सोमवार, 2 दिसंबर 2019

हे अर्धान्श

हे अर्धान्श

वेदना हुई हर बार
मानव समाज को,
 हे नर अर्धान्श 
नारी ,
जब जब तुझ पर
नर-पशु ने
अमानुशी प्रहार किया
कायिक या मानसिक ၊
ना सोच, है पाषाण
मानव समाज ၊

स्पन्दन जो प्राण में ,
तुझसे ही पाया ,
चेतना सुचि ज्ञान
तूने ही तो
है, बोध कराया ,
लाखों योनियों में
भटके सभी
 ये तेरी योनि है
जिसने,दुर्लभ मानव 
तन दिलाया ၊
जो न होता स्तन तेरा
हे मातृ शक्ति 
पोषित न होती 
इस धरा पर प्राण शक्ति ၊

जन्म पाया
शक्ति पाई
ज्ञान पाया
इस धरा पर 
अवतरण का
अभिमान पाया ၊
क्या क्या न दिया तूने ,
हैं ऋणी सब,
नारी बिना नर कल्पना ?
अकल्पनीय है ၊

इस अर्थ युग में
है प्रश्न मेरा भी
यक्ष सा
जो रहा है
अब तलक
दुर्भिक्ष की भूख सा,
जो व्यथित 
तैरता व्योम में
धुनता
अपनी ही गुरुता को
कि , क्या यह समाज 
अब मानव का है ?
या, हिंसक पशुदानवों का ?

पाठशाला ,गोद माँ की
जबसे दूषित हुई 
अर्थ, धूरी बनी ,
स्नेह, दोयम बना
संस्कारों की थाती 
छूट पीछे गई ,
लालसा जो जगी
माया नगरी की चमकती,
धनागार की ।

तू भी भटकती जा रही
सुचि पथ छोड़ कर
अर्थ खातिर अपने वसन-
असन सब छोड़ कर 
क्या नही चिन्तन की बेला
आ गई
आत्म मंथन की है शायद
यह ही घड़ी ၊၊

तुझको सिखाने नर कोई 
यदि आयेगा.
प्रथम गुरु के सामने 
क्या कहीं टिक पायेगा ၊
इसलिये 
अब तुझ पर ही भार है
खुद को ही दे सीख
यही अब सार है ၊

तुने दिये नर नारियों में 
श्रेष्ठ हैं
जग कल्याणियों की
बस गुरू तू श्रेष्ठ है ,
तू ही बना सकती
पुरुष को राम है
तू ही बना सकती
हर प्राण को
निष्काम है ၊

मुद्रा नही, जीवन है ये
जी ले जरा ,
भौतिक नही, अध्यात्म से भी
मिल ले जरा,
है,राक्षसी मुद्रा, पकड़ से
बच जरा,
ध्येय जीवन, न कि मुद्रा,
समझ जरा ၊

शान्तिमय ,आनन्दमय
आरोग्यदायी प्राण है
भौतिक-जगत-सुख
बस दुखों की खान है ၊
बुद्धि चतुर , उलझा रखे
मायाजाल में ၊
क्यूं उलझती जा रही
इस जंजाल में ၊

प्राण की सुन,
अन्तस उतर अब फिर तनिक
बन चुकी 
जितना भी बनना था वणिक,
धात्री तू इस धरा की
जान तू ,
मानवों की, मान तू ,
अभिमान तू ၊
पशु बन रहे मानवो को 
संधान ले ,
फिर धरा को
स्वर्ग से ऊंचा मान दे ၊

सभ्यता-संस्कृति की ,
आधार तू ,
मानवी सागर में
जीवन की , 
है, पतवार तू ၊
आंचल तेरा,गोदी तेरी
यदि खो गई
इस धरा से, मानव निशानी,
फिर तो जानो, खो गई ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
दिनांक २४.०१.२०
इन्दौर से जबलपुर यात्रा
ओव्हर नाइट एक्स० 












अधूरी
प्रथम पाठशाला
सभ्य नागरिक अथवा मुद्रा राक्षस
कुटुम्ब के लिये एक व्यक्ति का
ग्राम के लिये एक कुटम्ब का



रविवार, 3 नवंबर 2019

दीपावली की सभी को शुभकामनाएँ

दीपावली की सभी को शुभकामनाएँ  

नव दीप जलें हर आँगन में
नव जीवन के स्पंदन के

हर मन में उजियारा हो
जग पे छलकता सारा हो
मिट जाए अंधेरा इस जग का
ऐसा इक चमकता तारा हो
हर आश बँधे विश्वास बँधे
इक दूजे के अभिनंदन से

नव दीप जलें हर आँगन में
नव जीवन के स्पंदन के
                 उमेश

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

सही तू या गलत मैं

 सही तू या गलत मैं

मै जानना हूं चाहता
क्या  तब तुम गलत थी,
और अब सही हो ?
मैं यह भी चाहता हूं जानना ,
क्या  तब मैं सही था,
अब हूं गलत ?
मैं चाहता हूं जानना ,
जब मैं गलत था ,
तो तुम कैसे सही थी
और जब तुम सही थी
तो मैं कैसे गलत था ,
क्यों कि दोनों ही जी रहे थे,
इक ही जिन्दगी ၊
मैं चाहता हूं जानना
धड़कनों के संगीत को,
सरगमी, लगते जो थे, तब ,
कब, क्यूं कर बेसुरे लगने लगे ?
जबकि जानता हूं , सरिता
सरस बहती है ,अब भी
हदय आगार में ,
अब  भी
जोहती , बाट
युगल के,
सजी महफिल की ၊
मै चाहता हूं जानना
पीड़ा तेरे ह्रदय की,
क्या वही है ?
जो मैं भोगता हूं,
महसूसता हूं ,
अपने ह्रदय में,
या कि
वह भी, बदल ली है रूप,
तेरे-मेरे ह्रदय में,
तेरे ,मेरे जैसे ၊
मै जानना हूं चाहता
क्या वही राधा है तू ?
मैं वो ही किशन हूं ?
जो कभी इक प्राण थे
दो देह में ,
जिनकी आंखो ,कानों के
प्रकाश ,ध्वनि
रूप , स्वर थे
इक दूजे के
प्रात से रात्रि तक !
सोचता थकता नही
पर जान भी पाता नही
कि , क्या सही क्या गलत
कौन तू , हूं कौन मैं
लगता , तू तब भी सही थी
मैं गलत
या शायद
मै ही सही था
हूं सही मै अब भी ၊
लगता, हम जीते इसी
अहसास में,
कि मैं सही
तू गलत
या तू सही ,रही
सदा ,
मैं गलत
उमेश, इन्दौर , २०.०८.२०१९


