं उन पर
शुष्क तृणों से भरी डगर पर
मृग डोले ज्यूं इधर उधर

आम्र तरु पर लटक रहे ज्यूं
कैरी गुच्छे गदराये से
महुए के फूलों से ज्यूं उठती
महक नशीली मतवाली सी

प्रात वायु की शीतलता में
ज्यूं प्रखर हो रहा अनल इधर
अरूण रक्तिमा में ही झलके
ज्यूं अंशुमालि का तेज प्रखर

जल धाराओं के चहुंदिश गुंजित 
ज्यूं पशु, पक्षी ,कीटों के शोर
हरित चुनरिया विहीन खेत
ज्यूं दिखा रहे बस इसी ओर

कूंच कर रहा ऋतुराज बसन्त
आता ग्रीष्म ऋतु का अब जोर

उमेशकुमारश्रीवास्तव ,जबलपुर , दिनांक २९.०३.१७

आकाक्षाओं के पद तले

आकाक्षाओं के पद तले

नित संघर्ष
स्वमं से
द्धन्द, मल्ल
उन्माद की
सीमा तले

जीवन !
जीवन
चलता चले
तल्ख धूप हो
या चांदनी हो चढ़ी
हम खड़े
ताड़ से , 
और
अखाड़े में पड़ी है 
उम्र ,
कदमों तले

तलासते खुशियां
गुम हो गये
खोजने लगे 
अब
स्वमं को 
सभी
सम्भवतया
स्वंम मैं भी

कई दिन हुए
खुद से मिले
औरों की आदत
यूं पड़ गई

आज जो हम मिले
चौंक ही हम गये
जो गैरोँ सा उसे
बस देखते ही रहे
किताबों में वो कहीं
पढ़ा सा लगा
वो अनजान था
कुछ परेशां लगा

कुछ इसारे किये
मगर मौन ही
इधर द्वन्द था
ना समझने का ही

हिकारत भरी 
नजर डाल कर
विदा कर दिया
अजनबी सा उसे

है फुरसत कहां
भूत से मैं मिलूं
आज से भी मिलूं
जब वक्त ,ये ही नहीं

दूर की सोच है
इक महल स्वप्न का
चाहतों के किले 
हैं घेरे मुझे
जिनके लिये
बस जी रहा हूं

आकाक्षाओं का घेरा 
संकुचित क्यूं करू
भोगना है मुझे
सुख की हर बून्द को

सुख के लिये
द्वन्द जी रहा हूं
चिन्तन बिना
कल जी रहा हूं
हूं खोया स्वमं को
आज की दौड़ में
ये जाने बिना
तम विवर में जीने के
पल जी रहा हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दि० २९.०३.१७

शाख से गिर कर*

*शाख से गिर कर*

शाख से गिर कर बिखर गये जो 
उन पत्तों का कहना क्या
पीत बदन जो पड़े बावले 
उन पत्तों का कहना क्या

कल तक जिन के अंग रहे थे
सुख दुख जिन के संग सहे थे
वे विदेह बन जायें तो फिर
उन शाखों को कहना क्या

कई कई अंधड़ थे देखे
कई मेघ भी आये झूमे 
जेठ दुपहरी जिन संग झेली
वे सब अब हो गये पराये
दूर उन्ही से यूं पड़े एकाकी 
इन पत्तों का कहना क्या

शिखर से टूटा अब कदमों में
सखा वृक्ष की शाखाओं का
आज एकाकी मात्र पात जो
सूखे सिमटे पीत गात के
उन पत्तों का कहना क्या

पिछला पल ही जीवन था
वह भी जीता हर पल था
नही जानता अगला पल क्या
समय भागता पल पल था
समय की धारा से अनजाने
झ्न पत्तों को कहना क्या

शरद,शिशिर,हेमन्त भी देखे
बसन्त राग संग झूमा भी था
ना जाने कितने पुष्पों को
अपने अधरो से चूमा भी था
पद तल विखरे निःसहाय पड़े जो
इन पत्तों का कहना क्या 

शेष बची कुछ चंद घड़ी हैं
कदमों में भी ना आश्रय होगा
पवन लहर पर सवार हो
दूर दृगों के पार  जो होंगे
शाख से टूटे  विलग हुए
इन भग्न ह्रदय पत्तों का क्या

प्रकृति नियम ये सदा रहा
जो जुड़ा रहा वह फूला फला
एकाकी बन जो रहा अहंपोषित
वो पर चरणों का दास रहा
परिपक्व हुआ, हूं श्रेष्ठ जना
ज्यूं भाव जगा ,वो विलग हुआ
ज्यूं विलग पड़ा पीतांग बना
इन पीत बदन पत्तों का क्या

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दि० २७.०३.१७

अय नदिया की निर्मल धारा

अय नदिया की निर्मल धारा
तू क्यूं बहती रहती है
शीतलता का ओढ़ आवरण 
सबको शीतल करती है।

कल कल कलरव निश्छल निर्मल
अविकल अविचल सदा निरन्तर
नहीं शोर, बस निर्झर निर्झर
सब को आन्दोलित क्यूं करती है ।

अहंकार प्रतिरोध अगर
निर्मलता तज ले रौद्र रूप
कर देती सबको भयाक्रान्त 
क्या अबला की सबलता दर्शाती हो ?

चंचल वन , निर्जन आंगन
पाषाणित गज, कुशुमित उपवन
सबमें रस भर सुरभित कर कर
 क्या बैभव अपना झलकाती हो

उमेश (28.०३.२०१६)

मुक्तक

जिन्दगी सदा मुस्कुराती नहीं, 
दर्द की पोटली वो छिपाती नहीं
क्यों परेशां हो रहा देख आफताब को
कौन कहता तलखियां आ के जाती नहीं।
  .....  उमेश......(२८.०३.२०१६)


मिलती रही निगाहों से निगाहें बार बार
सबब बस यही था मदहोसी का हमारी ।
उमेश श्रीवास्तव


चंचल मन उन्मुख रहे सदा पाप की ओर
धर्म राह पर चल पड़ने को लगे सदा ही जोर ।
 
उमेश श्रीवास्तव

गुरुवार, 25 मार्च 2021

क्या है प्यार

किसी ने जब पूछा, क्या है प्यार ?
चिन्तन तनिक ठिठक गया
चंचल मन तनिक भ्रमित भया
पर प्रज्ञा तनिक सजग हुई
विद्या को उसने दिया यूं जबाब

स्पन्दित दिल की लहर है प्यार
शुद्ध लहू की धार है प्यार
रोशन जग को करती आंखे
उन आंखों की ज्योति है प्यार
बन्द कली प्रमुदित हो चहके
नर्म,गर्म वो दुलार है प्यार

अंग अंग उन्मादित कर दे
चेहरे पर आतुरता भर दे
अबूझ प्यास सा जीवन कर दे
चिन्तन को भी मोहित कर दे
जीवन की हर दशा दिशा  को
एक राग से गुंजित कर दे
परमात्म जगत से प्रतिध्वनित हुई
दो आत्म जगत का राग है प्यार

उमेश कुमार श्रीवास्तव , 23.03.17 जबलपुर

गजल

गजल

मैं चाहता बहोत हूँ, खोया रहूं तुझी में
पर करूं क्या मैं, तेरा , ये गुरुर रोक देता ।

कहने को बंदिशें हैं , जमानें की हर तरफ
है मजाल क्या किसी में ? तेरी बंदगी रोक देता ।

सरफरोश हूं मैं तेगे जुनू है अब तक,
रुकता नहीं मैं अब तक,जो तू ही न रोक देता ।

मिलते नहीं ऐसे,अब सरफरोश दिवाने
जाना जो तूने होता, तो यूँ न टोंक देता ।

जन्नत की चाशनी गर, ये हुश्न है तुम्हारा
चखने को स्वाद इसका क्यूं  , मरनें नहीं है देता 

उमेश (२६. ०३. २०१६)

सोमवार, 22 मार्च 2021

होली

सभी को मंगल हो,ये होली , 
उमंग मिली,भंग की गोली,
टेसू सा सुर्ख रहे जीवन
चहुं दिश गूंजे , हंसी ठिठोली
     उमेश

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

होली के रंग सब के संग

होली के रंग सब के संग

होली के रंग में
रंगीली उमंग में
आपका भी साथ हो
दिलों की ही बात हो
नयनों में प्यार हो
रंगों की बहार हो
हाथों में गुलाल हो
चेहरे सब के लाल हों

