मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नया वर्ष

नया  वर्ष 


आज के गोबर ने 
लगभग बुझ चुके 
कचरे के ढेर के नज़दीक
खिसक
अपने चिथडो को खुद से
लपेटते हुए
लड़ते हुए 
हड्डियो को सालती
सर्द हवाओं से
अपने हाथो से खाली पेट को दबा
सिकुड कर गठरी सा बनाते हुए
चेहरा उठा पूछा
बाबू..!
ये नया वर्ष क्या होता है ?
बाबू ने 
पसरे हुए 
गर्म राख की ढेर पर
ऊंघते हुए से
दिया जबाब
जिस दिन सुबह
होटलो, ढाबो बड़ी हवेलियो के बाहर
कूडो के ढेर पर
पेटभर
खट्टे मीठे चटपटे हर तरह के
खाने की 
अनबूझ चीज़ें मिलें
जिनके लिए 
कुत्तो से झगड़ना ना पड़े 
उस दिन को 
नया वर्ष कहते हैं
बेटा अब सो जा
कल ही नया वर्ष है
  
       उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

सफलता

सफलता 


मुझे मालूम है 
तुम आओगी मेरे पास 
स्वयं को खोजने 
क्यो कि मेरे बिना 
तुम्हारा अस्तित्व  ही 
कहाँ है ,
इस जहां में 
बस 
इसी के सहारे 
निश्चिन्त सा 
कर्म पथ पर 
बैठा रहा हूँ ,
रहूंगा, कि,
तुम आओगी 
छोड़ जाओगी कहाँ 
इस वीराने  में 
मुझे। 

मैं जानता हूँ 
तुम ले रही हो परीक्षा 
धैर्य की  मेरे 
यह सही ,कि मैं अधीर हूँ 
जल्द पाना चाहता हूँ ,
तुम्हे 
इसलिए ही सदा 
खोता आया हूँ 
और तुम दूर ही दूर 
रहती आई हो 
मुझसे 

पर ,
यह भी सत्य है 
अटल 
कि , तुम भी 
लौटोगी मूल की तरफ 
बरगद कि लटो  की तरह 
क्यूँ कि तुम रही हो 
युगो से ,
मेरे सीने  में दफ़न 
धड़कनो की तरह 
मेरी,
रह न सकोगी 
एकाकी , बिछड़ कर 
मेरी धड़कनो से 

अब तो प्रतीक्षा है 
बस उसी घडी की 
जब फिर से सन्नाटा 
बोलेगा 
ले तेरे सात सुरो की बोली 
गमकेंगी जब 
हर दिशाएँ 
तेरे यौवन पुष्प की 
महक से 
मेरा जीवन भी तब 
चहकेगा 
कटेगी हर ,
प्रतीक्षा की घडी 

        उमेश कुमार श्रीवास्तव  २६. ०१. १९९१ 


अबूझ अन्तस

अबूझ अन्तस 

हर सुन्दर प्रतिमा क्यूँ ,
लगाती मुझको अपनी सी 
हर कुरूपता मुझको ,
लगती बेगानी क्यूँ है। 

शान्ति और नीरवता 
क्यूँ मेरे मन को भाती 
क्यूँ चहल पहल सतरंगी 
सदा मुझे छल  जाती। 

क्यूँ बींधे  कंटक तन से 
फूलो पर लिखता हूँ 
जब चीख रही मानवता 
क्यूँ प्रेम काव्य गढ़ता हूँ। 

क्यूँ शीतलता मुझको 
सदा रही है प्यारी 
अनुताप भरा यह जीवन 
अनुर्वर सम पड़े दिखाई। 

अय बता मेरी प्रेरणा तू ,
क्यूँ छल करती जाती 
श्री हीन  पड़े जीवन को 
क्यूँ , क्रूर बनाती जाती। 

                  उमेश कुमार श्रीवास्तव ०६,०१,१९९१ 

फिर आया नया वर्ष !


फिर आया नया वर्ष !

इतिहास बनते  वर्ष ने 
नवजात को 
इक पोटली दी है 
जहर की। 
जिसमे ,
जहर की 
अनेको किस्में 
विशुद्ध रूप में अपने, 
विदयमान हैं 
यथा :
दंगा ,साम्प्रदायिकता 
भ्रष्टाचार , लूटपाट 
बालात्कार 
साथ ही दी है 
देश के सिर पर 
लटकती 
विभाजन की  कटार 

देखना है 
नवागन्तुक 
नवजात , शिशु 
कैसे इन विषों का 
शमन करता है 
शिव कहलाने को 
या फिर चुपचाप 
शैशव , युवा औ जरा 
अवस्था बिता 
इस पोटली के वजन में 
कर वृद्धि 
झुकाये सिर  
गत वर्ष कि तरह ही 
स्वयं भी 
अपने अनुज के 
गोद  में डाल 
करता पश्चाताप 
डूब कर ग्लानि में 
गुजर जाता है 
बनने को  इतिहास 
पूर्वजों की तरह