रविवार, 20 अक्तूबर 2019

जीवन के रिस्ते

जीवन के रिस्ते


न जानें क्यों
लोग ,जीते हैं
जीवन व रिस्ते
नये व पुराने समझ !
उम्र न जीवन की होती
न ही रिस्तों की ;
ये तो हर क्षण
नये रहते है
बस इन्हे जीने
या कहें यूं , कि
महसूसने का
अंदाज अलग होता है ၊
लेता हूं जन्म मैं
हर क्षण ,
इक नई काया ले कर ,
जीता हूं उसे
पूरे उमंगो और उन्मादों से भर ၊
जानता हूं अगला पल
काल की छाया में पलता
कौन सा क्षण चुपके से मेरी
काया हर ले ၊
यूं ही रिस्तों में भी
मैं यूं बहता ,
उद्‌गमी बून्दों से बनी
ज्यूं निर्झरणी धार चले
सरि की लहरों सा
हर क्षण नया उत्साह लिये ,
बहता प्रथम बून्द के
मिलन का अहसास लिये ၊
जन्म और मृत्यु की
जो दूरी है ,
ये सांसों से नही
अहसासों से जुड़ी रहती है ,
जीना आया नही तो
शत वर्ष भी व्यर्थ है,
जीना जो आ गया
हर पल का, पूरा अर्थ है ၊
हर पल को जियो
रिस्तों में महक ले कर
जो गया तो लौट फिर 
आयेगा नही
प्यास दोनों की 
अधूरी रह जायेगी
जिन्दगी से रिस्ते को.
कोई समझायेगा नहीं ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव , इन्दौर ०२.११.१९

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

दीपावली शुभ कामना आह्रवाहन

सभी गणमान्य मित्रों को विजयादशमी की मंगलकामनाएं ၊

आओ इक दीप हिए में जलाएं
आओ दहन इक स्वरावण करायें
कुछ तो सहेजें स्वयं में राम को
दूजों पे कब तक आश हम लगायें ၊
......उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

यह जीवन है

यह जीवन है

स्वीकार ह्रदय से करते कैसे ?
कहो जरा आधार है क्या ?
हृदय कुंज में गमके बेला
कहो जरा ,  यह प्यार है क्या ?
प्रात अरूण की किरण लगे जो,
मध्य वही  तो  ताप   जगाये ၊
मध्यम दीपशिखा की आभा ,
तिमिर सदा ही नाश कराये  ၊
नभ अनन्त है ,अबूझ रहा है ,
आश्रयदायी  रही    गुहाएं ,
हर प्रमोद में  छिपी उदासी,
व्यथा सदा,सम,अहसास कराये ၊
शुभ, अशुभ पद होते हैं क्या ?
सुरभित करती, संगी की चाहें ၊
मन शीतल है दाह है मन ही ,
जिससे बनती सुगमित राहें  ၊
उन्मुक्त गगन है,हर इक मन का ,
स्वयं पिंजरित किये हुए हम ၊
दृग खोलो अहसास करो तो ,
सुन्दर पांखो से सजा हुआ तन ၊
कोकिल जैसी वाणी को ,
क्यूं कर्कश कह खिझा रहे ၊
क्यूं वाग्देवी  के आशीषों को ,
तुम ,नाहक व्यर्थ गवां रहे ၊
पुष्पपमयी जो जीवन जीते ,
वह, बस, आभाषित जीवन है ၊
अमिट छाप वे छोड़े जिनका ,
पाषाण सदृष्य जीवन है  ၊
हर क्षण, हर कण,पुलकित जग का,
हर जल है, इक पावस धारा ၊
गर सागर जल छूटे जग से ,
मिट जायेगा यह जग सारा  ၊
उलझन में क्यूं उलझांये मन,
सरल तरल मन कोमल होता ၊
निहित है उत्तर स्वयं प्रश्न में ,
प्रश्न बिना क्या उत्तर होता  ?
तिलक है शोभा पर आभाषित ,
रक्षा को है लगे दिठौना ၊
मनका मन की हर धड़कन है ,
हर तन केवल अबूझ खिलौना ၊
आत्म सन्देश ग्रहण करे जो ,
मन की चंचलता त्याग करे ၊
अडिग रहे जीवन में हरदम ,
विह्वलता यदि त्याग करे ၊
व्यथा सोच , आनन्द की बाधक ,
व्यर्थ का चिन्तन , कलुषित धारा ၊
घट घट में हैं हरि - हर बसते ,
फिर अन्तर्मन क्यूं है बेचारा  ၊
ज्योति ज्योति है, जहां भी दमके,
उझास सदा ही देती है ၊
सरगम की धुन जहां निहित हो ,
पीड़ा सब हर लेती है  ၊
ईश मगन कर, कुटिया अपनी ,
हिय , शिव आराध्य बना ၊
जीवन है , समय की सरिता ,
तू शिव को पतवार बना  ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव ०५.१०.१९ (कर्मयोगी - 2) के जवाब में

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

दरस की आश

 दरस की आश

नेह जगा
हृदय गुहा में ,
कौन भला, चुप बैठा है ,
दुःख के सागर
आनन्दमयी सरि ,
इन द्धय तीरों पर
रहता है ၊
आश जगे
या , प्यास जगे ,
श्वांसे बेतरतीब
बहकती हैं,
जिसके आने या जाने से
ये मंद, तीव्र हो
चलती हैं ၊
वाचाल रहे
या, मितभाषी,
आन्दोलित जो कर जाता है ၊
मौन सन्देश से
उर प्रदेश को,
जो,मादक राग सुनाता है ၊
मैं सोचूं या ना सोचूं
पर सोच जहां से चलती है ၊
उस सुरभित
शीतल गलियारें में ,
है प्यास ये जिसकी
पलती है ?
ये पंच भूत की
देह है मेरी ,
औ पंचेन्द्री का ज्ञान कोष्ट ,
पर ,प्रीति,अप्रीति,विषाद त्रयी, सम .
जो घनीभूत  हो बैठा है ၊
हूं वाचाल
पर, मौन धरे हूं
आहट उसकी लेता हूं ,
बाह्य जगत से तोड़ के नाता ,
अन्तस को अब सेता हूं ၊
आश यही ले
निरख रहा हूं
शायद उससे मिल जाऊं
वह ही मुझको ढूढ़ ले शायद
जिसे खोज, न, शायद पाऊं ၊
उमेश श्रीवास्तव दि० ०३.१०.१९  : १०.४५ रात्रि

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

गमन - आगमन

 गमन - आगमन

जन्म से मृत्यु,
यात्रा ,
प्रत्यक्ष का साक्षात्कार ,
जन्म से पूर्व
मृत्यु के पश्चात
अज्ञात का अंधकार ,
पर्ण पात, है ज्ञात
आगमन व गमन ,
जिस धरा से प्रस्फुटित हो प्रत्यक्ष,
उस धरा का चुम्बन ,
शिखर से उतर ,
हो विलीन उस धृ-लोक में ,
जिसका था कभी अंश ၊
पल्लव से पर्ण
पर्ण से रजकण
रज से रस
रस से रससार बन
पुन: पल्लवित  ,
क्रिया निरन्तर
अनवरत ၊
ग्रीष्म, सर्द
झंझावत बरखा ,
अवरोध कहां ၊
सुख-दुःख ?
प्रश्न कहां ?
नियमबद्ध , कर्मचक्र ၊
गमन ,आगमन
जन्म , जरा , मृत्यु
समदर्शी ,
परमात्म जगत का
कहां, कभी
रहा दखल ၊
उमेश , १७.९.१९ सिंगरौली

सोमवार, 16 सितंबर 2019

रूबाई

रूबाई


गम-ए-दिल को गमजदा गमख्वार चाहिए ,
गमगीनियों की गली में ग़जरा-ए-गुलनार चाहिए ,
तकदीर कोई सै नही राहे गमगीनियां ,
सबा के झोंके सी, बस इक नई बयार चाहिए ၊
........................ उमेश , १७.९.१९