फागुनी बयार में
सुनहरी एक तान हो
झूमते बदन के संग
खिलती मुस्कान हो

यार हो प्यार हो
दुलार ओ सत्कार हो
जिन्दगी की रंगीनियों की
खुली इक दुकान हो

बांटिये खुले खुले
बन्द न कोई प्राण हो
प्यार भरे रंग सब
न दिल में कोई त्राण हो

हरे नीले पीले के संग
गुलाबी भी श्रृंगार हो
दिलों में भरे उंमग
लाली लिये प्यार हो

रिस्तों की खटास पर
मिठाइयौं की मार हो
मिटा दो खटास सब
होली की पुकार हो

गले लगा प्रिये सभी
रंग दो सभी चुनर
न हो अलग थलग कोई
बस प्यार की खुमार हो

आओ खेले होली हम सब
राधा कान्हा बन बन
प्रेम जगे धरती पर सात्विक
बने धरा वृन्दावन

सबके जीवन में खिल जायें
सतरंगी  फुलवारी
सुख की उझास यूं फैले
मिटे दुःखों की अंधियारी

सभी गुरु जन को सादर नमन के साथ, बन्धुओं को सादर ,एंव कनिष्ठ जन को सस्नेह होली का अमिनन्दन एंव मंगल कामना ।

उमेश श्रीवास्तव  जबलपुर १३.०३.२०१७

गुरुवार, 11 मार्च 2021

मैं प्यार हूं

मैं प्यार हूं, 
क्या तुम भी कहोगी ?
मैं बहता तरल हूं , 
क्या तुम भी बहोगी ?
मैं प्यार हूं , क्या तुम भी कहोगी ?

बसन्ती है रंगत
मेरे गात की
मादक-मोहनी छवि
मेरे जाति की ,
क्या रंगत मे मेरी 
तुम भी घुलोगी
उन्मत्त हो कर
मुझ संग चलाेगी ?

वीणा की धुन सी
वाणी है मेरी 
मधु चासनी सी
वचनों की लड़ियां
सुधा के बिना
हैं कुपोषित ये सारे
क्या लता सोम बन तुम
पोषित करोगी ?

है पथ ये दूभर
पर,मादक डगर है
कटंक भरा पर
सुरभित भ्रमण है
चला जो भी इस पर
डगमग ही डगमग
सहारा मिला तो
सुहाना सफर है
क्या मेरे संग मेरी
हमडग तुम बनोगी ?

जब से धरा है
भटकता रहा हूं
टूटता भी रहा हूं 
बिखरता रहा हूं
जब भी मिली तुम
संवर भी गया हूं
प्रेम के ही सहारे
निखर भी गया हूं 
क्या नयनों की अमी को
अधरों पे ला के
मेरे प्राण मुझको अर्पित करोगी  ?

उमेश कुमार श्रीवास्तव
केराकत , जौनपुर
दिनांक : ११.०३.२०२१.



बुधवार, 10 मार्च 2021

ग़ज़ल : कहाँ से लाए हो चुरा के

ग़ज़ल

कहाँ से लाए हो चुरा के इन नज़रो को 
चुरा लेती हैं  जो हर दिल करीने से

पलक के पर्दों को यूँ आहिस्ता उठाती क्यूँ हो
कहीं डर तो नही , कोई दिल फिसल न गिरे

तीखी नही जो सीधे बेध देती है
खंजर सी तिरछी नज़र से देखा न करो

कहने को लाख कहे झील या दरिया
हमे तो जाम-ए-हाला ही नज़र आती है

क्या कम तेरा हुस्न खाना खराब करने को
तीर-ए -नज़र के वार से हो क्यूँ विस्मिल हम

यदि चाहते हम भी हुस्न का दीदार करें
इश्क की चासनी भर इनको झुका लो ज़रा

                                      उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल : तरासते रहे औरों को

ग़ज़ल

तरासते रहे औरों को , कमियाँ निकाल निकाल
गर खुद को तरास लेते हर दिल अज़ीज होते

औरों ने चाहा जब जब हमको तरासना
अपने गुरूर में हम आपा रहे हैं खोते

हमने तो जाना ये ही हम से भला न कोई
औरों की मज़ाल क्या जो कह दे हमे हो खोटे

हम जान ये रहे थे मसहूर हो रहे हैं
बदगुमानियों में शायद अब तक रहे हैं सोते

ऐ जिंदगी तुझसे बस एक ही गिला है
क्यूँ शामिल किए नहीं, जो सच्चे मीत होते

तरासते रहे औरों को , कमियाँ निकाल निकाल
गर खुद को तरास लेते हर दिल अज़ीज होते

उमेश कुमार श्रीवास्तव ( ११.०३.२०१६)

सोमवार, 8 मार्च 2021

सच की तलास

सच की तलास 

 

सच , मैं जो हूं 

मैं जानता हूं
सच , तुम जो हो
तुम जानते हो ၊

सच , मैं जो नहीं
वो तुम जानते हो
सच , जो तुम नही
वो मैं जानता हूं ၊

सच , तेरा जो अन्तस
तू जानता है
सच , मेरा जो अन्तस
मैं जानता हूं ၊

सच , तेरा जो अन्तस
न तू मानता है
सच , मेरा जो अन्तस
वो,न मैं मानता हूं ၊

सच , ना तू बदल सकता
सच , ना मैं बदल सकता
चल, बदलता मैं तुझको
तू , मुझे बदल देना  ၊

उमेश
शिवपुरी
दिनांक ३.३.२१

मंगलवार, 2 मार्च 2021

स्वागत पलास फिर आये तुम

स्वागत पलास फिर आये तुम


स्वागत पलास फिर आये तुम
कृष्ण आवरण भेद, 
मृदु, मंद मंद मुस्काए तुम,
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

स्वर्णिम कपोल,रक्तिम अधरों पर,
कृष्ण मेघ जो छाये हैं,
श्रृंगार किये पर, व्यथित ह्रदय हो ,
हो कहां वसन गंवाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊


टकटकी लगाये दृग लगते हैं,
जिनमें विरही आश पले,
विरह व्यथा की झांकी है क्या ?
क्यूं थोड़े अलसाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

सुलग रहा है तन मन सारा,
टपक रही है प्रेम सुधा,
ह्रदय रक्त से, लीप के आंगन,
हो किसकी आश लगाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

कौन प्रिया है ? इतनी निष्ठुर !
प्रणय तेरा ना जान सकी ,
रसिक वियोगी, तुम तो योगी,
हो किसकी अलख जगाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

गिरि ,पठार अरु समतल वसुधा,
तुम सबमें इकसार जिये,
आज हुआ क्या ! क्यूं विचलित हो ?
क्यूं अपना धैर्य गवांये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

मदन बांण ले संधान करो बस,
हृदय बसी प्रिय के हिय को,
प्रेम सुधा से सींच उसे फिर,
वामा आज बना लो तुम ,
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी
दिनांक ०२.०३.२०२१








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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

चाहतें

चाहतें
 
 
चाहता हूं
शून्यता, नही निर्जीवता ।
सजीवता, बस स्पन्दन ही नही ।
ढूढता हूं एकान्तता 
निर्जनता नहीं
सरसता बस तरलता नही

मैं चाहता हूं
वाटिका
पुष्प गुच्छो से आपूर्ण ही नहीं
कलरवों से गुंजित
भंवरों, तितलियों के संग

हूं चाहता मानव समूह
उत्साह उमंगों से परिपूर्ण
नकारात्मकता से दूर
सकारात्मक बन्धुत्व की
भावनाओं के सागर में
तिरती

पर यह व्योम
अन्ध कृष्ण विवर सा 
दॄष्टि किरणे जिसमें
विलुप्त
भटकती आत्मा जिसमें
देती दिशा निर्देश
अनदेखा कर जिसे मन
स्वार्थ चिन्तन में 
मग्न

लगता नहीं कि,
ढूढ पाऊंगा कभी उस व्योम को
जो चिन्ताओं को भी 
समाहित कर शान्त कर दे
नयनों के परे के उझास में

उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर
२६.०२.११

बिन पुरुषार्थ

बिन पुरुषार्थ
 
 
अंजुलियो में धूप भर 
वैठा रहा
साथ देगी ज्यूं जिन्दगी भर
पर फिसलती ही गई
वो सांझ तक
आ गई चुपके से घनेरी रात अब

रिक्त देखूं अजुलियों को
मैं अचंभित
शुष्क मरू मृदा सी
कब तक ठहरती वो
गदेलियों पर

मैं रहा ठहरा 
तलैया जल बना
ओस की बून्दो से आपूर्त होता
और सरिता राशि पर विहंसता
दूर होती जाती जो 
उद्गम छोड़ कर