                उमेश कुमार श्रीवास्तव  

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"


नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष" 
वही रश्मि औ वही किरण है 
वही धरा औ वही गगन है 
वही  पवन है नीर वही  है 
वही कुंज  है वही लताएँ 

पर्वत सरिता तड़ाग वही हैं 
 वन आभा श्रृंगार वही है 
प्राण वायु औ गंध वही है 
भौरो  की गुंजार वही है 

क्या बदला है कुछ,नव प्रकाश में 
ना ढूंढो उसको बाह्य जगत में 
वहाँ मिलेगा कुछ ना तुमको 
डूबो तनिक अन्तःमन में 

क्या कुछ बदला है मन के भीतर ?
जब आये थे इस धरती पर 
क्या वैसा अंतस लिए हुए हो ?
या कुछ बन कर ,कुछ तने हुए हो !

अहंकार , मदभरी लालसा 
वैरी नहीं जगत की  हैं यें  
यही जन्म के बाद जगी है 
जो वैरी जग को ,तेरा कर दी है 

यदि विगत दिवस की सभी कलाएँ 
फिर फिर दोहराते जाओगे 
नए वर्ष की नई किरण से 
उमंग नई  क्या तुम पाओगे 

जब तक अन्तस  अंधकूप है 
कहाँ कही नव वर्ष है 
अंधकूप को उज्जवल कर दो 
क्षण प्रतिक्षण फिर नववर्ष है 


हर दिन हर क्षण, जो गुजर रहा है 
कर लो गणना वह वर्ष नया है 

हम बदलेंगे  युग बदलेगा 
परिवर्तन ही वर्ष नया है 

गुजर रहे हर इक पल से 
क्या हमने कुछ पाया है 
जो क्षण दे नई चेतना 
वह नया वर्ष ले आया है  


मान रहे नव वर्ष इसे तो 
बाह्य जगत से तोड़ो भ्रम 
अपने भीतर झांको देखो 
किस ओर  उझास कहाँ है तम 

अपनी कमियां ढूढो खुद ही 
औरो को बतलादो उसको 
बस यही तरीका है जिससे 
हटा सकोगे खुद को उससे 

सांझ सबेरे एक समय पर 
स्वयं  करो निरपेक्ष मनन 
क्या करना था क्या कर डाला 
जिस बिन भी चलता जीवन 

कल उसको ना दोहराऊंगा 
जिस बिन भी मैं जी पाऊंगा 
आत्म शान्ति जो दे जाए मुझको 
बस वही कार्य मैं दोहराऊंगा 

 राह यही  नव संकल्पो की 
लाएगी वह  अदभुत हर्ष 
तन मन कि हर  जोड़ी जिसको 
झूम कहेगी नया वर्ष 

आओ हम सब मिलजुल कर  
स्वागत द्वार सजाएं आज 
संकल्पित उत्साहित ध्वनि से 
नए वर्ष को लाएं आज 

   उमेश कुमार श्रीवास्तव 

रविवार, 29 दिसंबर 2013

गीत नया क्या गाऊँ मैं

गीत नया क्या गाऊँ मैं



गीत नया क्या गाऊँ मैं
कुंठित, कलुषित चित्त लिए
रजनीचर जैसी वृति लिए
भटक रहा, ये जीव धारा पर
ऐसी जीवनचर्या लख
देख दुर्दशा मानव की
फिर कैसे मुस्काऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

अनन्त, अबूझ अभिलाषा है
सब पा लेने की मद-आशा है
दूजो की बलि देते हिचक न हो
यह जीने की परिभाषा है
ऐसे भावों के साथ आज
कैसे सुर  मिलाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

है जीवन, पशुवत आज हुआ
चहूँ दिश जंगल राज हुआ
मौनी बस साधु समाज हुआ
असुरो के बढ़ते नाद मध्य
सुर-छन्द कहाँ से लाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

जग वैरी हुआ, "अनुशासन"
अधिकार बढ़े कर्तव्य घटे
सबकी अपनी मनमानी ही
जीवनचर्या की राह बनी
दुःशासन, दुर्योधन , की राहों से
किस मंज़िल की आश लगाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं


देख मानवी चाल चलन
माँ प्रकृति राह बदलती अब
हर क्रिया प्रतिक्रिया से आपूरित
माँ, छिपा रही अपनापन अब
माँ का दोहन जो करते बन हवसी
क्यूँ उन संग राग मिलाऊं मैं ?
गीत नया क्या गाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

अनुपमा

अनुपमा


सावन की शर्मीली छुईमुई
या बसंत में खेतो का सृंगार
तुमको दूं मैं क्या उपमा
प्रमुदित दिल का है सभी द्वार

पतझड़ में प्रकृति सौंदर्य सदृश्य
फूली टेशू की डाली हो
या कामदेव को रिझा रही
रति कोई मतवाली हो