बुधवार, 4 सितंबर 2019

अबूझ आकांक्षा

अबूझ आकांक्षा

उत्कंठा
मुक्ति के ,
अनुभूति की
भटकाती सदा ၊
यह प्रकृति है,
मायावी ၊
रची ब्रम्ह की ၊
आलिप्त करती सदा,
हर कण के
कणों को भी ၊
निर्लिप्त केवल
ब्रम्ह ၊
मुक्ति
स्वातन्त्र है ,
गेह से ၊
इन्द्रियों से ,
पंचवायु से ,
मन ,बुद्धि, दंभ से
आधीन जिनके
उत्कंठा पालता ,
प्राणी ၊
अनुभूति
अन्तस का
नाद है ,
निःस्वर
भेदता है
हर क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ को
कर सके प्रवेश
विरला इस
गुह्य क्षेत्र में
जो रचता ब्रम्ह है ၊
मुक्ति स्वरूप ,
ब्रम्ह बनने की चाह,
युगों से,
देती रही धरा पर,
अबूझ प्राणियों के,
झुण्ड के झुण्ड ၊
कुछ देवत्व पा
इठलाने लगे
कुछ विदेह बन
इतराने लगे
कुछ दानवों के रूप में
निर्मोहिता का
नग्न नृत्य
धृ पर चतुर्दिक
दिखाने लगे ၊
पर हो सके ना
निर्लिप्त ၊
मुक्ति का प्रथम पग,
डूबे आकण्ठ
मायावी सरोवर
नीर में ၊
निर्लिप्तता
यूं कि ज्यूं
पुण्डरीक ၊
कीचक और
जीवन सार जल से भी ,
मुक्तता का
कराता आभास
उसमें ही आकंठ डूब ၊
रहा सदा
अति दुरूह
पग उठाना
प्रथम ၊
आकांक्षाएं, अभिलाषाएं
चाहे जितनी पाल लो
दलहीज से
बाहर निकलने को ,
यदि कोई उद्धत न हो,
क्या करेंगी
उत्कट ईप्सा
यदि पगों को
मंजिलों की
चाह न हो ၊
मायावी ऐश्वर्य
जाल ,
फंसा रखता सदा
गेह, मन ,बुद्धि को ၊
आत्म तत्व से विलग
सुख सागरी जल में
तिरते हम,
बस सोच कर मुक्ति के
आनन्द को,
पालते, लालसा का
का भ्रूण हैं ၊
और भौतिक सुखों की चाह में
करते निरन्तर,
भ्रूण वध ၊
मुक्त कर स्वयं को
स्वच्छन्द बन ၊
उमेश , इन्दौर, दिनांक ४ - ५ . ०९. १९



मंगलवार, 3 सितंबर 2019

क्षणिका

 क्षणिका

रिश्ते कोमल कलियां हैं ,सींच इन्हे न तोड़ इन्हे ।
महक बचा ले जीवन की,सर्वस्व लुटा कर जोड़ इन्हे ।
...उमेश ०३.०९.१६ जबलपुर

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

जीवन आनन्द

जीवन आनन्द


थकते नहीं
रेत पर ये कदम ,
राहें बनाते , ये
मेरे कदम ၊
मिटाती चली
रेत की आंधियां
राह, उनको
जिन पर
सदियां चलीं ၊
है उन्हे ये पता
उन पर चलना नहीं
यायावरी मेरी
सब उन्हे है पता ၊
हूं फिसलता नहीं,
रेत की राह पर
छोड़ते भी नहीं
पग अपने निशां
मै भटकता चलूं
या , राह सीधी चलूं
न मुझे है खबर
न मंजिलों को पता ၊
तप्त रेत है,
अर्क के अर्क सी,
और लगती कभी
बर्फ से भी है शीतल,
वो जानती ,
पग किसके हैं ये
मखमली बन तभी
दुलारे उसे ၊
है पसरा हुआ,
मरु चारों दिशा,
पर अन्तस मेरा,
नखलिस्तान है
हर दिशा में चहकते
खगवृन्द संग हैं
महकते हुए से
उद्यान हैं ၊
चला जा रहा
बस चला जा रहा
समय की नदी संग
बहता हुआ ,
संग आये व जाये
लहरों सा को
ना चाहत है कोई
न उसकी रज़ा ၊
उमेश , इन्दौर , २२.०८.१९

शनिवार, 17 अगस्त 2019

अहसास-ए-दिल

अहसास-ए-दिल


हर क्षण जैसे कोई मेरे
टीस जगाता है, दिल में ,
स्पर्शों की आश लगा ,
कोई बलखाता, है दिल में ၊
दृष्टिपटल से ओझल कोई
ह्रदयपटल पर छाया है ,
हर सांसो में आते जाते
खुद को महकाता, है दिल में၊
उससे बिछुड़ा हूं मैं , या
खुद से, बिछड़ गया हूं मैं ,
यक्ष प्रश्न यह, पीड़ादायक
नित टकराता है दिल में ၊
हर कर्मों में, जीवन के
संग जिसे, महसूस करूं,
उसकी दरकन औ टूटन
दर्द बढ़ाती , है दिल में ၊
हर पल हर क्षण संग जिए जो
जीवन की इक थाती हैं ,
अहसासों का नया बवंडर
उठा जो जाते हैं दिल में ၊
उमेश , १७.०८.१९ , रात्रि ८.४५ , इन्दौर

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

कविता क्या है

कविता क्या है ?


कविता क्या है ?
माध्यम
दिल की
अभिव्यक्ति का
बुद्धि जहां काम करना
बन्द कर दे ,
विवेक के निर्देश
कुंद हो ,मौन हों
और फिर
दिल स्वमं
शब्दो को ,
दुःख ,दर्द की
सुख,आनन्द की
प्रेम और घृणा की
हास ,परिहास की
ज्ञात ,अज्ञात की
इस पार और उस पार की
जीवन और मृत्यु की
व्यंग संग विस्मय की
अलग अलग या संयुक्त
चासनियों में
डुबो डुबो
उकेरता है
समय के कैनवास पर
वो है
कविता ।
यही कारण है
कविता लिखी नहीं जा सकती
पढी और समझी भी नहीं जा सकती
दिल की गहराईयों में उतर
उस रस में सरोबर
हुए बिना
बुद्धि से पढ़ तो सकते है उसे
पर कविता पढ़
समझने की वस्तु नहीं
जीने की एक
पद्वति है
कविता पढ़ने को
पारांगत होना होगा
रसों की
बावली में
इक छपाका लगा
सरोबर होना होगा।
भद्र बन यदि डरते रहे
भीग जाने को
तो कविता शब्दों का
इक समूह होगा
जो असमतल पठार
और वनप्रान्तर सा
वीरान होगा ।
इसलिए
कविता पढ़ना नहीं
जीना सीखें
कवि के ह्रदय रस
को पीना सीखें
तब सार्थक है कविता
अन्यथा
व्यर्थ है
कविता ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव,जबलपुर,दिनांक १७.०७.१७

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

व्यथा

व्यथा


ऐ दामिनी ,
न इतरा यूं
पयोधर की बन
प्रेयसी,
गणिका ၊
न वारिस तू,
वारिद की,
तू बस अभिसारिका ၊

ये नर्तन तेरा
व्यर्थ,
न जमा धौंस
इन नगाड़ों की,
रीता है, हिय
कर्ण द्वय सुन्न, 
ग्रहण न करेंगे
स्वर इनके बेढब ၊

आरूढ़ अषाढी
मेघ सीस,
हे मेघप्रिया
न खो आपा,
सौदामिनी,
सौम्य हो जा,
ये घन जो रीता,
चुक जायेगी,
श्वेत वसन में,
वासना का त्याग कर,
जलधर त्याग देगा,
तो क्या करेगी ?