डूब कर आकण्ठ तम में
छटपटाहट ये कैसी
धूप की ? 
क्या काम इसका ? 
रवि दे रहा था प्रचूर 
तब ले सका ना
अनन्त झोली लिये तू

फिर घनेरी रात में 
करना विलाप 
रश्मिरथी को
यूं कोसना 
शोभा न अब 
दे रहा
बहते समय के नद
में खड़े
गुजरे समय की बाट में
जड़ बने
मुझको जड़ की ही उपमा
दे रहा है

उमेश श्रीवास्तव
२६.०२.१८
जबलपुर

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

विरोधाभाषी दर्शन

 विरोधाभाषी दर्शन

 

कागज की नावों को मैने 

तूफां से लड़ते देखा है ,
मजबूत दरियाई बेड़ों को 
तट पर ही डूबते देखा है ၊

मैने देखा है , इक दीपक
अधियारों से टकरा जाता है ,
रवि तेज बने अनेकों को
पर , तम में ही डूबे देखा है ၊

मैने देखा है उन कर्णों को
जिनकी, ख़ुद ना रही बिसात कोई
पर क्षद्मी भामासाहों को भी
दुनिया को छलते देखा है ၊

देखा है ऐसे भगीरथी भी
जो जन में जीवन खपा गये
ऐसे भी देखे परजीवी
जो सेवा से जन को पचा गये ၊

यह जग है,जगमग करता है
आंखों की ज्योति सजग रखना
माया की नगरी में है जीना
जग की आखों को तोल के रखना ၊

उमेश श्रीवास्तव
नव जीवन विहार कालोनी
विन्ध्य नगर , सिंगरौली
दिनांक ९.०३.२०२१

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कितना मधुर है मिलना स्वयं से
कितना कठिन, खोजना स्वयं को ၊



भीड़ में थे तो कहते समय ही कहां है
समय जब मिला ढूढ़ते भीड़ फिर सब

ढूढ़ते ढूढ़ते औरों की कमियां

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

शेर

परछाईयां भी खुद का, वज़ूद बना लेती हैं,
यारों वज़ूद अपना, कभी यूं बड़ा न करना ၊
. . . . उमेश ...०४.०२.२१

रविवार, 31 जनवरी 2021

प्रेम तुम बस बढ़ाया करो

प्रेम तुम बस बढ़ाया करो

 

मैं श्याम हूं श्याम बन कर रहूंगा

बस राधा बनी चाहती तुम रहो
प्यासा सदा प्रेम रस का रहा
मेरी प्यास,  ये तुम बुझाती रहो ၊

ताना व बाना प्रेम के तन्तुओं का
रंजक मेरा प्रेम का ही धनिक है
जो भी है मुझमें बस प्रेम है
प्यार का प्यार तुम बस बढ़ाती रहो ၊

चाहतें प्यार हैं, आदतें प्यार हैं ,
कर्म भी प्यार है , धर्म भी प्यार है
जीवन का मेरे सार ही प्यार है
रस को मेरे तुम सुरभित बनाती रहो ၊

अंजुलि भरो चाहे ,चाहे गोते लगाओ
प्रेम ही मिलेगा, तरल बन के बहता,
मैं हूं तरल ,भीग जाओगी मुझसे
लिपट जाओ न आंचल बचाती रहो ၊

रसी हूं, रसिक हूं ,हूं प्यासा मैं रसिया
रग रग में मेरे बह रहा प्रेम रस है
प्यासा हूं फिर भी, इसी प्रेम रस का
प्रेम को प्रेम से तुम बस बढ़ाती रहो ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
नव जीवन विहार कालोनी
विन्ध्य नगर , सिंगरौली
दिनांक ०९.०३.२०२१



शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल)
 उनकी इश्क की इस अदा को देखो
दर्द हमें तब्बस्सुम गैरों को बांट देते हैं
 दर्द दिल में जलन आंखों में लिये फिरते हैं
मरीज-ए-इश्क हैं, अश्कबार हुए फिरते हैं
उनकी मगरुरियत नालों पे कान देते नही
इक हम हैं कि पुकारे चले जाते हैं
उनको फिक्र कहां इश्क की बेकरारी की
उनको फुरसत नही अंजुमन के अपने तारों से
नज़रें दर पे कान आहटों पे लगे रहती है
न जाने कब हजूर बेआहट आमद दे दें