घन सदृश्य कुन्तल बिच में
खिला प्रसून कमल का है
या रजनी के अंक मध्य
बाल्य रूप दिवस का है

नयनो की अमी है ओठो पर
या कामदेव की ज्वाला है
या अधरो पे लेती हिलोर
सकल निरधि हाला है

है सकल अंग अनुपम तेरा
इनकी उपमा अब कैसे करूँ
बस इतना सोच रहा अब हूँ
मधुकर बन मधु मैं चख लूँ

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

पास आ के देखिए , मेरे दिल को छू कर आज
धड़कन नहीं मिलेगी , सिवा नाम के तुम्हारे

मगरूर हो रही क्यूँ राहे रूख़ बदल
हर राह आ मिलेगी नशेमन के मेरे द्वारे

कितने भी कर लो परदे, कर लो खड़ी दीवारें
यह रूह राहे इश्क में , ढा देती सभी दीवारे

कभी हुस्न के गुरूर से , पलट, सोच देखिए
क्या है कमी हममे, जो काबिल नही तुम्हारे

तड़पोगे जिंदगी भर, मुहब्बत का नाम ले
गुज़रा नही है वक्त, कर दो दिल नाम पे हमारे


                       उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल

ग़ज़ल

है कितना अजब सफ़र जिन्दगी का
हर मोड़ तल्ख़, है कहर जिन्दगी का

है सब कुछ यहाँ इस लम्बे सफ़र में
है जोखिम भरा कारवाँ जिंदगी का

हैं अश्को भरे गम के दरिया अनेको
वही पार पहुँचा जो रहा मुतमई सा

तब्बस्सुम की छटा ले हैं गुलशन अनेको
जो सहे दर्द खारे है गुलशन उसी का

है तकदीर उसी की जमाना उसी का
जो जिया जिंदगी को सदा बंदगी सा

                  उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

हुजूर, अर्ज़ है !

हुजूर, अर्ज़ है !



लोग पी जाते प्याले पे प्याला नशे के लिए
तेरी इक नज़र से मदहोश हुआ जाता मैं



हर अदा तेरी,मय में,डूबी हुई
डर है कहीं मयकश न बन जाऊं मैं



रंगे हया से नहाया ये मुखड़ा तेरा
बदगुमानी कराता शबनमी कमल की



सब कहते चाँद बादल में छिपा है
मैं तो कहता तेरी ज़ुल्फो ने ढका है



कौन कहता आज अमावस की रात है 
मेरी चाँदनी तो मेरे साथ है

६ 

तेरी अदू हैं तेरी यादे
कहीं मैं उनसे ही प्यार करने न लगूँ



तुझे देख नहाता जमुना जल में
बदगुमानी हुई ताज महल की



हम तो करते कोशिश उन्हे भूलने की अक्सर
वो जो हमें शायद याद करते ही नही

९ 

अभी हो सम्मुख पर जाते हो  
मेरे दिल को हुलसाते हो  
फिर कहते ना नीर बहाओ  

तुम भी कितना तड़पाते हो

१० 

दर्द कितना है हर अल्फ़ाज़ बता जाता है 

हर्फ-दर-हर्फ इक हूक् उठा जाता है

चश्म दर्द से नम हैं खुशियो से नही 

अश्क के गिरने का अंदाज बता जाता है
                                     

                                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरी व्यथा

मेरी व्यथा

दुनिया की
तेज रफ़्तार दौड़ नें
(सभ्यता,संस्कृति के विपरीत)
आधुनिकता की ओर
पीछे छोड़ दिया है
मुझे
काफ़ी पीछे
जहाँ से
रास्तो के निशाँ
मिट चुके हैं
गर्दो-गुबार में
जिनके सहारे ही
मैं 
उस दिशा की ओर
अग्रसर हो सकता
जिस ओर
जन समुदाय
अपनी रफ़्तार नापने को
गतिमान हुआ था

मैं अब भी
प्राचीर से चिपका बैठा हूँ
गौरवान्वित होता
अपनी वैभव पूर्ण
प्राचीन, खंडहर बनते
सभ्यता के विशाल
प्रासाद से,
शायद यह भूल कि,
यह कलयुग है
जहाँ आज का महत्व है
कल का नहीं

कल के सांस्कृतिक मूल्य
आज पुरातन हो
बू कर रहे हैं
पश्च-गामी समाज को
हर प्रयास
सामान्जस्य का , मेरा
निरर्थक हो रहा
स्वयं को गतिशील करने का

मेरा मोह
(अपनी सभ्यता, सस्कृति का)
मेरा भय
(पिछड़ने का , कट जाने का समाज से)
दोनो का द्वंद
मुझे नज़र आता
कुरुक्षेत्र स्वयं मे ही
जहाँ 
नैवैद्य बना
होम कर रहा हूँ
स्वयं को  ही मैं

कब और कहाँ किस तरह
उस बिंदु को पाऊँगा
जहाँ युद्ध और शान्ति में
सामान्जस्य बिठा
गतिशील करूँगा
स्वयं को
समाज मे स्थापित होने को
स्वयं को
सामाजिक जन्तु कहलाने को

