बुधवार, 20 जुलाई 2022

मेरे ना - समझ

मेरे ना - समझ 

उस ना - समझ ने
फिर, 
आवाज दी है
सोचा था जिसने
भुला ही दिया है ।

कोमल सी नाजुक सी
वो भावना थी
जिसे 
मन वाटिका में
था भटकने को छोडा ।

फिर आवाज दे कर
दी संजीवनी पर
 देखना यही कि
कितनी मौसमी है ।

खुद को कहें वो
हूं, ना समझ,  पर
बन्द लिफाफों के मजमूं
हैं जान लेते ।

हैं मुंतज़र में ,
मेरे हर्फ जाओ ,
नही बेरुखी से
ठुकराये न जाओ ।

तुम्हे पढ के शायद
कुछ रश्क जागे
चेहरे की रंगत
मुस्कान मांगे ।

चेहरे की रंगत
देख सकता नही पर
लबों पे  तब्बस्सुम 
खिली जरूर होगी ।

            उमेश कुमार श्रीवास्तव
.              शिवपुरी
               १२ . ०७ .२०२२






रविवार, 17 जुलाई 2022

मुक्तक

लाखों दफ़ा सोचा हम भी चुप रहें 
दिल के गुबार हैं कि रहने नहीं दिये ।
हम मुंतज़र में बैठे उन साज की धुनों को
जिनको ख़ुदा नें शायद सरगम नहीं दिये।

...उमेश

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

व्यथा

व्यथा

ऐ दामिनी 
न इतरा यूं
पयोधर की बन
प्रेयसी
गणिका
न वारिस तू
 वारिद की
तू बस अभिसारिका

ये नर्तन तेरा 
व्यर्थ
न जमा धौंस
इन नगाड़ों की
रीता है, हिय
कर्ण द्वय 
सुन्न, ग्रहण न करेंगे
स्वर इनके बेढब
 
आरूढ़ अषाढी 
मेघ सीस
हे मेघप्रिया
न खो आपा
सौदामिनी
सौम्य हो जा
ये घन जो रीता
चुक जायेगी
श्वेत वसन में
वासना का त्याग कर
जलधर त्याग देगा
तो क्या करेगी 
ऐ चंचला

मैं वियोगी
सह रहा व्यथा 
विरह
ये हास तेरा
परिहास बन
चुभन दे रहा
हिय को मेरे
आहों की मेरी
न बाट तक तू
मदन सा तेरा
हश्र हो ना
हूं भयभीत 
परिणति पर
तेरी
ऐ चपला

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर, दिनांक ११.०७.२०१७

शनिवार, 2 जुलाई 2022

रे अम्बुद सुन

रे अम्बुद सुन...

उठती माटी से सुरभित बास
 बून्दे सस्मित, ताल दे रही
तरु पल्लव कर उज्जवल आभास
मगन नाचते,बौराये से
धरा गगन मध्य झूम झूम
आभासी उद्गार जताते
रे जलद धरा है प्यासी प्यासी
जा ठहर तनिक,
तन भीगा मन भी कर तर तू
आभासी बरखा ना बन
ये तड़ाग लख सूखा रीता
ये प्रवाहिनी तकती तुझको
जलधारा की आश जगा
तू कर निरझर्णी फिर आपगा
न निष्ठुर बन
किसलय मेरे कर रहे प्रतीक्षा
मेरे नाभिक में
उनका तू उद्वारक बन
तेरा मंजुल श्याम वर्ण
मनमोहन की प्रतिछाया
जाये निर्थक नाम तेरा
क्या पायेगा
दे सकल जल निधि
थल जल कर
बे नीर पड़ा जग
जग  मग कर जल
हे वारिधर,
सुरभि सुवासित वसुधा
मांग रही अपने अंशो हेतु  
तुझी से , सौंप दिया था 
अम्बु तुझे जो ,
हे अम्बुद 
उमेश कुमार श्रीवास्तव
 दिनांक ०१.०७.१७ ,जबलपुर

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

बरखा जल

बरखा जल

कितनी अनुपम लगती प्रकृति
धुली धुली सी उज्ज्वल
चमक उठा है जग कण कण
पा कर पावन बरखा जल

झूम झूम कर इठलाती
कुंज पौध औ वृक्ष लताएँ
सुमन अधर भी देखो
प्रफुलित हो कर मुस्काएँ

शुष्क धरा के विदीर्ण हृदय पर
देखो हरियाली छाई
ज्यूँ विरहन नें पी स्वागत में
अपनी चुनरी लहराई

घनघोर घटायें घटाटोप
घूमड़ घूमड़ कर आती हैं
अपनी शीतल बूँदो से मोती
कितने आज लुटाती हैं

हैं साज़ सुनाई पड़ते कितने
औ राग सावनी सुर के
बरखा की बूंदे भी गिरती
आज सरगमी धुन पे

प्रकृति जगत का हर इक प्राणी
आनंद मग्न हो झूम रहा
पर एक हृदय ऐसा भी देखो
जो विरह अग्नि को चूम रहा

पी के वियोग में प्रेयसी हिय
मचल मचल हो मूढ़ रहा
पपिहा हो कर ज्यूँ विह्य्वल
पी पी कह पी ढूढ़ रहा

शीतल करती बरखा सब को
इक हृदय इधर पर जलता है
उधर बुझ रही धरा तृष्णा
इक आशदीप इत बुझता है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव