रविवार, 28 मार्च 2021

बसन्त का छोर

बसन्त का छोर

नव पल्लव ज्यूं शोभित हैं
हर तरु की हर डाली पर
शुष्क धरा पर,शिशु टेसू
बिछा रहे ज्यूं मतवाली फर

नव मुकुन्द ज्यूं पुष्पित है
भ्रमर डोलते ज्यूं उन पर
शुष्क तृणों से भरी डगर पर
मृग डोले ज्यूं इधर उधर

आम्र तरु पर लटक रहे ज्यूं
कैरी गुच्छे गदराये से
महुए के फूलों से ज्यूं उठती
महक नशीली मतवाली सी

प्रात वायु की शीतलता में
ज्यूं प्रखर हो रहा अनल इधर
अरूण रक्तिमा में ही झलके
ज्यूं अंशुमालि का तेज प्रखर

जल धाराओं के चहुंदिश गुंजित 
ज्यूं पशु, पक्षी ,कीटों के शोर
हरित चुनरिया विहीन खेत
ज्यूं दिखा रहे बस इसी ओर

कूंच कर रहा ऋतुराज बसन्त
आता ग्रीष्म ऋतु का अब जोर

उमेशकुमारश्रीवास्तव ,जबलपुर , दिनांक २९.०३.१७

आकाक्षाओं के पद तले

आकाक्षाओं के पद तले

नित संघर्ष
स्वमं से
द्धन्द, मल्ल
उन्माद की
सीमा तले

जीवन !
जीवन
चलता चले
तल्ख धूप हो
या चांदनी हो चढ़ी
हम खड़े
ताड़ से , 
और
अखाड़े में पड़ी है 
उम्र ,
कदमों तले

तलासते खुशियां
गुम हो गये
खोजने लगे 
अब
स्वमं को 
सभी
सम्भवतया
स्वंम मैं भी

कई दिन हुए
खुद से मिले
औरों की आदत
यूं पड़ गई

आज जो हम मिले
चौंक ही हम गये
जो गैरोँ सा उसे
बस देखते ही रहे
किताबों में वो कहीं
पढ़ा सा लगा
वो अनजान था
कुछ परेशां लगा

कुछ इसारे किये
मगर मौन ही
इधर द्वन्द था
ना समझने का ही

हिकारत भरी 
नजर डाल कर
विदा कर दिया
अजनबी सा उसे

है फुरसत कहां
भूत से मैं मिलूं
आज से भी मिलूं
जब वक्त ,ये ही नहीं

दूर की सोच है
इक महल स्वप्न का
चाहतों के किले 
हैं घेरे मुझे
जिनके लिये
बस जी रहा हूं

आकाक्षाओं का घेरा 
संकुचित क्यूं करू
भोगना है मुझे
सुख की हर बून्द को

सुख के लिये
द्वन्द जी रहा हूं
चिन्तन बिना
कल जी रहा हूं
हूं खोया स्वमं को
आज की दौड़ में
ये जाने बिना
तम विवर में जीने के
पल जी रहा हूं

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दि० २९.०३.१७

शाख से गिर कर*

*शाख से गिर कर*

शाख से गिर कर बिखर गये जो 
उन पत्तों का कहना क्या
पीत बदन जो पड़े बावले 
उन पत्तों का कहना क्या

कल तक जिन के अंग रहे थे
सुख दुख जिन के संग सहे थे
वे विदेह बन जायें तो फिर
उन शाखों को कहना क्या

कई कई अंधड़ थे देखे
कई मेघ भी आये झूमे 
जेठ दुपहरी जिन संग झेली
वे सब अब हो गये पराये
दूर उन्ही से यूं पड़े एकाकी 
इन पत्तों का कहना क्या

शिखर से टूटा अब कदमों में
सखा वृक्ष की शाखाओं का
आज एकाकी मात्र पात जो
सूखे सिमटे पीत गात के
उन पत्तों का कहना क्या