ऐ चंचला !
मैं वियोगी,
सह रहा व्यथा
विरह,
ये हास तेरा
परिहास बन,
चुभन दे रहा
हिय को मेरे,
आहों की मेरी
न बाट तक तू,
मदन सा तेरा
हश्र हो ना,
हूं भयभीत
परिणति पर
तेरी
ऐ चपला ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर, दिनांक ११.०७.२०१७

रविवार, 7 जुलाई 2019

क्या कहती , प्रेम रागनी बूंदो की

 क्या कहती , प्रेम रागनी बूंदो की



आओ चलें मीत,
सरस हम भी होलें
हौले से खोलें,
झरोखे ह्रदय के ,
मेघों की बून्दे,
कुछ,
उनमें संजो लें ၊

घिरे तो गगन पे
हैं , मानस को घेरे
लरजते , गरजते
पुकारें, बदन को ၊
आओ जरा संग
उनके बिताएं
बून्दों को उनकी
बदन से लगायें,
मद से भरी हैं
सुधा सी हैं बूंदे,
सराबोर हो कर
बहक थोड़ा जायें ၊

तनिक गेह अपनी
मुझसे सटा लो
तनिक देर लज्जा
खुद से हटा लो ၊
लरजते , हरसते
बहकते चलें हम,
बदरा के संगी
संग संग बहे हम ၊
बहको जरा तुम
बूंदो सी रिमझिम,
बहकें जरा हम
पवमान बन कर ၊
ह्रदय एक कर लें
बदन एक कर लें
जल-मेघ जैसे
मति एक कर लें।

हों, बाहों में बाहें
निगाहों में निगाहें
चपला सी चमको
हम झूम जायें ၊

बज रहें हैं देखो
हजारों नगाड़े ,
दामिनी भी चमक
कर रही है इसारे ၊
चलो आज फिर से
नया गात कर लें
नव प्रेम की फिर
शुरुआत कर लें ၊

उमेश , दिनांक ०७.०७.२०१९ , इन्दौर

शनिवार, 8 जून 2019

नव विहान

नव विहान


धुंध से झांकती
पर्वत श्रृंखलाएं,
अलसाये जगे से
ये वृक्षों के साये ၊
खेतों में उगते
फसल के ये पौधे ,
कुहासे के बादल
उठते हैं जिनसे ၊
खगों की उड़ानें
धरा से गगन को ,
कीटों पर लगी
बकों की निगाहें ၊
क्षितिज पर है फैली
अरुण की लालिमा जो,
तमों को भगाती, हैं,
रवी की वो निगाहें ၊
प्रकृति जग रही
हो सुबह अब रही,
जगो प्राण अब तो
जगी सब हैं राहें ၊
जो सोते रहे
तो, खोते रहोगे,
बढ़ो आगे बढ़ कर
थामो, मंजिल की बाहें ၊
उमेश, दिनांक ०९.०६.१९, भोपाल शताब्दी ट्रेन , दिल्ली - भोपाल यात्रा

सोमवार, 3 जून 2019

निर्गुण

 निर्गुण


आज कहो कुछ ऐसा सखी रे
हिय प्रफुलित हो जाये,
तन झूमे , मन बावला हो कर
माया जाय भुलाय ၊
हैं अबूझ ससुराल की गलियां
भटक रही अनजानी,
एक मेरा पी मुझे निरखता
और करें सब मनमानी ၊
हूं विह्वल, नीर भरे दृग,
ना है तू अनजानी
राह दिखा जा पार लगा जा
ना कर बैठूं नादानी ၊
ऐसा कर अब ,जतन सखी तू
हिय पी के, बाबुल पा जाऊं
माया कीचक से बिन लिपटे
जग के सारे सम्बन्ध निभाऊं ၊
तुझ पर ही अब आश लगी है
ऐसा कुछ अलख जगा दे ၊
शब्द ब्रम्ह के, बाणों से
तू सारे ये ,भय भ्रभ मिटा दे ၊
मेरी सखी वो प्यारी सखी रे ,
मौन न धर, सुर तान जगा दे ၊
मैं चुक जाऊं भ्रमित धरा पर
इससे पहले राह दिखा दे ၊
आज कहो कुछ ऐसा सखी रे
हिय प्रफुलित हो जाये,
तन झूमे , मन बावला हो कर
माया जाय भुलाय ၊
उमेश , गुड़गांव ,04.06.19 :8:44 AM

शुक्रवार, 31 मई 2019

शासकीय आभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर परिसर में लगे वटवृक्ष को देख हुई संवेदना पर एक प्रस्तुति:

शासकीय आभियांत्रिकी महाविद्यालय जबलपुर परिसर में लगे वटवृक्ष  को देख हुई संवेदना पर एक प्रस्तुति:-


ऐ बरगद की छांव घनेरी
ना अकुला,
क्यूं व्यथित ह्रदय  ?
स्पन्दन विहीन मानव तन जड़
तुझको आरोपित जड़त्व व्यर्थ
प्रेम सुधा से आपूरित
हर पल्लव
मां के आंचल सा दे दुलार
तू सम्पूर्ण नर अर्धांश
नारी स्वरूप
देता स्नेह,दुलार,प्रेम,लाड़
कर देता सर्वस्व समर्पित
पर पाता क्या
उपहास, उपेक्षा
व्यथा,भग्न ह्रदय
की  अकथ पीर घनेरी
अश्रु आज तक बहा न सके
मरू सदृष्य दृग तेरे
तेरी व्यथा, पीड़ा
व्यर्थ नहीं वरन है यथार्थ
तू सर्वस्व समर्पित कर
मौन खड़ा
तेरे आंचल में पला बढ़ा
मनु वंशज
मद मस्त हुआ अनजान खड़ा
भूल मूल की पीड़ा
तन साध , तना सा तना खड़ा
पर तुझमें उसमें जो अन्तर है
ना वह जान सकेगा
तू बस देता वह बस लेता
वह ना मान सकेगा
हे , तरूराज
व्यथा तुम त्यागो
तुम तुम हो वे वे हैं
इस अंतर को जान
ऐ धरा सुता
क्षमा कर निष्ठुर ,कृतध्न
मानव को
तू सदा रही है प्रमुदित
बांटती आमोद
यूं सदा सरल बन जीना
सदियां ही गुजरी
अभी तुझे
ना जाने क्या क्या
ह्रदय चक्षु से है सहना
ना ह्रदय सरसता कम कर
लुटा ममत्व ,स्नेह ,प्रेम की बून्दें
भरती रह शुष्क ह्दय को
स्नेहिल जल से
अपने आंचल की
ठण्डी छांव तले
उमेश कुमार श्रीवास्तव 28.02.2017 जबलपुर