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूँ
प्यार , किसी का
टूट कर
जिसकी प्रेम-रश्मि
ढक ले मुझे
अस्तित्वहीन कर

मैं चाहता हूँ
खोना , उसी में
सिर्फ़ उसी का हो कर
धरा-गगन के मेल
क्षितिज सा
इकसार हो कर

मैं चाहता हूँ
डूबना , आँखो में
किसी के ख्वाब बन कर
तृप्त करती हों
जो मेरी
चेतना की क्षुधा को

मैं चाहता हूँ
छाँव , शीतल
कुन्तलों के घन
ढके मुझको
सो सकूँ मैं जहॉं
निश्चिंत हो कर

मैं चाहता हूँ
नीर , सूनी आँखो में
किसी की
यादों में , किसी के
स्वप्न ले कर

मैं चाहता हूँ
स्पर्श , संवेदनाओं भरा
ठोकरो से मिले
ज़ख़्मो पर
औषधि लेप बन कर

मैं चाहता हूँ
प्रेरणा , संघर्ष में
इक प्यारी उत्प्रेरणा
पा सकूँ , जिसके सहारे
मंज़िल का दर

मैं चाहता हूँ
पाना किसी को
संपूर्ण , खोजने को
स्वयं को, खो चुका जिसे मैं
राहों में टूट कर

मैं चाहता हूँ
कहना , व्यथा
हिय की
खुल किसी से
स्निग्ध उसके
निश्छल मुस्कुराते
नयन सम्मुख

मैं चाहता हूँ
समर्पण, संपूर्ण
किसी का
जिसको कर दूं
समर्पित स्वयं को
अबोध बन कर

पर चाहतें तो चाहतें हैं
वे मिली कब
किसी को , उस रूप में
तभी तो ,
चाहने की चाह को
मैं चाहता हूँ

...उमेश श्रीवास्तव...

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

ग़ज़ल


ग़ज़ल 
रुक गई है ऩज़र तुम्हे देख कर
यूँ न अलको को अपनी धुला कीजिए

आईने की मुझे अब ज़रूरत नहीं
न पलको को यूँ बंद किया कीजिए

ये क्या बात है हो रहे क्यू गरम
है खता क्या हमारी बता दीजिए

तेरा भीगा बदन है सुलगने लगा
आ पनाहो में मेरी जगह लीजिए

है शर्मो हया की ज़रूरत ही क्या
लग गले से इन्हे हटा दीजिए

..उमेश श्रीवास्तव...29.03.1992

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

अनुभूति "तेरी"



अनुभूतियों के झरोखों से
जब कभी भी मैं,
लखता हूँ,
तेरे अतिरिक्त,
रिक्त सी प्रतीत होती है
सारी सृष्टि.

इक विवर की आवृति सी
नज़र आती हो तुम
जिसने मेरे सम्पूर्ण वातावरण को
अपने में समाहित कर रखा हो

हर रश्मि मेरे चिंतन की
तुमको ही समर्पित हो,
अपना प्रभाव खो बैठती है
या यूँ कह लीजिए
तुम तक जा
समाधिस्थ हो जाती है

हर करण-कारण में
तुम और केवल तुम ही
दृष्टिगोचर होती हो मुझे
हर आचार व्यवहार और संस्कार में
तुममे ही आबद्ध स्वयं को पाता हूँ
ज्यूँ तुममे ही विलीन हो जाता हूँ

शिव शक्ति के बिना शव है
सुनता आया था
पर प्रत्यक्ष की अनुभूति
अब पा रहा हूँ
आनंदित हूँ, हूँ प्रमुदित भी
अपनी शक्ति में समाहित हो
प्रत्यक्ष में भी आज , जो
शव से शिव बनता जा रहा हूँ

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव  २८.०१.१९९७

ग़ज़ल




करते हो प्यार कितना अहसास कराइये
गुल बन ना बैठिए, ज़रा, खिल तो जाइए

जल जाएगा ये दिल, जो रीते रहे जलद
बरखा की बन बदरिया, ज़रा , झूम जाइए

सब कुछ किया हमने,मगर,जगा सके न हम
खुद अपने प्यार को ज़रा, अब तो जगाइए

तुमको हंसाने के लिए रोना हमे क़ुबूल
मेरे लिए भी ज़रा , कुछ कर दिखाइए

लुट जाएगी बगिया मेरी , यूँ जी न सकेंगे
जां मेरी जानम मेरी , कुछ जान जाइए

टूटते बिखरते रहे अब तलक तो हम
कुछ सुकू मिले मुझे , दामन बिछाईए

करते हो प्यार कितना अहसास कराइये
गुल बन ना बैठिए, ज़रा, खिल तो जाइए

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

शेर-ए-दिल




किसी की याद में हमने जमाने को नही छोड़ा 
किसी की याद ने हमसे जमाने को छुड़ाया है.....उमेश

