शनिवार, 8 जून 2019

नव विहान

नव विहान


धुंध से झांकती
पर्वत श्रृंखलाएं,
अलसाये जगे से
ये वृक्षों के साये ၊
खेतों में उगते
फसल के ये पौधे ,
कुहासे के बादल
उठते हैं जिनसे ၊
खगों की उड़ानें
धरा से गगन को ,
कीटों पर लगी
बकों की निगाहें ၊
क्षितिज पर है फैली
अरुण की लालिमा जो,
तमों को भगाती, हैं,
रवी की वो निगाहें ၊
प्रकृति जग रही
हो सुबह अब रही,
जगो प्राण अब तो
जगी सब हैं राहें ၊
जो सोते रहे
तो, खोते रहोगे,
बढ़ो आगे बढ़ कर
थामो, मंजिल की बाहें ၊
उमेश, दिनांक ०९.०६.१९, भोपाल शताब्दी ट्रेन , दिल्ली - भोपाल यात्रा

सोमवार, 3 जून 2019

निर्गुण

 निर्गुण


आज कहो कुछ ऐसा सखी रे
हिय प्रफुलित हो जाये,
तन झूमे , मन बावला हो कर
माया जाय भुलाय ၊
हैं अबूझ ससुराल की गलियां
भटक रही अनजानी,
एक मेरा पी मुझे निरखता
और करें सब मनमानी ၊
हूं विह्वल, नीर भरे दृग,
ना है तू अनजानी
राह दिखा जा पार लगा जा
ना कर बैठूं नादानी ၊
ऐसा कर अब ,जतन सखी तू
हिय पी के, बाबुल पा जाऊं
माया कीचक से बिन लिपटे
जग के सारे सम्बन्ध निभाऊं ၊
तुझ पर ही अब आश लगी है
ऐसा कुछ अलख जगा दे ၊
शब्द ब्रम्ह के, बाणों से
तू सारे ये ,भय भ्रभ मिटा दे ၊
मेरी सखी वो प्यारी सखी रे ,
मौन न धर, सुर तान जगा दे ၊
मैं चुक जाऊं भ्रमित धरा पर
इससे पहले राह दिखा दे ၊
आज कहो कुछ ऐसा सखी रे
हिय प्रफुलित हो जाये,
तन झूमे , मन बावला हो कर
माया जाय भुलाय ၊
उमेश , गुड़गांव ,04.06.19 :8:44 AM