प्रेम सुधा

प्रेम सुधा
 

यह प्रेम सुधा की धारा है
इसको हाला मत कहना
नयनो के धोखे में आ कर
इसको मधुशाला मत कहना
जब अगन लगे तन मन में
इसको नाकारा मत करना
जीवन में रंग यही है भरे
इसको बेचारा मत कहना............उमेश

दर्दे दिल

दर्दे दिल


१-सम्मा की नियति यही , रात दिन जलती रहे
    रौशनी देती रहे , खुद को अंधेरे में रख
२-आहें भरना मेरी फ़ितरत नहीं थी
    दिल लगा के तूने यह भी सिखा दिया
३-गेसुओं की महक से महका चमन ये सारा
    दिल भी हुआ बेचैन यूँ लेता नहीं किनारा
४-हर पल उनकी याद में घुट-घुट के मरता रहा
    मगरूर हैं वो इस कदर, ख्वाबो में भी ना आए कभी
५-न खुदा से है शिकवा न नाखुदा से शिकायत
     जब कश्ती ही है टूटी, क्यूँ कर न डूब जाए
६-अश्क आँखो के ना जाने कहाँ खो गये
     जी चाहता रोने को, रो नही पाते
७-कुछ तो कर अब ,ऐ परवर दिगारे आलम
    जिंदगी कटती नही बिन दिदारे यार के
८-जर्द लब भी अब मेरे हो चले मयखाना
    जब से उनके लब मेरे लब से छू गये
९-अब तक तो ना झुके थे आफताब के आगे
    महताब सा पा तुझे सर  नगूं कर लिया
१०-नज़रो की शोख तब्बस्सुम जब रुखसार पे उतरी
      शर्मो हया से उनने झट परदा गिरा लिया
                           उमेश कुमार श्रीवास्तव

चन्द शेरो- शायरी

चन्द शेरो- शायरी


१. रिस्तों की महक को बनाये रख ऐ नाखुदा।
किस्ती है दरिया है बस जज्बे है बा खुदा ।
२. मैं हूं तन्हा तन्हा बस मुंतजरे खबर ।
हुजूर हैं कि कोई खबर लेते नहीं मगर
३. लगता गुल- ए-गर्ज नहीं महकने की अब ।
हर बार तंज कश रहा बागवान को ।
४. दिल-ए-लहू से मैं तुझे नज्म में भरूं ।
मगरूरियत ये तिरी बस इक वाह ही करे
५. जानता हूं सो गई हो पर ख्यालात भेज रहा हूं।
मैं किस तरह अकेला हूं वो हालात भेज रहा हूं ।
उमेश श्रीवास्तव

मुक्तक

 मुक्तक


याद आती रही गुनगुनाती रही,
दिल में हजारो मृदंग बजाती रही ।
तल्ख धूप होती रही रात भर,
हर कली प्यार की मुरझुराती रही ।
अल सुबह चौंक कर हम जग गये,
असलियत मुझे मुंह चिढ़ाती रही ।
दूर बैठे हुए मुस्कुराओ यूं न तुम,
दिल की आवाज फरियाद लगाती रही ।

उमेश श्रीवास्तव

रुबाई

 रुबाई

ऐसा न था कि डूब जाते हम,
झील, समन्दर, या आब-ए- दरिया में ।
कई डूबतों को बचाया था हमनें । 
न नाप सके तेरी झील सी आखों की गहराई ।
जो डूबे तो  फिर , वापस आ न सके ।

उमेश श्रीवास्तव

चन्द शेर

                😍 चन्द शेर😍

१. ऐ इश्क न हुआ कर इस उम्र में।
    यार, दीवाने (पागल) का तमगा लगा देता है ।
२.  कैसे कहूं नहीं इश्क मुझे तुमसे जालिम ।
     बसी रहती हो सांसों में खुशबू बन कर ।
३. उम्र की चादर को यूं न फैलाओ कि,
    घुट जाये बेचारे झश्क का दम।
४. उम्र गुजर जाती है जो सदा पाने में ।
     हमने पाया उसे आ तेरे मयखाने में ।
५. हुश्न की दीवानगी नही ये जूनू-ए-मोहब्बत है।
    हम तुम्हे देखे बिना चैन नहीं पाते जो ।

                💐उमेश श्रीवास्तव💐

चंद शेर

१.
ख्वाब सी झिलमिलाती
सबा सी मदमस्त करती
ये तेरी याद है कि
इत्र की भीनी खुश्बू

२.
अल सुबो उठ कर तेरा ,
वो चुपके से आ जाना
ता दिन मेरे खयालो में रम जाना
विदा आफताब कर शब पर छाना
मुझे सोने के लिये प्यार लुटाना
तू क्या है मेंरी यार
कहीं मेरी जां तो नही

३.
तू तो उड़ रही बे-पर अय हमनशीं
है कौन जिसने तुझे ये तदबीर कही

४.
आह यूं न भर इश्क को रुसुवा न कर
इश्क में डूबना है इबादत रब की

५.
रब तेरे साथ है जो तू इश्क का है नेक बंदा
अपने बन्दे को वो कभी मायूस न करे।

उमेश श्रीवास्तव

जिन्दगी

जिन्दगी

इतनी तो फुरसत दे जिन्दगी
कुछ तो तुझे भी मैं जी सकूं
संग बहता रहा पर मिल ना सका
बिन मिले तू बता, क्या मैं कह सकूं ।

तू सदा से विदेही रही जिन्दगी
बस बही जा रही अनवरत चंचला
मायावी कीच में तू पड़ी ही नही
मै निरा जड़ हूं ठहरा ,उसी में फंसा ।

तनिक तू समय दे ,मुझे साथ ले ले
सिसकता रहूं मैं ,यूं कब तक खड़ा
जानता हूं ,मै ये कि, तू ठहरती नहीं
हो न सकता क्या ये,ले तू मुझको बहा ।

काश ! तू भी बहे संग मैं भी बहूं
मेरी धड़कनो में भी सरगम बजे
भीड़ में खो गया जो अस्तित्व मेरा
तेरी वादियों में वो कुछ,मिल तो सके ।

कभी बरखा रही, सर्द रातें कभी
जेठ की धूप सी तू कभी थी तपी
यूं ही बावरा मैं ,इनसे डरता रहा
मर्म इनका मुझे क्यूं ना समझा सकी

हर घड़ी आज तक मै लड़ता रहा
दौड़ता ही रहा हांफता ही रहा
खुद को खुद ही से मैं दूर करता रहा
बस इसे जिन्दगी मैं समझता रहा

इस कदर थक गया पर जी ना सका
लुफ्त तेरे मौसमों का, न ले मैं सका
यूं न मायूस कर तू ठहर जा जरा
ले लूं तेरी झलक जो , न ले मैं सका ।

ठहर जरा ठहर जरा ऐ जिन्दगी ठहर जरा
गम के घूंट पी तो लूं  तुझे जरा मै जी तो लूं
हो न जाये शेष ये सफ़र ,जीने की संग चाह ले
प्यासा सफर करता रहा,ये अमी भी पी तो लूं ।

उमेश श्रीवास्तव 27.01.2017 जबलपुर

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल)

चन्द शेर (दर्द-ए-दिल)