बुत से बने खड़े हैं मुन्तजर में हम
कि, वो देखते हर बुत करीने से छू छू....उमेश

खुशबू में डूब कर यूँ गुज़री है इधर से
ज्यूँ सबा गुज़रे चंदन के दरख्त छू ....उमेश

किसने कहा की यार ये गरमी का है मौसम
उनकी नज़र पड़ी औ हम काँपने लगे ....उमेश

मयकश बने न क्यूँ हर आम-वो-खाश आज
जब चल रही सड़क पर मीना-ए-मय हर तरफ....उमेश

उद्दीपक हो तुम

उद्दीपक हो तुम

ज्यूँ संपूर्ण करण-कारण
शान्ति को प्राप्त हो गये हों
घटना शून्य हो,नीरव बन गया हो,
जगत !
ऐसा क्यों प्रतीत होता है मुझे,
जब कभी भी तुम
दूर गोचरता से होती हो मेरे


क्यूँ ऐसा पाता हूँ
कि मैं निष्क्रिय हो गया हूँ
या जो कुछ भी कर रहा हूँ,
केवल कल-पुर्जों सा
ज्यूँ संवेदनाओं से, वातावरण के,
दूर का भी रिश्ता न रहा हो मेरा


ऐसा लगता है,
जगत क्रियात्मक शून्यता से
घिर गया हो
विध्वंस भी थम गया हो
मात्र नयन पटल से 
तुम्हारे ओझल हो जाने से
जबकि मैं यह भी जानता हूँ , समझता हूँ
महसूसता हूँ, कि,
तुम और भी सांसो के करीब आ गई हो
इन दिनों
या यूँ कहो
सांसो में समा गई हो मेरे


क्यूँ लेखनी मेरी तुम्हारे सामीप्य में
तुममे ही तिरोहित हो गुम जाती है
जैसे तुम हो तो वह नही
और तुम्हारी दूरियाँ फिर ला देती हैं उसे
समीप मेरे
चल पड़ती है, मुझे ले कर वह
तुम्हारी ओर
ज्यूँ तुम जहाँ मैं भी पहुँचू वहीं


शायद तुम्हारी कोई परम सखी है
लेखनी मेरी
जो नही चाहती व्यवधान
सखी के प्रिय-मिलन में
तभी तो अदृश्य हो जाती है
आते ही समीप तुम्हारे
हमारे मध्य से
और बनते ही दूरियाँ
तुममे और मुझमे
कहीं भी कैसे भी
प्रगट हो फिर चल पड़ती है
ले कर मुझे 
तुम्हारी ओर


फिर उन्ही विषाद के चरणों से
गुजर रहा हूँ तुम्हारे बिना
निर्विकार और निर्लेप,
भाव-शून्य विवर में
फिर विचर रहा हूँ
लेखनी के सहारे,तुम्हे समीप ला
कर रहा हूँ प्रयत्न, निरखने का तुम्हे
महसूसने को तुम्हे समीप अपने
ऐ प्रिय !

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

०ग़ज़ल



जिंदा है मेरा प्यार उसे यूँ न मारिये
अश्कों से मेरे प्यार को अब तो उबारिये

मिट जाएगी हस्ती मेरी, गर तड़पा करेंगे यूँ
प्यार की किस्मत मेरी, कुछ तो संवारिये

प्यार का खूमार रग रग में यूँ रचा
जाँ पर बनी है अब, मुझको सम्हालिए

तुमको मैने पा, फख्र , तकदीर पर किया
कुछ कर तदबीर मेरी तक़दीर सँवारिये

टूटता बहोत कुछ, जब रोकती हो तुम
साहिल पे ला, मुझको, यूँ तो न मारिए

जिंदा है मेरा प्यार उसे यूँ न मारिये
अश्कों से मेरे प्यार को अब तो उबारिये

                  उमेश कुमार श्रीवास्तव २६.०१.१९९७

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मैं और मेरी कविताएँ




मैं सोचता हूँ
कविताओं के विषय में
अपनी उन कविताओं के विषय में
जिन पर मैनें कभी,सोचा नहीं
बस जिया है स्वयं को
उन कविताओं के पात्रो के रूप में

कुंठाएँ शायद यूँ ही
बहा करती है
कविताओं के माध्यम से
अभिलाषाएँ यूँ ही
परवान चढ़ती हैं
कल्पनाओं की लता बन

बस यही कारण है कि
कभी सोचा नही
अपनी कविताओं पर
बस जिए चला गया
उसके, मधुर ,शुष्क,कोमल,तीक्ष्ण
धरा पर.

