शनिवार, 29 अगस्त 2020

कारवाँ-ए-जिंदगी

कारवाँ-ए-जिंदगी

इक दिन अचानक
मिल गया था कोई
राह में जिंदगी के, 
यूँ ही चलते चलते
देख कर जिसे 
यूँ लगा ही नही
है अनजान वो
जिंदगी से मेरे

रूहों से रूहों की , 
पहचान थी यूँ
लगा ही नही
ना थे पहले मिले
यूँ चल पड़े ज्यूँ चलते हो आए
जिंदगी की डगर पर
यूँ ही लंबे सफ़र में

"मेरे नासमझ " को
समझ ये ना आया
मिला कौन अपना
किसे ओ है भाया

जिंदगी इस जहाँ में
बस कारवाँ है
मिलते बिछड़ते 
सौदागरों की
यहाँ कौन दिल से 
दिल जोड़ता है
मंज़िल पे आ के
छूटना साथ जब है

मै समझा सका ना
या "नासमझ" वो बने थे
आज तक मुझे ये
पता ही चला ना
हर शख्स की  अपनी
सौदागरी है, 
हर शख्स की अपनी
है पड़ाव-ए-मंज़िल

जिंदगी को है चलना
उसी राह पर है
जो जाती सदा
अबूझे मंज़िल
चलते रहेंगे बढ़ते रहेंगे
सभी के अपने 
बने कारवाँ ये

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, ३०.०८.२०१६

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

गजल၊ आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं

गजल

आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो, गुनगुना क्यूं न लू।
आपकी शोखियां मदहोश कर गई
सोचता हूं बे-वजह मुस्कुरा क्यूं न लूं।

हूं जानता आप मेरे नहीं, 
इस दिल में आपके बसेरे नहीं
मानते पर कहां दिल के जज्बात हैं
इक घरौंदा तिरा मैं बना क्यूं न लूं ।
आप यूं चल दिये ज्यूं देखा नहीं
रूप की धूप को चांदनी से उढ़ा
चांदनी से जला,खाक बन जायेगा
खाक-ए-बदन फिर उड़ा क्यूं न लूं।

कदमों में लिपट चैन पा जाऊंगा
गेसुओं में भी थोड़ा समा जाऊंगा
सबा से जो मदद,थोड़ी मिल जायेगी
बदन से लिपट झिलमिला क्यूं न लूं।
आपको आप से ही चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो गुनगुना क्यूं न लूं ।

उमेश २८.०८.२०१६ जबलपुर ၊

सोमवार, 24 अगस्त 2020

है भूल ये किसकी

क्या ये मेरा 
वही ,
चेतना का शहर है !
जो,
चहकता था अहिर्निस,
गुनगुनाता हुआ,
भटकता था हर क्षण,
गीत गाता हुआ ၊
रातों में भी 
जिसे,
सोना न आता
दर्द , चाहे हो जैसा
रोना न आता ၊

अचंभित हूं यारो
खड़ा मैं जहां हूं
यहीं तो महफिल सजती रही थी
वीरानियों से दो-चार 
हुआ जा रहा हूं
अचरज से यहीं मैं
गड़ा जा रहा हूं ၊

ये सड़कें वहीं हैं ?
या बदल ही गई हैं ! 
या चलते ही चलते
चली ही गई हैं
वीराने में आ कर
सुस्ताती ये सड़कें
लगती तो अपनी 
पर लगती नहीं हैं ၊

न लोगों का रेला
न मोटर न ठेला
बस हवा सरसरी है
खुशबू भरी है
खगों की चहचहाहट
खड़खड़ाहट पल्लवों की
यही कह रहीं हैं
कि, कुछ तो हुआ है
ठहरा हुआ जो
हर कारवां है ၊

श्वानों को देखो
खड़े हैं अचंभित
वो इन्सा कहां है
जो करते अचंभित
नही दिख रहे सब
गये वो कहां है 
सारी धरा अब 
लगती है अपनी
ये गली भी है अपनी
ये सड़क भी है अपनी
सूनी सड़कें पर भाती नहीं हैं
गलियों से रौनक, जो आती नहीं है ၊