उनकी इश्क की इस अदा को देखो
दर्द हमें तब्बस्सुम गैरों को बांट देते हैं

दर्द दिल में जलन आंखों में लिये फिरते हैं
मरीज-ए-इश्क हैं, अश्कबार हुए फिरते हैं

उनकी मगरुरियत नालों पे कान देते नही
इक हम हैं कि पुकारे चले जाते हैं

उनको फिक्र कहां इश्क की बेकरारी की
उनको फुरसत नही अंजुमन के अपने तारों से

नज़रें दर पे कान आहटों पे लगे रहती है
न जाने कब हजूर बेआहट आमद दे दें

नालों--पुकार
अश्कबार---रोता हुआ
मगरूरियत--अंहकारग्रस्त
आमद- उपस्थिति
अंजुमन--महफिल
उमेश श्रीवास्तव , जबलपुर ३०.०१.२०१७

बुधवार, 22 मई 2019

शेर

गमदीदा हूं मुझे गमगुस्सार चाहिए
विस्मिल जिगर को गुल-ए-गुलजार चाहिए
नागवार लगती अब दुनियाई  रश्में
अब बस मुझे अश्फाक-ए-यार चाहिए
गमदीदा/दुखित, व्यथित,    गमगुस्सार/दिलासा देने वाला,  नागवार/अरुचिकर,बेस्वाद , अश्फाक/सहारा , अनुग्रह, कृपा

उमेश श्रीवास्तव

होली के रंग सब के संग

होली के रंग सब के संग

होली के रंग में
रंगीली उमंग में
आपका भी साथ हो
दिलों की ही बात हो
नयनों में प्यार हो
रंगों की बहार हो
हाथों में गुलाल हो
चेहरे सब के लाल हों

फागुनी बयार में
सुनहरी एक तान हो
झूमते बदन के संग
खिलती मुस्कान हो

यार हो प्यार हो
दुलार ओ सत्कार हो
जिन्दगी की रंगीनियों की
खुली इक दुकान हो

बांटिये खुले खुले
बन्द न कोई प्राण हो
प्यार भरे रंग सब
न दिल में कोई त्राण हो

हरे नीले पीले के संग
गुलाबी भी श्रृंगार हो
दिलों में भरे उंमग
लाली लिये प्यार हो

रिस्तों की खटास पर
मिठाइयौं की मार हो
मिटा दो खटास सब
होली की पुकार हो

गले लगा प्रिये सभी
रंग दो सभी चुनर
न हो अलग थलग कोई
बस प्यार की खुमार हो

आओ खेले होली हम सब
राधा कान्हा बन बन
प्रेम जगे धरती पर सात्विक
बने धरा वृन्दावन

सबके जीवन में खिल जायें
सतरंगी  फुलवारी
सुख की उझास यूं फैले
मिटे दुःखों की अंधियारी

उमेश श्रीवास्तव  जबलपुर १३.०३.२०१७

ग़ज़ल दर्द दिल में जब उभर आता है

ग़ज़ल

दर्द दिल में जब उभर आता है
रूह पर न जाने कौन छा जाता है
आंखें वीरान सी हो जाती हैं
चेहरा ज़र्द पत्तों सा सूख जाता है ।

रह जाता नही अपना वजूद अपने वश में
दर्द ही दर्द विखर जाता है
देने वाले देता क्यूं है यूं गम के गुबार
गर्दिशों में खुशनुमा मंजर विखर जाता है ।

वक्त पड़ जाता क्यूं भारी समझदारी पर
दिल दे देता है जबाब क्यूं वफादारी पर
इश्क सै कैसी कुछ तो कहें
संग चलते चलते जाने ये कदम क्यूं बहक जाता है ।

रोज लड़ते रहे हम  ख़ुदा से बन काफ़िर
वो हमसफर बने या खत्म कर दे ये सफर
दिल के दलहीज पर जो सुबो शाम
खैरमकदम कर दस्तक लगा जाता है।।

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर १५.०३.२०१७

क्षणिकाएँ (फाग पर)

क्षणिकाएँ (फाग पर)

फाग,
मस्ती का मौसम
यौवन की आग

गुलाल,
प्रियतम की हथेली
प्रिये का हो गाल

रंगोली,
बाँहो में प्रिये के
प्रियतमे है झूली

पिचकारी
हाथो से 'उनके'
भीगी चोली सारी

अबीर,
गोरी की चितवन
लगा दिल पे चीर

गोझा,
घरवाली का संग
लगे आज बोझा

           उमेश कुमार श्रीवास्तव 

..




हूं शरणागत त्रिपुरारी

हूं शरणागत त्रिपुरारी

अय काल कराल
दिव्य ज्वाल
अय त्रिनेत्रधारी
नील कण्ठ
तेरी शरण  तेरी शरण
अभ्यागत है तेरी शरण

अय जटाधारी
भूतनाथ
अय मृगछालधारी
अघोरनाथ
दे वरदहस्त हूं शरण
तेरी शरण तेरी शरण

अय कृपापुन्ज
गंगधारी
शीतल करो
हिय अनल सारी
दूर कर सारे प्रमाद
दे कृपासिन्धु अपना प्रसाद
हूं खड़ा द्वारे तेरी शरण
तेरी शरण तेरी शरण

पशुवत बना जीवन मेरा
पशुपति तनिक तू देख ले
त्रिनेत्रधारी भस्म कर
तम भरे सारे विकार
हूं खड़ा द्वारे तेरी शरण
तेरी शरण तेरी शरण

इक बिन्दू का कण मात्र हूं
पर जलज तू ,हूं अंश मैं
पावन बनूं, पावन रहूं
ले भार तू ,जो अंश मैं
अभ्यागत बना आया हूं मैं
तेरी शरण तेरी शरण

हे शिव मेरे शंकर मेरे
भोला हूं मै ,भोले मेरे
हे भस्मांगधारी भस्म कर
अरि बन रहे विष अपार
अय त्रिशूलधारी त्रिपुण्डनाथ
त्रिताप हर आमोद भर
हूं खड़ा कब से शरण
तेरी शरण तेरी शरण

भय मुक्त कर निर्द्धन्द कर
इस पार भी उस पार भी
जीवन बने परमार्थकारी
निर्मल ,सजल , सत्यधारी
अर्चना के पुष्प संग, हूं शरण
तेरी शरण तेरी शरण

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर दिनांक १८.०३.२०१७

ये मानव का रूप कौन सा ?

ये मानव का रूप कौन सा  ?

