मंगलवार, 28 जून 2016

मेघ

मेघ

इतना ना उड़ ऊपर मेघा
कि रीता रीता कहलाए
गुरुता ला खुद में थोड़ी
झुकना भी थोड़ा जाए

जितना ऊपर उठता तू है
कलुषित काया हो जाती
थोड़ी सी अमी पर हित ले झुके
तो तेरी ये छवि है धुल जाती

चातक तकते पपिहा तकते
सीप तके गज, बाँस तके
हो निराश धरा संतति
मेघा जो ज़रा तू दंभ तजे

झुक, नीर बना, हर्षित हो कर
बन, पीर-हरा, प्रमुदित हो कर
कर दान, सुधा, जग तारण को
राधेय हृदय सा आलोकित हो कर


उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक २८.०६.२०१६

ग़ज़ल; कहाँ से चला था

ग़ज़ल

कहाँ से चला था कहाँ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ

इधर भी उधर भी नज़ारे नहीं अब
नीचे ज़मीं ऊपर सितारे नही अब

दिल तो है बच्चा, मगर खो गया मैं
कशिश में किसी की हूँ सो गया मैं

ना भूला हूँ बचपन के खेलों की दुनिया
ना भुला हूँ अरमां तमन्ना की दुनिया

वो गलियाँ अभी भी रूहों में रची हैं
लटटू की डोरी उंगलियों में फसी है

बिखरी है अब तक वो पिट्टूल की चीपे
डरी थी जो गुड़िया उसकी वो चीखें

वो बारिस की, कागज की किश्ती हमारी
चल रही बोझ ले अब भी जीवन की सारी

वो अमवा की बगिया वो पीपल की छइयां
नदिया किनारों की वो छुप्पम छुपैया

सभी खो गये हैं उजालों में के
तमस की नदी के किनारों पे के

वो माँ की ममता भरी डाट खाना
आँखों से पिता की वो तरेरा जाना

कमी आज सब की खलती हमे अब
गुम हो गये इस भीड़ में हम जब

ये तरक्की ये सोहरत ये बंगला ये गाड़ी
वो माटी के घरोदे वो पहिए की गाड़ी

बदल लो इनसे सभी मेरे अपने
नही चाहिए छल भरे, छलियों के सपने

लौटेगा अल्हड़ वो बचपन हमारा
सफ़र है सहरा, है सीढ़ियों का सहारा

आँखो ने सहरा के टीले दिखाए
जहाँ है दफ़न मेरे बचपन के साए

चलता रहा छोड़ बचपन की गलियाँ
सकरी हो चली हर ख्वाहिशों की गलियाँ

अब तो यहाँ दम घुटने लगा है
नई ताज़गी से साथ छूटने लगा है

भटकते भटकते कहाँ फँस गया हूँ
कफस में जाँ सा धँस मैं गया हूँ

कहाँ से चला था कहाँ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ


उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर दिनांक २८.०६.२०१६

शनिवार, 25 जून 2016

मेघ फुहार




सरसराती पवन
गड़गड़ाता गगन
चहुदिश चमकती तड़ित
अठखेलियाँ की उमंग में
बूदों का अल्हड़पन

बूढ़ेपेड़ों का मन
शाखाओं पर लदी
पत्रवल्ली के संग
अह्लाद का अतिरेक कर
झूमता सा

नव पौध देखो वनों की
भय मिश्रित कौतूहल लिए
झुक रहे सर्वांग से
माँ प्रकृति की गोद में
भीगे बदन

परिहास करती
माँ भी कभी,दिखता यही
पर सीख देती ज्यूँ कह रही
तनना ही नही
झुकना भी
जीवन की कला है,
 सीख ले
सुख में ही नही
कठिनाइयों में भी
मुस्कुरा जीना पड़ेगा

आँचल में लिपटी दूब
गिरती बूँद से
पवन के वेग से
कर रही अठखेलियाँ
बिन डरे
जिंदगी है धरा से
उड़ ना अधिक
उड़ जाएगा
लोट जा मृदा में
जीवन संजोने के लिए
तृप्ति व आनंद
इसमे ही तू
पा जाएगा

प्राणियों में प्राण
जग से हैं गये
भावना से भय
भग से हैं गये
खग बृंद पुलकित
झूमते
यद्यपि , भीगे पखों से
डालियों पर, बस घूमते
उड़ान की चाहत नही,
बस भीगने की
रूखी में ज्यूँ स्वाद
छप्पन भोग की

जल ही जीवन
जानता चर चराचर
बादलो से नेह का कारक यही
देख इन नीर दूतों को तभी
झूम जाते इस धरा के
प्राण सारे

प्रेमियों के प्रिय जैसे
जीवन के आधार
मेघ धरा पर पाते
तुम भी
यूँ ही
प्राण जगत से
अगिनित प्यार

       उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २५.०६.२०१६