क्यो कि ,
सोचने में दर्द होता है
जीना, तो बस बहना है
तरल सा
जिस दिशा में बहाव हो
स्वयं ही निकल पड़ते हैं हम
कौन सा, उलटे बहाव में
चलना है हमें

पर आज जब
सोचता हूँ
अपनी उन्ही कविताओं पर
जिनमें शायद मैं ही
कहीं छिपा हूँ
तो पाता हूँ असहज
स्वयं को
कितनी आकांक्षाएँ,
अभिलाषाएँ और लक्ष्य
पाले थे
इस नामुराद नें
जिन्हे जीना पड़ा
कल्पनाओं के सहारे

क्यो कि यथार्थ
बहोत ही सख्त था
खुरदरा था
सह न सकता था मैं
टूटने का दर्द
इसलिए
भ्रम को सहारा बना
गढ़ता रहा
कविताओं में इक
इंद्रजाल सा
नवीन संसार

आज जब गुजर चुका है
इक लम्बा अंतराल
उम्र के इस पड़ाव पर
कविताओं के जंगलो में खड़ा
स्वयं को पाता हूँ नग्न
हम्माम में ज्यूँ
औ मुह चिढ़ाती सी
हर इक पंक्तियाँ, अब
कह रही हो ज्यूँ
कौन हो तुम!
हम तुम्हे जानती भी नहीं
इतने दिनो से हर कोशिशें
बेदम हुई, पर 
तुम्हे,पहचानती भी नही
क्यूँ कहते हो, तुम बसे हो
हममें
जब कि हमारे लिए
इक अंजान हो तुम

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल




हम से तो अच्छे वो मयख्वार साकी
मासूक को लब से लगा लेते हैं

ग़मे इश्क को मिलता नही कोई रफ़ीक
जो मिलते हैं झट पर्दा गिरा लेते हैं

मयकश को मिल जाती मय, जा मयकदा
हम तो कूंचे-यार में दिन गुज़ार देते हैं

झूमता मयख्वार, यार सीने से लगा
हमें ख्वाबों से , वो भगा देते हैं

जानते नहीं फन दिलरुबाई का साकी
हम तो शोलो को ही सबा देते हैं


                               उमेश कुमार श्रीवास्तव
                 दिनांक: २४.११.१९८९


आत्मचाह

आत्मचाह

यह इतने मधुर स्वरो में
है कौन दश्तकें देता ?
इस धूल धूसरित घर की
सुध कौन आज है लेता

सच! गर मुग्धा हो तो
तो लौट तदंतर जाओ
मेरी सिसकारी मे तुम
ना मौज मनाने आओ

गर वैभव की काया हो
फटकार लगाता हूँ मैं
जा भाग यहाँ से कुलटा
धिक्कार लगाता हूँ मैं

यदि हो आकांक्षा देवी
तो , साष्टांग तुम्हे है बाला
तुम बिन सुख से हूँ मैं
ना खुलेगा अब ये ताला

हो अहंकार दुहीता तो
ना कोई काम तुम्हारा
मेरा यह एकाकी जीवन
मुझको तुमसे है प्यारा

यदि काम वासना हो तो
हो ग़लत द्वार पर आई
इस ईश मगन कुटिया में
ना ठौर मिलेगा भाई

गर चंचलता की आशा हो
नैराश्या जाग जाएगा
चुपचाप लौट तुम जाओ
वैराग्य जाग जाएगा

गर पुरुषार्थ प्रेरणा हो
क्यू खड़ी द्वार पर हो तुम
तुमको ही लखता था मैं
क्यू छिपी खड़ी यूँ हो तुम

आओ आओ यह घर तो
तुम को ही ताक रहा था
तम से लड़ने का पौरुष
तुम से ही माँग रहा था

ले कर अपनें अंको में
पुरुषार्थ जगा दो फिर से
शव होता जाता हूँ मैं
शिव आज बना दो फिर से

...उमेश श्रीवास्तव...30.09.1994

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल


नित दस्तक है कौन लगाता ,मेरे मन के द्वारे पर
गहन तिमिर छाया अब तो, मेरे मन के द्वारे पर

यादें ही हैं अब तो बाकी, तेरे आने जाने की
मैं तो भूला बैठा खुद को, तेरी राह-गुज़ारे पर

सांझ सबेरे जब भी बैठूं, मैं दिल के अपनें द्वारे पर
यादें आ आ ज़ुल्म ढ़ारती, टूटे दिल बेचारे पर

इक रस्ता तेरे घर जाता, दूजा वीरान राहो पर
उहापोह में पड़ी है  कस्ती, कैसे लगे किनारे पर

                                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

धड़कन का गीत




प्यार में ये घड़ी जब आ ही गई
रूप यौवन को यूँ ही खिल जाने दो
जुल्फ को छोड़ दो प्यासे सावन की तरह
दिल को दिल से आज मिल जाने दो

आज की सुर्खियाँ औ ये मदहोसियाँ
कल रहें न रहें ये किसको पता
फिर ये मौसम सुहाना औ हँसी धड़कनें
तन्हाई में क्यूँ हम गुजर जाने दें

आओ मिल कर करें प्यार हम ऐ हुजूर
दिल की धड़कन का संगीत छिड़ जाने दें
पवन भी गर चले मदहोस हो कर
प्यार की खुशबुएं उनमे घुल जाने दे