भागती सी जिन्दगी
दौड़ते से लोग
सांसे उखड़ रही
हांफते से लोग

चल रहे इधर कुछ
कुछ पल उधर रहे हैं
बस संग कोई नहीं है
अपने में खोये लोग

है दायरा बस उन्ही का
दूजा न कोई अब तो
कांधे पे अपने खुद को
ढोये पड़े हैं लोग

दूजे की गर वो सोचे
मानो गड़बड़ी है
प्रगति जो दिखी किसी की
तो, पर काटते हैं लोग

कोई जी रहा क्यूं
अपने मौज में है
आंखों की किरकिरी इसे
बतलाये पड़े है लोग

नेकी हमी से जिन्दा
हम उसके रहनुमा है
बदगुमानियों की गुदड़ी
ओढ़े पड़े हैं लोग

खुद पर कभी न आंखे
बस औरों को तक रहे हैं
खुशनामियों को अपनी,
चिघ्घाड़ते से लोग

कहते रहे धरा पर
धनी,ज्ञानी जिसे सब
निर्धन ,जड़ दिख रहे
ईर्ष्याग्रसित से लोग

अब तो बदल दो यारो
तस्वीर मानवों की
किस राह पे चले थे
किस राह खड़े हैं लोग

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दिनांक १९.०३.१७

शनिवार, 18 मई 2019

मुक्तक

चश्मो में चमकी तब्बस्सुम जो देखी मेरी जिंदगी मुस्कुराने लगी
रुखसार पे तेरी हया जो  देखी ये  जिंदगी  गुनगुनाने  लगी
लबो की तेरी गुलाबी ओ रंगत  मुझमें फिर जुनू है जगाने लगी
क्या कहूँ क्या कहूँ क्या कहूँ ऐ जानम ख्वाबो में भी तू जो जगाने लगी
                                                                    उमेश श्रीवास्तव

गुरुवार, 16 मई 2019

ऐ ,भौतिक प्रलोभन

,भौतिक प्रलोभन

कितनी बार तुमसे कहा
कि ,
ना आया करो यूँ
चुपके से।
मुझे तुम्हारा यह तरीका
नागवार लगता है
चुपके से खलल डालना
एकांत आराधना में
मेरी,
टेशू से दहकते
मदमस्त यौवन से अपने

कितनी बार रोका है तुम्हे
कि,
मुझे भाते नहीं
ऋतुराज
और तुम हो कि
पतझड़ में भी
बुला लाती हो उन्हें
जलाने को मुझे

मैंने कहा था न तुम्हे
मैं विश्वामित्र नहीं बन रहा
तुम्हारी मेनका बनने कि चाह
तुम्हे
नचा रही है यूँ
उतार दो तुम इन्हे
और फेंक दो दूर
क्षितिज के पास
जहां से फिर , मिल ना सकें
और , न अवरोध ही बने
मेरे
ये तुम्हारे सरगमी
नूपुर

क्यूँ नाहक तुम
देती हो दस्तक , उन द्वारों पर
जिन्हे खुले सदियाँ ही नहीं
इक युग
गुजर चुका  है
मुझे चिढ सी होने लगी है
अब तो
जहां थी पहले
सहानभूति।
कि , तुम चाहती हो
पत्थर को द्रव्य बना
मुहर लगाना
विजय पर अपनी

यैसा नहीं कि मैं
मुग्ध नहीं हूँ
इस लावण्यमयी
यौवन से तेरे
मैं भी चाहता हूँ
इक सुहाना संसार
जीने को
तुम सी ही संगिनी
सुधा- अधर पीने  को

पर नहीं चाहता तो बस
किसी सुमन का
यौवन में ही मुरझाना
मैं स्वयं को जानता हूँ
बस कारण इतना
दूर रहने का तुमसे
क्यूँ कि तुम सी कली
न सहेज पाऊंगा
अपने जीवन ध्येय से
भटक
अपने आराध्य को
विलग कर।
न यही चाहूंगा
मुरझा जाओ तुम
मुझे पराजय का
अहसास करा

      उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 13 मई 2019

शेर-२

१-रात ख्वाबो में रहा किसी के पहलू में,
आंख सुबो खुली है खुमारी में हंसते हुये।

२-चंद शबनम के कतरों ने बयां कर दी हालात-ए-दिल
किसी को अहसासो को पढ़ने का हुनर आ है गया ।

३-जिन्दगी जीने के लिये हुक्मरानो का हुक्म तो बजाना होगा
रूमानी होने के लिये कुछ वक्त तो बचाना होगा...?

४-वक्त के हर पहलू ने वादा है किया
तेरा हर काम करूंगा मैं तू रूमानी तो रह

उमेश १५.११.१६

शेर

१-इश्क को हद में बांध कर कोई कहे
डूब जा तू दर्द -ए-गुबार में

२-तूने यूं भिगोया मुझे अपनी इश्क  की बून्दो से ,
इस तरह तर हूं अब सूख जाऊं मुस्किल है।

३-जान के जाने का मंजर क्या होगा
तुझसे दूर होते ही जान लेता हूं।

४-तूने दीदार जो कराया जल्वा-ए-हुश्न ,
हूं अब तलक खोया हुआ तेरी रूह में हूं ।

५-है रुह को बस तेरी ही तमन्ना
तेरे जल्वे को बस देखता ही रहूं
मेरे सामने यूं ही बैठी रहो तुम
जिन्दगी भर यूं तुम्हे बस तकता रहूं

६-थी तमन्ना तुम्हारी शायरी में ढलो तुम
अब हर लफ्ज शेर का है तुम्हारे लिये

७-यूं न मचला करो जरा सम्हला करो
ये शुरूआत है इंतहां ये नहीं

८-तेरी आरजुओं से बन्ध गया हूं मैं
अब तमन्ना यही बस रिझाती रहो

उमेश श्रीवास्तव

ग़ज़ल अहले दिल की तेरी दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई

ग़ज़ल

अहले दिल की तेरी  दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये  बढ़ा गई

अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे

तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर  से जा बे-असर हुए 
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा

जो अश्क हैं इन चश्म   में, बेकद्र में न बहा उन्हे
अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला  मेरी शराब में , शराब में

तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में

वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई

उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर

मेरे विचार

  मेरे विचार


       कहा जाता है कि पृथ्वी पर चौसठ लाख योनियों में अपनें कर्मों के अनुरूप आत्मा अपने अन्तःकरण के साथ जन्म लेती हैं । यह वैज्ञानिक तथ्य है कि प्राणियों की लाखों खुंखार व अत्यधिक घृणित तथा भयावह प्रजातियां लुप्त हो गई हैं जिनमें जड़ योनि के पेड़ पौधों की भी प्रजातियां सम्मिलित हैं । जिससे ऐसी योनियां जिनमें अपना कर्मफल भोगने के लिये प्राण को जन्म लेना था वह बची ही नहीं । दूसरी तरफ मानव प्राणी की जनसंख्या अर्थात इस प्रकृति की योनी पृथ्वी पर अन्य प्राणियों की तुलना में स्वमं को स्थापित कर विकास करनें में सफल रही । अतः जो योनियां जानवरों कीड़े मकोड़ो पेड़ पौधों की लुप्त हुई उस योनि के घृड़ित विभत्स, दुर्दान्त कर्म करते हुए अपना कर्म फल भोगने हेतु उस प्रकृति की आत्मा सह अन्तःकरण को उपलब्ध मानव योनि में ही जन्म लेना पड़ रहा है । जिससे देखने में मानव जनसंख्या में वृद्धि दिखती है किन्तु वास्तव में मानव स्वरुप में अधिकांश जनसंख्या उन विलुप्त जानवरों कीट पतंगों पक्षियों पेड़ पौधों की हैं जिनकी योनियां विलुप्त हो चुकी हैं । इसी कारण इन योनियों में जन्म लेने से उनके जो गुण स्वभाव होते वे मानव में दिख रहे है । अतः इन्हे इनके आकार प्रकार के आधार पर इन्हे मानव मानने की भूल भूल कर भी न करियेगा । दो हाथ दो पैर ,दो आंख दो कान एक नाक सह सिर के सभी प्राणी मानव नहीं रह गये हैं यह समझते हुये इनसे वर्तमान युग में डरना स्वाभाविक है ।
मेरी सोच मेरा आंकलन सहमत तो स्वागत असहमत तो क्षमाप्रार्थी

गजल अय यार तेरी सोहबत में हम

यदि मेरे यार को दर्द दे सुकूं मिलता है
तो मुझे सहने की ताब दे दे ऐ मेरे खुदा ၊

गजल

अय यार तेरी सोहबत में हम
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।

बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके

हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके

हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके

जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये
ना जी ही सके ना मर ही सके ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६

अजनबी

अजनबी

उस अजनबी की तलास में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरो पर

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालो में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल

पर अब तक तलास रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसेमैं जानताहूँ वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से

जाने कब पूरी होगी मेरी तलास
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव...01.09.1990...