 नालों--पुकार
अश्कबार---रोता हुआ
मगरूरियत--अंहकारग्रस्त 
आमद- उपस्थिति
अंजुमन--महफिल
उमेश श्रीवास्तव , जबलपुर ३०.०१.२०१७

गुरुवार, 28 जनवरी 2021

जागो भारत जागो जागो

जागो भारत जागो

जन रो रहा , गण-मन रो रहा
जय हो रही अधिनायको की सदा
रक्त पी रहे हर राह पर जनों की
विधाता बने भाग्य के जो हमारी

दधिचि बनी थी अब तलक ये काया
हर रहनुमा ने हमें ही लुटाया 
नव अधिनायको की गर्जना है भयावह
सिसक है रही मातु भारती अब हमारी

वो भाग्य-विधाता कुन्द-मानस लिए थे
ये रहनुमा तो शातिर चालें लिए हैं
वो बाँटते रहे दिलों को दिलों से
ये तो नुचवा ही देंगे बोटी हमारी 

इक देश को उनने सूबों में बाँटा
अँग्रेज़ों की चालों का ले के सहारा
इनकी फितरत कितनी है शातिर
शहर की गली हर, बट रही अब हमारी

पंजाब सिंधु गुजरात मराठा उठो आज फिर जागो
द्राविण उत्कल बंग बंधु सब तंद्रा अपनी त्यागो
वाणी कर्म चरित्र त्रयी से परखो भाग्य विधाता
फिर सौंपो उसको इस जन गण की रखवारी 

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव २९.०१.२०१४

सोमवार, 18 जनवरी 2021

अभिलाषा

अभिलाषा 

अय सूरज
तू तपता क्यूं है ?
यूं शोलों में
जलता क्यूं है ?
आ अंको में
तुझको भर लूं
शीतल वाश
तन हिय मैं कर दूं

रहे अगन न 
बाकी कण भी
सब शोषित
स्व तन मैं कर लूं
कान्ति तेरी,
तुझको ही अर्पित
शीतल कनक बना
तुझको मैं
तुझको, तुझको 
अर्पित कर दूं

मैं अविरल हूं 
जल की धारा
तू जग का है 
पालन हारा
तेरे श्रम का मोल नही तो
क्यूं ना अनमोल 
मै आगत कर लूं

उमेश श्रीवास्तव १९.०१.२०१७

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

*प्रेम* जीवन मेरा

*प्रेम* जीवन मेरा

 

कोपलें फिर फूट आई

कहना उसे,
दिल में मेरे ၊

सदियों पुराने वृक्ष का 
हूं ठूंठ मैं,
रस मेरा, हर रन्ध्र में,
ना सूखने देता मुझे ၊

छोड़ दो या तोड़ दो
यूं ही रहूंगा,
प्रेम का प्यासा रहा 
प्यासा रहूंगा ၊

निकल अपने रन्ध्र से
फिर से जगूंगा
प्रेम का मकरन्द ही
सुरभित करूंगा ၊

अनुकूल या प्रतिकूल
जैसा भी बना दो
मैं श्याम हूं 
श्याम बन फिर उठूंगा ၊

राधा बनी प्रेम रस
झरसा करो तुम
हरित पुष्पित हो 
पुनः मैं जी उठूंगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
शिवपुरी , दिनांक : १४.०२.२०२१


शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

मुक्तक

अभी हो सम्मुख पर जाते हो  
मेरे दिल को हुलसाते हो  
फिर कहते ना नीर बहाओ  
तुम भी कितना तड़पाते हो.......उमेश

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

नव वर्ष अभिनन्दन

सादर अभिनन्दन , 
नववर्ष की नव किरणों से ।

सादर अनुकर्षण (देवता का आवाहन),
नव स्पन्दन का स्पन्दन से ।

सादर अनुरक्षण (पीछे से रक्षा करना),
नव चितवन का नव चिन्तन से ၊

सादर अभिवादन (श्रद्धापूर्वक किया जानेवाला नमस्कार),
नव लक्ष्यों का नव साधन से ।

सादर  संयोजन ,
भूत-अनागत का वर्तमान से ।

सादर अनुवादन (समर्थन),
मित्र रश्मि का शशि किरणों से ।

सादर आह्वाहन ,
हम तुम का, तुम हम से ।

सादर संचालन,
नव दिश को , दृढ़ पग दल से ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
शिवपुरी
दिनांक: ३१ . १२.२०२०