चमन सज रहा है
पवन सज रहा है 
जरा सा जर्जर ये गगन 
सज रहा है
धरा का नगीना 
सिसकता घरों में
उसे छोड़ सारा
वतन सज रहा है ၊
कुछ तो गलत था
हमारी चाल में ही
हमें छोड़ सारा चमन सज रहा है ၊

उमेश : इन्दौर : दिनांक ..०३.०४.२०


तलास

तलास

उस अजनबी की तलाश में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ ၊

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास ၊

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो ၊

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर ၊

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके ၊

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल ၊

पर अब तक तलाश रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसे मैं जानता हूँ,
वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से ၊

जाने कब पूरी होगी मेरी तला
उस अजनबी की
..................उमेश कुमार श्रीवास्तव


चांद मेरी

चांद मेरी


ऐ चांद तू निकल जरा
आयाम पर चल जरा
देख मेरी प्यास को
सूखते अहसास को ၊

मैं तो बस चल रहा
रीता रीता पल रहा
जिन्दगी की चाह में
सुलग सुलग,जल रहा ၊

ऐ चांदनी , यूं गुमां न कर
संग आ , आह भर
तप्त हो निखर ज़रा
है दिलजले का मस्वरा ၊

कुछ भी न हूं मैं चाहता
बस प्यार का अहसास ला 
तू मुझे निरख जरा
अहसास प्यार के जगा ၊

मुझको न कोई चाह है
चाहत तेरी, इक चाह है
इक निगह बस प्यार की
जिन्दगी न्यौछार है ၊

ऐ चांद रूख बदल ज़रा
नजदीकियां तो ला जरा
मैं भी सुकून पा सकूं
बस अब जतन ये कर ज़रा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
२७.०१.२१ 
शिवपुरी



मैने देखा है ह्रदय का स्पन्दित होना
हौले हौले उसका आन्दोलित होना ।
उसका स्मित होना महसूस किया है 
अपने अधर द्वय पर,अनायास ही ।
 उसकाआना ,इसका असहज होना

मुक्तक

मुक्तक

दर्द के अहसास यूँ ना दिलाया करो  
चाँद बन मेरे छत पे यूँ ना आया करो
देगी बदल रंग शबनम, जिगर- ए- लहू लेकर
ख्वाबों मे आ तुम यूँ झिलमिलाया ना करो

 ... उमेश

सब्र करता रहा सब्र जाता रहा 
इक वजह तो रहे इंतजार की ।
वो परदा भी क्या कफन जो बने
विस्मिल दिले बेकरार की  ।.....उमेश

बुधवार, 19 अगस्त 2020

मुक्तक

मुक्तक

दर्द के अहसास यूँ ना दिलाया करो  
चाँद बन मेरे छत पे यूँ ना आया करो
देगी बदल रंग शबनम, जिगर- ए- लहू लेकर
ख्वाबों मे आ तुम यूँ झिलमिलाया ना करो

 ... उमेश

रूबाई

रूबाई
नूर चमकती आंखो की , 
रूख्सारों की दमकती ये  लाली
गेसू में झलकती, जो सांझ की मस्ती, 
लब पे जो धरी मदिरा प्याली
इनकी उमर न हो कोई, 
अजर रखे रब की प्याली
यूं ही खुशियां बरसाओ तुम
बरसे इनसे रुत मतवाली
उमेश

शनिवार, 15 अगस्त 2020

कल्पित यथार्थ

कल्पित यथार्थ
 
 
कभी कभी,
व्यक्त नहीं कर पाता , मैं
अपनी बेचैनियां,
अकुलाहटें,
जो चेतन या अचेतन में कहीं,
मथती रहती हैं
सम्पूर्ण अहसासों को,
इस त्रि-आयमी 
पंजर में मेरे ।

मैं कूर्म सा,
वहन करता,लालसाओं के 
अनन्त नग, मदरांचल को,
जो मथानी है बना,
अन्तस सगर में ।
भोगेन्द्रियों का छोरहीन वासुकी
है डुलाता मदरांचल को,
सुर कभी ,कभी असुरों कीओर ।
,
फेड़ित हुआ, रथी,
आत्म चिन्तन,
बुदबुदों सा उड़ रहा,
तल को तरसता
अतल सी गहराईयों में  ,
है डूबता जा रहा ,
खींचती हैं निरन्तर
अन्धकूप सी गहराईयां
ज्यूं रथी को ।
मोह की माया में काया
रत हुई ज्यों,
व्यक्तित्व सारा
खो रहा इस अन्धमय
ज्ञान पथ पर ।

