सोमवार, 29 जून 2020

गज़ल၊ उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा

गज़ल

उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।

काश ! हम भी जानते दुनियायी फलसफा
बस कह लीजिए यूं,न जज्बातों से खेलना आया ।

गैर तो गैर है , वो क्या समझेंगे दर्दे जिगर
अपनों की आश पे अक्सर हमें रोना आया ।

यूं तो कहते हैं सभी ,व्यापार रिस्तों का ज़हां
फिर मेरा मोल कोई क्यूं ,आज तक न देने आया ।

आज जो टूट विखरने को मचलती है जां
कफ़स मजबूत तू कर ,ये कौन यूं कहने आया ।

मैं गुल बनू या ख़ार, है किसे परवा इसकी
आज की रात का पैगाम ये  क्या तूफां लाया ।

उदासियों के सहरा से जब भी बच निकलना चाहा
अपनो ने, ही दी , यूं हवा कि लौट फिर वहीं आया ।

उमेश श्रीवास्तव, जबलपुर, दि० ३०.०६.१७

रविवार, 28 जून 2020

गज़ल

जुल्फों की तिरी सबा से , मेरा प्यार झिलमिलाये
तेरी चश्मों की झील में , मेरी किस्ती मौज लाये ၊

रुख की मयकदा तो काफ़िर बना रही है
प्याले लब तेरे ये , मेरे होश हैं उड़ाये

शनिवार, 27 जून 2020

"प्रेम" स्पन्द ही जीवन

यदि किसी हृदय में 
स्पन्दित होता है, प्रेम ,
ना जाने क्यूं ,
हृदय मेरा
अनायास ही , 
गीत प्रेम का गा उठता है ၊
और बनाने पुष्प ,
हर मुकुल ह्रदय को,
एकाकी ही,भ्रमर सदृष्य
गुंजित हो उठता है

घृणा ,क्रोध की
छल , कपट की
लोभ , मोह की
जो अनगिनत तरंगे
चहुदिश छाई
उन घोर तमस की 
बदली से,
तड़ित सदृष्य
प्रेम रश्मि मोहित कर देती
और ह्रदय मेरा
दीपस्तम्भ सा
उसे भेजता सन्देश 
समधरा पर
आने को
प्रमुदित हो,
"जीवन मधुमय प्रेम पुष्प"
यह बतला 
तम के कंटक दलदल से
ना घबराने को ၊

संघर्ष सदा है जीवन
पर आनन्द वहीं है
संघर्षहीन पथ 
रस स्वाद औ गंधहीन
बस भोग देह ,
वह ,
जीवन आनन्द नही है ၊

प्रेम सुधा से सान 
ईश ने यह गेह रची है,
जगा उसे ,
खुद जाग ,प्रेममय कर,
हर क्रिया ,कर्म को,
अमर नही तू , तू भी जायेगा ही,
पर,संघर्षों से जीवन के,
यूं हार मान कर,
अपने ही हाथों ,
अपने,अद्‌भुत जीवन को
ना मिटा इसे ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक 27.06.2020



बुधवार, 24 जून 2020

मेघ फुहार

मेघ फुहार

सरसराती पवन
गड़गड़ाता गगन
चहुदिश चमकती तड़ित
अठखेलियाँ की उमंग में
बूदों का अल्हड़पन

बूढ़ेपेड़ों का मन
शाखाओं पर लदी
पत्रवल्ली के संग
अह्लाद का अतिरेक कर
झूमता सा

नव पौध देखो वनों की
भय मिश्रित कौतूहल लिए
झुक रहे सर्वांग से
माँ प्रकृति की गोद में
भीगे बदन

परिहास करती
माँ भी कभी,दिखता यही
पर सीख देती ज्यूँ कह रही
तनना ही नही 
झुकना भी 
जीवन की कला है,
 सीख ले
सुख में ही नही 
कठिनाइयों में भी 
मुस्कुरा जीना पड़ेगा

आँचल में लिपटी दूब
गिरती बूँद से
पवन के वेग से
कर रही अठखेलियाँ
बिन डरे
जिंदगी है धरा से
उड़ ना अधिक
उड़ जाएगा
लोट जा मृदा में
जीवन संजोने के लिए
तृप्ति व आनंद
इसमे ही तू
पा जाएगा
प्राणियों में प्राण 
जग से हैं गये 
भावना से भय
भग से हैं गये
खग बृंद पुलकित
झूमते
यद्यपि , भीगे पखों से
डालियों पर, बस घूमते
उड़ान की चाहत नही,
बस भीगने की
रूखी में ज्यूँ स्वाद
छप्पन भोग की

जल ही जीवन 
जानता चर चराचर
बादलो से नेह का कारक यही
देख इन नीर दूतों को तभी
झूम जाते इस धरा के 
प्राण सारे

प्रेमियों के प्रिय जैसे
जीवन के आधार
मेघ धरा पर पाते 
तुम भी
यूँ ही 
प्राण जगत से 
अगिनित प्यार

       उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २५.०६.२०१६