गर उदासी में डूबी रही इस कदर
तो जवानी यूँ ही गुजर जाएगी
भंवरो के मंडराने से पहले ही साकी
ये कली मुरझा के गिर जाएगी

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

अम्बुराज की मुस्कान

अम्बुराज की मुस्कान


निस्तब्द निरापद पड़ा था पंकज
सरवर मध्य अकेला
अश्रु बने शबनम थे उसके
तम जीवन का मेला
ओठों पर जड़ता निष्ठुर थी
थे थर्राते उसके गात
प्रेम प्यास से शुष्क था मनवा
लगी थी प्रिय दरस की आश
प्रेम रश्मि को लिए अरुण जब
आया धारणी के पास
पुलकित हो विभोर हो उठा
खिल उठी , मिलन की नई आश
रश्मि आ गई चुपके से जब
औ स्पर्श किया नीरज तन
विह्वल हो उठा अम्बुराज
पा सामिप्य जीवन संगिनी
धीरे से मुस्करा उठा अब्द
खिल उठी दिल की पंखुड़ियाँ
करने लगा हास-विलास
कट गई विरह की घड़ियाँ

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

दिलजले शेर

दिलजले शेर
मुझे बदगुमानी थी कि ,देगी वो बोसा
जालिम के लब खुले तो, निकली गालियाँ.

सुबह शिकवा थी उनको , शाम हमसे शिकायत
ना जाने अब क्या चाहती है जालिम .

इक बोसा लिया था मैंने इन अदाओं का
अब तो कम्बख़्त दामन छोड़ती ही नहीं.

थोड़ी जो पी थी हमने नज़रों से तेरी सनम
अब तलक हमको, अपना ख्याल आया नहीं.

तेरी ये अदा ही काफ़ी ,जीने के लिए
बस यूँ ही लब-वो-रुखसार पर तब्बस्सुम खिलने दो.


बदल दो आज तदबीर तस्वीर बदल जाएगी
हमने तो तक़दीर से तस्वीर बदलते देखा है


                                                      
                                                             ......उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

क्रूर यथार्थ

क्रूर यथार्थ

उसके घर
एक,बच्चा जना था
कृष्णांग 
बलिस्त भर का
दुबला पतला
उसकी भूखी सूखी
जनानी नें
मौत के मुख से 
निकल कर

वह खुश था
बहोत खुश
कि उसे नज़र ही न आई थी
अपनी जनानी की
जर्जर काया
हल्दी चुपडा
विभत्स चेहरा

उसकी सोचो ने
रफ़्तार पकड़ ली थी
वह ख्वाबो में
उड़ा जा रहा था
खुली आँखो
कि कल वह बड़ा होगा
और मेरे कंधे से कंधा मिला
मेहनत करेगा
दो जून की रोटी को
और
गृहस्थी की गाड़ी को
नया ईंधन देगा
जो कई दिनो से
बिना ईंधन
मरम्मत के
जर्जर हो चुकी थी
आएगी समृद्धि !

तभी किसी ने उसे
खींचा
धरातल पर, कि,
उनकी गृहस्थी में
अब वह,सिर्फ़ वह
रह गया है,
शेष,
देखने को
स्वप्न
         उमेश कुमार श्रीवास्तव

रेगिस्तान

रेगिस्तान

पलको के भीतर
हर पल
इक किताब लिखता रहता हूँ
सपनो की,
जिसके हर पन्नो के
हर अक्षरो पर
हरियाली की छाप होती है
ओस की बूँदे होती हैं
हर पात्र के चेहरे पर
इक चमक होती है
संतुष्टि की
हर्ष की

इस किताब के हर पात्र
मुझे इस किताब से ही प्यारे हैं
मैं सोचता हूँ शायद
इस जग में मैने,बस
इन्ही के लिए आँखे खोलीं है
और शायद यह किताब भी 
इन्ही की है

पर,
पर इन पात्रों का अनुभव
शायद अनुभव ही बन कर रह जाएगा
क्यूँ की जब
इनके सुख दुःख का हिस्सा
बनने की सोचता हूँ
तो आँखे खोलनी पड़ती हैं
और खुली आँखो में तो
इक रेगिस्तान नज़र आता है
इक अथाह,अगम्य रेगिस्तान
शुष्क रेगिस्तान

                उमेश कुमार श्रीवास्तव ३१.१२.१९८९

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

आत्म-पुकार

आत्म-पुकार


जब क्षीण हो चली दुःख की निशा
क्यूँ व्याकुल व्यर्थ हो रहे आर्य
बस बाकी चन्द पगो की दूरी
महकेगी,ले सुगंध, मंद बयार

घनघोर घटायें घटाटोप
जब घूमड़ घूमड़ कर आई थी
तब तुमने मुस्कानो में
अपनी पहचान बनाई थी

तो नयनो में आज तुम्हारे
क्यूँ आँसू भर आए हैं
डगमग डोल रहे, क्यूँ पग हैं
क्यूँ अधर युगल मुरझाए हैं