संधानने को 
ध्येय पथ को 
नित,
तम के विवर में हूं भले
पर एकाकी नहीं
त्रिनेत्रधारी मेरा शंभु
गाहे है बाहें मेरी ।


जगति कीचक मे
लिपटा हुआ मैं,
पवन के वेग सा
बहता रहा हूं ।
ब्योम सा हो रहा
तिमिर रस पीता रहा हूं ।
मगर यह जानता
सत्य सुन्दर सदा
तिमिर को शेष कर
उझास ही फिर आयेगा
मेरा शिव साथ है जब
रवि तेज,किस तिमिर में
छिप पायेगा ।

हूं भिज्ञ,
जीवन की हर लालसा से,
मायावी चासनी से
रिझाती रहती जो सदा,
ऐसा नहीं, कि,
अनभिज्ञ हूं ,
सीमाओं से खुद की,
यही तो कारक बने हैं
अकुलाहटों, बेचैनियों की
मेरे,

चाहता हूं 
निर्लेप रहना,
विदेह बन
माया ठगी को
स्वयं ठगना,
पर ठगा जाता रहा हूं ,
स्वयं की कर्मेन्द्रियों
से हार कर,
हूं सहारे बस एक उसके
जो मेरा "हर" है,
उसके सहारे ही चला हूं,
चल रहा हूं,
अकुलाहटों,बेचैनियों
में घिरा,
मुस्कुराहटो को अधरों पर
सजाये
पल रहा हूं  ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक १९ .०८.२०२०
 



मंगलवार, 11 अगस्त 2020

चन्द शेर

चन्द शेर
 
 
1..तुम तो शोख़ नज़रों से बिखेर गई तब्बस्सुम
ये ना पूछा, मेरे दिल की हालत क्या है

2..लोग पी जाते हैं प्याले पे प्याला नशे के लिए
तेरी इक नज़र से मदहोस हुआ जाता मैं

3..शर्मो हया से नहाया तेरा मरमर का बदन
देख ताज भी शरमाने लगा 

4..उफ़! हर अदा मय से तेरी डूबी हुई
डर है कहीं मयकश ना बन जाउँ मैं

5..सुबह शिकवा थी उनको शाम हमसे शिकायत
ना जाने अब क्या चाहती है जालिम

6..कहने को हमसे खफा है जालिम 
पर नज़रों से तब्बस्सुम बिखेरे जाती है

..उमेश

सोमवार, 10 अगस्त 2020

रूबाई


बदनाम करतें हैं लोग 
जंग "जिन्दगी" को बता
जीना आता नहीं जिन्हे 
ये उनकी शगल है शायद।

उमेश

रविवार, 9 अगस्त 2020

प्रेम मूल प्रकृति

प्रेम मूल प्रकृति



मूल प्रकृति, जीवन की मेरे
स्नेह-प्रेम ,मकरंद लिये
जग कण कण को बांटू जो मैं
क्षुधा मेरी, प्रतिपल वो मिले ၊

सानिध्य मेरा, है कालजयी
 माया पर भी, है वो विजयी
बस प्रेम अस्त्र , मेरा बल है
करता हर प्राण, यही विजयी

उमेश

बुधवार, 5 अगस्त 2020

चन्द शेर

चंद शेर

दामन न छोड़ तू कभी रज़-वो-सब्र का
तकदीर को तदबीर से बदलेगा ओ खुदा

ये रिज़ा है यार, ना तेरी मेरी खता
जो मिलना चाह कर भी हम मिल नहीं पाते

बिना रिज़ा के क्या कभी गुल खिले चमन में
यूँ देखते रिज़ा से , खार गुल से महक उठे

....उमेश श्रीवास्तव

हुस्न का दीवाना संसार नज़र आया
खुली जो आँखे नींद से व्यापार नज़र आया
..उमेश

बसते हैं दोजख की नादिया के किनारे
ख्वाबों में बसाए हुए जन्नत के नज़ारे 
ख्वाबों को रूबरू करने का है हौसला 
 बदलेंगे हम तस्वीर को अपने कर्मों के सहारे
...उमेश

