शनिवार, 17 सितंबर 2016

नज़्म व शेर


नज़्म व शेर


दर्द कितना है हर अल्फ़ाज़ बता जाता है, हर्फ-दर-हर्फ इक हूक् उठा जाता है
चश्म दर्द से नम हैं खुशियो से नही, अश्क के गिरने का अंदाज बता जाता है
उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरे खत का मजमून नहीं तुम पढ़ पाओगे ऐ साकी
बिस्मिल हरफ़ो पे लहू की चादर अब भी थोड़ी है बाकी
राजे नियाज़ करवा दो जो इस दिल से उस दिल की
चश्मे ज़ुबाँ वो खत की , ज़ुरुरत ही ना रह जाए बाकी
उमेश (१२.०५.२०१६)


जल चुका हूं इस कदर इस इस तरह । 
कि, रात जलता चिराग भी देखा न गया। 
शमा रौशन न कर ऐ दोस्त दर्द होता है
जला औरों को, जीने का चलन देखा न गया।
. .....
उमेश 07.05.16


कद बढ़ा के भी ज़हां में लड़खड़ा जाते हैं लोग
कद बिना भी इस ज़हां में मंजिलें पा जाते हैं लोग
...
उमेश 06.05.16




जिस निगह देखो मुझे मैं ही मिलूंगा ,पाषाण की प्रतिमा नहीं जो इक सा दिखूंगा । 
नीर बन बहनें न दो मैं हूं वहां बन्द कर देखो जरा मैं ही दिखूंगा ।
....
उमेश 04.05.16


यूं न डूबें हुज़ूर आप तन्हाईयों में
डूबना है तो उतर देखिए दिल की गहराइयों में 
खुद को ऐतबार करानें की जुरूरत है बस
हम तो हमराह बने खड़े आप की परछाईयों में।
....
उमेश श्रीवास्तव... 01.05.16


फूलों से भी नाजुक तेरे रूखसारो पर अपने लब रखते डरता हूं
कही बोसे की कशिश से उन पर कोई दरकन ना आ जाएं


बावरा बदरा कहाँ किसी का होता है 
बिन तम्मन्ना ओ तो परवाज़ लिया करता है............उमेश


अधरो से छिपाया दर्द तो नयनों ने कह दिया 
पलके जो बन्द की मैनें चेहरे ने बयां किया ।
** उमेश **

अय चांद इक बार जरा धरती पर आ जा
खुद ब खुद औकात तेरी तुझको पता चल जायेगी I
**उमेश **

अय चांद ना मुस्करा जलन पे मेरे
तू भी कभी जला होगा दाग कहते हैं तेरे

अय चांद तेरे दाग से क्या वास्ता 
तपते हुए तन को चांदनी काफी है ।
**उमेश**

अय चाँद तुझे देख हसरत जगी छूने की 
पर फिर अहसास जगा कि तू कहां औ मैं क्रहां
**उमेश **


ग़ज़ल : तुम चाहो न चाहो


ग़ज़ल : तुम चाहो चाहो

तुम चाहो चाहो कोई बात नही
मैं जो चाहूं तो कोई इल्ज़ाम दो

बन शमा चाहे रौशन करो महफिलें
पर अंधेरो सा मुझे खुद से यूँ दूर करो

भले बैठो हर गुल पर तितली बन कर
खार कह मुझको यूँ बेजार करो

इश्क मानिन्द वादिये खुश्बू
बस महसूस करो चाहे दीदार करो

हुस्न पल भर इश्क ता कयामत रहे
रस्क--हुस्न कर इश्क पे ऐतबार करो

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, ०७.०८.२०१६

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

ग़ज़ल : रुख़ से जनाब ये परदा

ग़ज़ल : रुख़ से जनाब ये परदा

रुख़ से जनाब ये परदा ,तुम कब उठओगे
हमें, भी अपना कह कर, गले कब लगाओगे

चाँद को तकने के लिए, हम तो, छत पे आए थे
हमसे भी कब तलक ये बहाने बनाओगे

लरजते ये लब तेरे, कह रहे, कुछ सुन इनकी
हसरतों को इनकी कब तक, तुम यूँ दबाओगे

बेचैनियाँ दिल की, बयाँ, रुखसार कर देते हैं
धड़कते दिल को यूँ तुम, कब तक भरमाओगे

छोड़ दो शर्मो हया जो, है गैरों के लिए
अपने वजूद से ही, तुम कब तक, शर्माओगे

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर ०६.०९.२०१६


बुधवार, 7 सितंबर 2016

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये
इश्क की इस राह में , पहले कदम घबरा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

यूँ तेरी अर्ज़ तो , आगोश में, आने की है
पर हया-ए-रुख़ से तुम ,खुद से ही शर्मा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

है कली जो दिल में तेरे ,लब पे वो जल्वा चाहती
जुल्फ को रुख़ पर गिरा, क्यूँ उसे भरमा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

ये तेरी सांसो की सरगम, कर रहीं मदहोस हैं
इन पे पहरा क्यूँ बिठाया, हो तिश्नगी बढ़ा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

छोड़ दो  हया ये अपनी,लब ज़रा अब खोल दो
हीर-रांझे की गली में, यूँ ही नही तुम आ गए
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

ग़ज़ल : चाहते तो थे नही

ग़ज़ल

चाहते तो थे नही कि आपको यूँ दर्द दें
क्या करें ज़ज्बात-ए- दिल हम बयां कर दिए

अर्जमन्द आप है नाज़ुक जिगर है आप का
अजनबी की बात पर यूँ आप हैं रो दिए

है अजब हाल ये मेरे लिए ऐ नासमझ
आईना खुद आज अपना अक्स है दिखा दिए

ऐ हवा थम जा ज़रा आँचल न उसका यूँ उड़ा
मासूक ने मेरे लिए अश्क हैं बहा दिए

क्या करें हम इल्तिजा आज़ाद इक परवाज़ की
सैय्याद ने पर काट के फिजाओं में उड़ा दिए

ऐ सनम सब्र कर टूटा नही ये दिल मेरा
वो हैं हम जिसने किर्चों से ताज बना दिए

आब-ए-तल्ख़ ये तेरे मरहम बन के आए हैं
जो जमाने ने थे दिए वो जख्म सारे भर दिए

ना तनिक गमगीन हो मुस्कुरा दो अब ज़रा
ये जमाना छोड़ दो अब आह भरने के लिए

आब-ए-तल्ख़ :  आंसू,  :  महान

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

सोमवार, 5 सितंबर 2016

गजल: अय यार तेरी सोहबत

गजल
अय यार तेरी सोहबत में हम
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम 
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।
बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके
हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके
हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके
जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये
ना जी ही सके ना मर ही सके ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६

शनिवार, 3 सितंबर 2016

ग़ज़ल: अहले दिल की तेरी दास्तां

ग़ज़ल
अहले दिल की तेरी दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये बढ़ा गई
अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे
तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर से जा बे-असर हुए
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा
जो अश्क हैं इन चश्म में, बेकद्र में न बहा उन्हे
अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला मेरी शराब में , शराब में
तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में
वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई
उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर

ग़ज़ल: अहले दिल की तेरी दास्तां

ग़ज़ल
अहले दिल की तेरी दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये बढ़ा गई
अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे
तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर से जा बे-असर हुए
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा
जो अश्क हैं इन चश्म में, बेकद्र में न बहा उन्हे
अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला मेरी शराब में , शराब में
तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में
वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई
उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर