गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

चाहतें

चाहतें
 
 
चाहता हूं
शून्यता, नही निर्जीवता ।
सजीवता, बस स्पन्दन ही नही ।
ढूढता हूं एकान्तता 
निर्जनता नहीं
सरसता बस तरलता नही

मैं चाहता हूं
वाटिका
पुष्प गुच्छो से आपूर्ण ही नहीं
कलरवों से गुंजित
भंवरों, तितलियों के संग

हूं चाहता मानव समूह
उत्साह उमंगों से परिपूर्ण
नकारात्मकता से दूर
सकारात्मक बन्धुत्व की
भावनाओं के सागर में
तिरती

पर यह व्योम
अन्ध कृष्ण विवर सा 
दॄष्टि किरणे जिसमें
विलुप्त
भटकती आत्मा जिसमें
देती दिशा निर्देश
अनदेखा कर जिसे मन
स्वार्थ चिन्तन में 
मग्न

लगता नहीं कि,
ढूढ पाऊंगा कभी उस व्योम को
जो चिन्ताओं को भी 
समाहित कर शान्त कर दे
नयनों के परे के उझास में

उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर
२६.०२.११

बिन पुरुषार्थ

बिन पुरुषार्थ
 
 
अंजुलियो में धूप भर 
वैठा रहा
साथ देगी ज्यूं जिन्दगी भर
पर फिसलती ही गई
वो सांझ तक
आ गई चुपके से घनेरी रात अब

रिक्त देखूं अजुलियों को
मैं अचंभित
शुष्क मरू मृदा सी
कब तक ठहरती वो
गदेलियों पर

मैं रहा ठहरा 
तलैया जल बना
ओस की बून्दो से आपूर्त होता
और सरिता राशि पर विहंसता
दूर होती जाती जो 
उद्गम छोड़ कर

डूब कर आकण्ठ तम में
छटपटाहट ये कैसी
धूप की ? 
क्या काम इसका ? 
रवि दे रहा था प्रचूर 
तब ले सका ना
अनन्त झोली लिये तू

फिर घनेरी रात में 
करना विलाप 
रश्मिरथी को
यूं कोसना 
शोभा न अब 
दे रहा
बहते समय के नद
में खड़े
गुजरे समय की बाट में
जड़ बने
मुझको जड़ की ही उपमा
दे रहा है

उमेश श्रीवास्तव
२६.०२.१८
जबलपुर

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

विरोधाभाषी दर्शन

 विरोधाभाषी दर्शन

 

कागज की नावों को मैने 

तूफां से लड़ते देखा है ,
मजबूत दरियाई बेड़ों को 
तट पर ही डूबते देखा है ၊

मैने देखा है , इक दीपक
अधियारों से टकरा जाता है ,
रवि तेज बने अनेकों को
पर , तम में ही डूबे देखा है ၊

मैने देखा है उन कर्णों को
जिनकी, ख़ुद ना रही बिसात कोई
पर क्षद्मी भामासाहों को भी
दुनिया को छलते देखा है ၊

देखा है ऐसे भगीरथी भी
जो जन में जीवन खपा गये
ऐसे भी देखे परजीवी
जो सेवा से जन को पचा गये ၊

यह जग है,जगमग करता है
आंखों की ज्योति सजग रखना
माया की नगरी में है जीना
जग की आखों को तोल के रखना ၊

उमेश श्रीवास्तव
नव जीवन विहार कालोनी
विन्ध्य नगर , सिंगरौली
दिनांक ९.०३.२०२१

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कितना मधुर है मिलना स्वयं से
कितना कठिन, खोजना स्वयं को ၊



भीड़ में थे तो कहते समय ही कहां है
समय जब मिला ढूढ़ते भीड़ फिर सब

ढूढ़ते ढूढ़ते औरों की कमियां

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

शेर

परछाईयां भी खुद का, वज़ूद बना लेती हैं,
यारों वज़ूद अपना, कभी यूं बड़ा न करना ၊
. . . . उमेश ...०४.०२.२१