पिछला पल ही जीवन था
वह भी जीता हर पल था
नही जानता अगला पल क्या
समय भागता पल पल था
समय की धारा से अनजाने
झ्न पत्तों को कहना क्या

शरद,शिशिर,हेमन्त भी देखे
बसन्त राग संग झूमा भी था
ना जाने कितने पुष्पों को
अपने अधरो से चूमा भी था
पद तल विखरे निःसहाय पड़े जो
इन पत्तों का कहना क्या 

शेष बची कुछ चंद घड़ी हैं
कदमों में भी ना आश्रय होगा
पवन लहर पर सवार हो
दूर दृगों के पार  जो होंगे
शाख से टूटे  विलग हुए
इन भग्न ह्रदय पत्तों का क्या

प्रकृति नियम ये सदा रहा
जो जुड़ा रहा वह फूला फला
एकाकी बन जो रहा अहंपोषित
वो पर चरणों का दास रहा
परिपक्व हुआ, हूं श्रेष्ठ जना
ज्यूं भाव जगा ,वो विलग हुआ
ज्यूं विलग पड़ा पीतांग बना
इन पीत बदन पत्तों का क्या

उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दि० २७.०३.१७

अय नदिया की निर्मल धारा

अय नदिया की निर्मल धारा
तू क्यूं बहती रहती है
शीतलता का ओढ़ आवरण 
सबको शीतल करती है।

कल कल कलरव निश्छल निर्मल
अविकल अविचल सदा निरन्तर
नहीं शोर, बस निर्झर निर्झर
सब को आन्दोलित क्यूं करती है ।

अहंकार प्रतिरोध अगर
निर्मलता तज ले रौद्र रूप
कर देती सबको भयाक्रान्त 
क्या अबला की सबलता दर्शाती हो ?

चंचल वन , निर्जन आंगन
पाषाणित गज, कुशुमित उपवन
सबमें रस भर सुरभित कर कर
 क्या बैभव अपना झलकाती हो

उमेश (28.०३.२०१६)

मुक्तक

जिन्दगी सदा मुस्कुराती नहीं, 
दर्द की पोटली वो छिपाती नहीं
क्यों परेशां हो रहा देख आफताब को
कौन कहता तलखियां आ के जाती नहीं।
  .....  उमेश......(२८.०३.२०१६)


मिलती रही निगाहों से निगाहें बार बार
सबब बस यही था मदहोसी का हमारी ।
उमेश श्रीवास्तव


चंचल मन उन्मुख रहे सदा पाप की ओर
धर्म राह पर चल पड़ने को लगे सदा ही जोर ।
 
उमेश श्रीवास्तव

गुरुवार, 25 मार्च 2021

क्या है प्यार

किसी ने जब पूछा, क्या है प्यार ?
चिन्तन तनिक ठिठक गया
चंचल मन तनिक भ्रमित भया
पर प्रज्ञा तनिक सजग हुई
विद्या को उसने दिया यूं जबाब

स्पन्दित दिल की लहर है प्यार
शुद्ध लहू की धार है प्यार
रोशन जग को करती आंखे
उन आंखों की ज्योति है प्यार
बन्द कली प्रमुदित हो चहके
नर्म,गर्म वो दुलार है प्यार

अंग अंग उन्मादित कर दे
चेहरे पर आतुरता भर दे
अबूझ प्यास सा जीवन कर दे
चिन्तन को भी मोहित कर दे
जीवन की हर दशा दिशा  को
एक राग से गुंजित कर दे
परमात्म जगत से प्रतिध्वनित हुई
दो आत्म जगत का राग है प्यार

उमेश कुमार श्रीवास्तव , 23.03.17 जबलपुर

गजल

गजल

मैं चाहता बहोत हूँ, खोया रहूं तुझी में
पर करूं क्या मैं, तेरा , ये गुरुर रोक देता ।

कहने को बंदिशें हैं , जमानें की हर तरफ
है मजाल क्या किसी में ? तेरी बंदगी रोक देता ।