मेरी व्यथा

मेरी व्यथा

दुनिया की
तेज रफ़्तार दौड़ नें
(सभ्यता,संस्कृति के विपरीत)
आधुनिकता की ओर
पीछे छोड़ दिया है
मुझे
काफ़ी पीछे
जहाँ से
रास्तो के निशाँ
मिट चुके हैं
गर्दो-गुबार में
जिनके सहारे ही
मैं
उस दिशा की ओर
अग्रसर हो सकता
जिस ओर
जन समुदाय
अपनी रफ़्तार नापने को
गतिमान हुआ था

मैं अब भी
प्राचीर से चिपका बैठा हूँ
गौरवान्वित होता
अपनी वैभव पूर्ण
प्राचीन, खंडहर बनते
सभ्यता के विशाल
प्रासाद से,
शायद यह भूल कि,
यह कलयुग है
जहाँ आज का महत्व है
कल का नहीं

कल के सांस्कृतिक मूल्य
आज पुरातन हो
बू कर रहे हैं
पश्च-गामी समाज को
हर प्रयास
सामान्जस्य का , मेरा
निरर्थक हो रहा
स्वयं को गतिशील करने का

मेरा मोह
(अपनी सभ्यता, सस्कृति का)
मेरा भय
(पिछड़ने का , कट जाने का समाज से)
दोनो का द्वंद
मुझे नज़र आता
कुरुक्षेत्र स्वयं मे ही
जहाँ
नैवैद्य बना
होम कर रहा हूँ
स्वयं को  ही मैं

कब और कहाँ किस तरह
उस बिंदु को पाऊँगा
जहाँ युद्ध और शान्ति में
सामान्जस्य बिठा
गतिशील करूँगा
स्वयं को
समाज मे स्थापित होने को
स्वयं को
सामाजिक जन्तु कहलाने को

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

दर्द की छाया

दर्द की छाया

दर्द अहसासों के सहारे
धमनियों से गुजरता है जब
इक शीत की लहर सी
चलती है संग संग
गर्म लहू जमने सा लगता है
दिल की सुरम्य वादियों में
पतझड़ सा छा जाता है
उजड़ जाती हैं
बसी फूलों की बस्ती
कलियां सूख कर
झड़ जाती हैं शाखाओं से

दर्द एकाकी न होता है कभी
वह काफ़िला संग लिये चलता है
मन मस्तिष्क पर चढ़ दौड़ते
जब अश्व उसके
हो जाती हैं शिथिल  इन्द्रियां पंचम
शीत कुहासे से घिरा एकाकी हिय
संकुचन की परा छू लेता है
धड़कने छोड़ देती है साथ
प्राणवायु ही जब दगा देती है

दर्द अहसासों के सहारे
चुपके से
धमनियों से शिराओं में उतर आता है
शिराओ के मकड़जाल में फंस
सारे वजूद को आगोश में ले
शिव से वजूद को भी
शव सदृष्य बना जाता है

दर्द कैसा भी हो
न बाटों यारों
बांटना ही है तो प्यार बांटो यारों
दिल की राह पर जो दर्द आ जाता है
अच्छे अच्छों की वो दुनियां मिटा जाता है
प्यार वह बाग है जो
हर दिल में सजाना होगा
फूलों के मकरंद से भी उसे महकाना होगा
न कर सको ऐसा तो
बस इतना कर लो
गरल छोड़, अमी का
संग कर लो

उमेश कुमार श्रीवास्तव २८.१२.२०१६ (12.00)

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष" 
वही रश्मि औ वही किरण है
वही धरा औ वही गगन है
वही  पवन है नीर वही  है
वही कुंज  है वही लताएँ

पर्वत सरिता तड़ाग वही हैं
वन आभा श्रृंगार वही है
प्राण वायु औ गंध वही है
भौरो  की गुंजार वही है

क्या बदला है कुछ,नव प्रकाश में
ना ढूंढो उसको बाह्य जगत में
वहाँ मिलेगा कुछ ना तुमको
डूबो तनिक अन्तःमन में

क्या कुछ बदला है मन के भीतर ?
जब आये थे इस धरती पर
क्या वैसा अंतस लिए हुए हो ?
या कुछ बन कर ,कुछ तने हुए हो !

अहंकार , मदभरी लालसा
वैरी नहीं जगत की  हैं यें 
यही जन्म के बाद जगी है
जो वैरी जग को ,तेरा कर दी है

यदि विगत दिवस की सभी कलाएँ
फिर फिर दोहराते जाओगे
नए वर्ष की नई किरण से
उमंग नई  क्या तुम पाओगे

जब तक अन्तस  अंधकूप है
कहाँ कही नव वर्ष है
अंधकूप को उज्जवल कर दो
क्षण प्रतिक्षण फिर नववर्ष है

हर दिन हर क्षण, जो गुजर रहा है
कर लो गणना वह वर्ष नया है

हम बदलेंगे  युग बदलेगा
परिवर्तन ही वर्ष नया है

गुजर रहे हर इक पल से
क्या हमने कुछ पाया है
जो क्षण दे नई चेतना
वह नया वर्ष ले आया है 

मान रहे नव वर्ष इसे तो
बाह्य जगत से तोड़ो भ्रम
अपने भीतर झांको देखो
किस ओर  उझास कहाँ है तम

अपनी कमियां ढूढो खुद ही
औरो को बतलादो उसको
बस यही तरीका है जिससे
हटा सकोगे खुद को उससे

सांझ सबेरे एक समय पर
स्वयं  करो निरपेक्ष मनन
क्या करना था क्या कर डाला
जिस बिन भी चलता जीवन

कल उसको ना दोहराऊंगा
जिस बिन भी मैं जी पाऊंगा
आत्म शान्ति जो दे जाए मुझको
बस वही कार्य मैं दोहराऊंगा

राह यही  नव संकल्पो की
लाएगी वह  अदभुत हर्ष
तन मन कि हर  जोड़ी जिसको
झूम कहेगी नया वर्ष

आओ हम सब मिलजुल कर 
स्वागत द्वार सजाएं आज
संकल्पित उत्साहित ध्वनि से
नए वर्ष को लाएं आज

   उमेश कुमार श्रीवास्तव

चतुर शेर


                     १

लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना ၊

                       २

फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब ၊

                          ३

अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं ၊

                             ४

हूं चाहता तो मैं भी , तुझको चूम लू       
पर आसमां तू ठहरा , मुझे हद पता है अपनी ၊

.......... उमेश श्रीवास्तव