मित्रता दिवस पर लिखी कविता व सन्देश , मीत मेरे

मीत मेरे
 
मीत मगन मन बदरा छाये,
तुम आये पुन बालसखा सम, 
उमड़ गरज बरखा बून्दो सम, 
तर कर दीन्ही मोरि चदरिया, 
आपा धापी छोड़ लखूं तुम्हे,
निरखत भूली पलक डगरिया
रीती रीतीरही आज तक
भर गई मोरी पूरी गगरिया ।

सभी मीत जन को सादर नमन, इस जीवन में उमंग ,तरंग ,हर्ष ,उल्लास ,अल्हड़ता ,सरलता, सहजता ,आत्मीयता ,स्नेह ,दुलार ,प्यार ,सत्कार ,जो आनन्द प्रदान करने वाले गुण हैं को बाल सुलभ बनाये रखने हेतु आपका जो अमूल्य साहचर्य सहयोग मिला है जिनसे मेरा यह जीवन बना है ,के लिये मैं धन्यवाद दे उसका अवमूल्यन करनें की घृष्टता न करूंगा,हां अपेक्षा अवश्य करूंगा कि यूं ही बच्चे को अपने में जीवित रखें और मुझमें भी मेरे अन्दर के बच्चे को हर्षित और जीवित रखने में सहयोग देते रहें । क्यों कि आज तो बच्चों ने जन्म लेना छोड़ दिया है वे सीधे प्रौढ़ रूप में जन्म ले रहे । "बचपन" से धरा रिक्त न हो इस हेतु हम सब का दायित्व भी है कि एक दूसरे का सहयोग कर अपने अन्दर के बच्चे की उसी रूप में जीवित रखें । जिससे सखा भाव भी धरा पर जीवित रहे । बालसखा के अनुरूप ।  
सभी को पुनः मित्रता दिवस की शुभ कामनाएं ...उमेश श्रीवास्तव ०६.०८.२०१७ जबलपुर

रविवार, 2 अगस्त 2020

मुक्तक: मुंतज़र ए दिल

मुक्तक मुंतज़र  ए  दिल
 
दिल के दिए को जला के रखा था 
चौखट पे दालान के सोचा था,
आएगा कोई अँधियारे मे मुस्कराने की वजह लेकर
क्या पता था मुंतज़र ए बयार बेकार है ,
 सामने सहरा की एक लंबी दीवार है,
 गुजर गई आई दीवाली मुस्कान बिखेर
, हम तो अब तक मुंतज़र मे ही बैठे है
 दिल के दिए को जला सींचते लहू से बाती.....
....उमेश

मन मोह लिया तूने , अब तो दरस दिखा जा।
तन मन है तुझमें खोया,  छू कर मुझे जगा जा ।
25.03.16

शनिवार, 1 अगस्त 2020

कुछ शेर

देखा था बस इक नज़र उस किताब को
अब तलक अटका हुआ पहले हरफ़ पे हूँ .....उमेश

दर-दर भटकते रहे ऐसी नज़र के लिए 
भेद देती दिल को जो चश्म-ए-नज़र से अपनी
..उमेश..

अब तलक़ ख्वाहिस यही पढ़ सकूँ इश्क-ए-नज़र
जिंदगी गुज़री मगर वो नज़र मिलती नहीं
...उमेश

ग़ज़ल वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं

ग़ज़ल 
वो अपनी तस्वीर को हर रोज बदल देते हैं
तदबीर से हम भी उन्हे दिल में जगह देते हैं
कभी रुखसारों की रंगत दिलकश
कभी लब पे मचलती शोख हँसी
कभी ज़ुल्फो की पेंचो में उलझाती अदा
कभी अँखियों से झाँकती शरारत
इक मीना में भरी इतनी मय की तासीर है 
औ कहते हैं कि पी के भी बा-होश रहो
क्या शै है दीदार-ए- हुश्न भी यारों
रोज नई जुंम्बीसे दे, जीना सिखा जाती है

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०२.०८.१६ जबलपुर