सरफरोश हूं मैं तेगे जुनू है अब तक,
रुकता नहीं मैं अब तक,जो तू ही न रोक देता ।

मिलते नहीं ऐसे,अब सरफरोश दिवाने
जाना जो तूने होता, तो यूँ न टोंक देता ।

जन्नत की चाशनी गर, ये हुश्न है तुम्हारा
चखने को स्वाद इसका क्यूं  , मरनें नहीं है देता 

उमेश (२६. ०३. २०१६)

सोमवार, 22 मार्च 2021

होली

सभी को मंगल हो,ये होली , 
उमंग मिली,भंग की गोली,
टेसू सा सुर्ख रहे जीवन
चहुं दिश गूंजे , हंसी ठिठोली
     उमेश

शुक्रवार, 12 मार्च 2021

होली के रंग सब के संग

होली के रंग सब के संग

होली के रंग में
रंगीली उमंग में
आपका भी साथ हो
दिलों की ही बात हो
नयनों में प्यार हो
रंगों की बहार हो
हाथों में गुलाल हो
चेहरे सब के लाल हों

फागुनी बयार में
सुनहरी एक तान हो
झूमते बदन के संग
खिलती मुस्कान हो

यार हो प्यार हो
दुलार ओ सत्कार हो
जिन्दगी की रंगीनियों की
खुली इक दुकान हो

बांटिये खुले खुले
बन्द न कोई प्राण हो
प्यार भरे रंग सब
न दिल में कोई त्राण हो

हरे नीले पीले के संग
गुलाबी भी श्रृंगार हो
दिलों में भरे उंमग
लाली लिये प्यार हो

रिस्तों की खटास पर
मिठाइयौं की मार हो
मिटा दो खटास सब
होली की पुकार हो

गले लगा प्रिये सभी
रंग दो सभी चुनर
न हो अलग थलग कोई
बस प्यार की खुमार हो

आओ खेले होली हम सब
राधा कान्हा बन बन
प्रेम जगे धरती पर सात्विक
बने धरा वृन्दावन

सबके जीवन में खिल जायें
सतरंगी  फुलवारी
सुख की उझास यूं फैले
मिटे दुःखों की अंधियारी

सभी गुरु जन को सादर नमन के साथ, बन्धुओं को सादर ,एंव कनिष्ठ जन को सस्नेह होली का अमिनन्दन एंव मंगल कामना ।

उमेश श्रीवास्तव  जबलपुर १३.०३.२०१७

गुरुवार, 11 मार्च 2021

मैं प्यार हूं

मैं प्यार हूं, 
क्या तुम भी कहोगी ?
मैं बहता तरल हूं , 
क्या तुम भी बहोगी ?
मैं प्यार हूं , क्या तुम भी कहोगी ?

बसन्ती है रंगत
मेरे गात की
मादक-मोहनी छवि
मेरे जाति की ,
क्या रंगत मे मेरी 
तुम भी घुलोगी
उन्मत्त हो कर
मुझ संग चलाेगी ?

वीणा की धुन सी
वाणी है मेरी 
मधु चासनी सी
वचनों की लड़ियां
सुधा के बिना
हैं कुपोषित ये सारे
क्या लता सोम बन तुम
पोषित करोगी ?

है पथ ये दूभर
पर,मादक डगर है
कटंक भरा पर
सुरभित भ्रमण है
चला जो भी इस पर
डगमग ही डगमग
सहारा मिला तो
सुहाना सफर है
क्या मेरे संग मेरी
हमडग तुम बनोगी ?

जब से धरा है
भटकता रहा हूं
टूटता भी रहा हूं 
बिखरता रहा हूं
जब भी मिली तुम
संवर भी गया हूं
प्रेम के ही सहारे
निखर भी गया हूं 
क्या नयनों की अमी को
अधरों पे ला के
मेरे प्राण मुझको अर्पित करोगी  ?

उमेश कुमार श्रीवास्तव
केराकत , जौनपुर
दिनांक : ११.०३.२०२१.



बुधवार, 10 मार्च 2021

ग़ज़ल : कहाँ से लाए हो चुरा के

ग़ज़ल

कहाँ से लाए हो चुरा के इन नज़रो को 
चुरा लेती हैं  जो हर दिल करीने से

पलक के पर्दों को यूँ आहिस्ता उठाती क्यूँ हो
कहीं डर तो नही , कोई दिल फिसल न गिरे

तीखी नही जो सीधे बेध देती है
खंजर सी तिरछी नज़र से देखा न करो

कहने को लाख कहे झील या दरिया
हमे तो जाम-ए-हाला ही नज़र आती है

क्या कम तेरा हुस्न खाना खराब करने को
तीर-ए -नज़र के वार से हो क्यूँ विस्मिल हम

यदि चाहते हम भी हुस्न का दीदार करें
इश्क की चासनी भर इनको झुका लो ज़रा

                                      उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल : तरासते रहे औरों को

ग़ज़ल

तरासते रहे औरों को , कमियाँ निकाल निकाल
गर खुद को तरास लेते हर दिल अज़ीज होते

औरों ने चाहा जब जब हमको तरासना
अपने गुरूर में हम आपा रहे हैं खोते

हमने तो जाना ये ही हम से भला न कोई
औरों की मज़ाल क्या जो कह दे हमे हो खोटे

हम जान ये रहे थे मसहूर हो रहे हैं
बदगुमानियों में शायद अब तक रहे हैं सोते

ऐ जिंदगी तुझसे बस एक ही गिला है
क्यूँ शामिल किए नहीं, जो सच्चे मीत होते

तरासते रहे औरों को , कमियाँ निकाल निकाल
गर खुद को तरास लेते हर दिल अज़ीज होते

उमेश कुमार श्रीवास्तव ( ११.०३.२०१६)

सोमवार, 8 मार्च 2021

सच की तलास

सच की तलास 

 

सच , मैं जो हूं 

मैं जानता हूं
सच , तुम जो हो
तुम जानते हो ၊

सच , मैं जो नहीं
वो तुम जानते हो
सच , जो तुम नही
वो मैं जानता हूं ၊

सच , तेरा जो अन्तस
तू जानता है
सच , मेरा जो अन्तस
मैं जानता हूं ၊

सच , तेरा जो अन्तस
न तू मानता है
सच , मेरा जो अन्तस
वो,न मैं मानता हूं ၊

सच , ना तू बदल सकता
सच , ना मैं बदल सकता
चल, बदलता मैं तुझको
तू , मुझे बदल देना  ၊

उमेश
शिवपुरी
दिनांक ३.३.२१

मंगलवार, 2 मार्च 2021

स्वागत पलास फिर आये तुम

स्वागत पलास फिर आये तुम


स्वागत पलास फिर आये तुम
कृष्ण आवरण भेद, 
मृदु, मंद मंद मुस्काए तुम,
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

स्वर्णिम कपोल,रक्तिम अधरों पर,
कृष्ण मेघ जो छाये हैं,
श्रृंगार किये पर, व्यथित ह्रदय हो ,
हो कहां वसन गंवाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊


टकटकी लगाये दृग लगते हैं,
जिनमें विरही आश पले,
विरह व्यथा की झांकी है क्या ?
क्यूं थोड़े अलसाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

सुलग रहा है तन मन सारा,
टपक रही है प्रेम सुधा,
ह्रदय रक्त से, लीप के आंगन,
हो किसकी आश लगाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

कौन प्रिया है ? इतनी निष्ठुर !
प्रणय तेरा ना जान सकी ,
रसिक वियोगी, तुम तो योगी,
हो किसकी अलख जगाये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

गिरि ,पठार अरु समतल वसुधा,
तुम सबमें इकसार जिये,
आज हुआ क्या ! क्यूं विचलित हो ?
क्यूं अपना धैर्य गवांये तुम ?
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

मदन बांण ले संधान करो बस,
हृदय बसी प्रिय के हिय को,
प्रेम सुधा से सींच उसे फिर,
वामा आज बना लो तुम ,
स्वागत पलास फिर आये तुम ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी
दिनांक ०२.०३.२०२१








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