अब तनिक धैर्य की बात जहाँ
तो क्यूँ अकुलाए जाते हो
सम्मुख ऊषा बेला के यूँ
क्यूँ मुरझाए जाते हो

वह तुम ही थे जिसने अब तक
झंझावत को झेला था
विस्तृत अथाह जल राशि मध्य
तरणी ज्वारो में खेया था

तब आज क्षुद्र इन लहरो पर
क्यूँ हिम्मत हारे जाते हो
चट्टानो को तोड़-फोड़
अब ढेलों से थर्राते हो

चिंता , व्यथा , औ व्याकुलता
हैं असफलता की कुंजी
झटक दूर करो इनको, तुम
पा  लो अपनी  मंज़िल

देखो कुमुद कमल दोनो
स्वागत में मुस्काते हैं
पंछी भी कर मधुर गान
उत्साह आज बढ़ाते हैं

आगम पतझड़ का कभी प्रिये
ना देता हमे सुहाई है
यह ही , अनुगामी बना बसंत को
करता उसकी अगुवाई है

पापिहे का तप ही देखो
जो पीता केवल बरखा जल
क्या तृषा व्यथा से हो व्याकुल
चखता जा गंगा जल

उसके तप से यह धारणी
पा जाती है हरियाली
अपनी तृषा बुझा सभी को 
देती जो खुशहाली

फिर सृष्टि के हो श्रेष्ठ रत्न तुम
अधीर हुए क्यूँ जाते हो
इस तम में हो कर विह्वल
क्यूँ निज पहचान गवाते हो

तम तो छट जाएगा इक दिन
कलंक कभी धुल पाएगा ?
है घुटने टेक गया मानव
जग कण कण यह दुहराएगा

इसलिए आज फिर कहती हूँ
स्व-विवेक पहचानो तुम
मैं हूँ वामा बन "आर्य" साथ
उज्ज्वल लक्ष्य सन्धानो तुम

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

किस पर लिखूं

किस पर लिखूं


किस पर लिखूं
किस पर लिखूं
मैं आज
किस पर लिखूं

आज प्रेरित कर रहा
लेखन करने को मन
ऊँगलियाँ भी लेखनी पर
हैं मचलती जब
तुम ही बताओ उद्दीपको
मैं आज किस पर लिखूं

क्षीण होते मेघ पर 
जो रिक्तबरखा बूँद से
या वायु में घुल रहे
विषाणुओं के तेग पर
या,भ्रष्ट होते त्रस्त होते
इस समाज पर लिखूं
या,झोपड़ी के रुदन पर
या,महलो के राज पर लिखूं
स्नेह,ममता,भ्रातृत्व की
टूटती मीनार पर 
या,सांप्रदायिकता के उठ रहे
अंध ज्वार पर लिखूं

भ्रमित हो रहा आज इन
उद्दीपको के मध्य मैं
स्थिर नहीं होता है चित्त
मैं आज किस पर लिखूं
किस पर लिखूं
किस पर लिखूं
मैं आज
किस पर लिखूं

   उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

जीवन इक पुष्प...........?

जीवन इक पुष्प...........?


जब इच्छाएँ दम तोड़ने लगती हैं
आशाएँ धूमिल पड़ जाती हैं
और जीवन
एक भटके जहाज़ की तरह
अनजानी अनचाही
दिशा की ओर
गतिमान हो उठता है
दूर दूर तक चक्रवाती हवाएँ
उठती नज़र आती हैं
और , मन की चंचलता
तप्त रेगिस्तानी रेत सी
शुष्क हो जाती है
तब इक विद्रुप मुस्कान
ठहर जाती है
होठों पर ,कि
जीवन इक पुष्प है
मृदुल,मनोहर,मधुमय
पुष्प

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

निशा(रात्रि)

निशा(रात्रि)

मैने बचपन में तेरी सूरत
प्रकृति के किताबो के पन्नो पर देखी थी
देखी थी शान्त सौम्य , सुन्‍दर
क्लान्ति दूर करने वाली
ममता मई गोद तेरी
तू कितनी प्यारी लगती थी
अय मेरी आदर्श निशा

तब मैं शायद तेरी सुन्दरता का 
तेरी उस गोद का
उपयोग नहीं जानता था
तभी तो भयभीत हो कर
तुझसे दूर भागता था

पर आज जब मैं युवा हूँ
मुझे तेरी आवश्यकता है
तो सूरत ये बदसूरत क्यूँ हो गई
मैं तो अजनबी सा
निहारता रहा तुझे , कि क्या
वही प्रकृति की किताबो वाली
तू मेरी निशा है

तेरा वह शान्त व सौम्य रूप
सब तो खो गया है
आख़िर तुझे क्या, आज
हो गया है
तेरी वह शान्त छवि
अशान्त सी क्यूँ लगाने लगी है
चिल्ल-पों शोर में
जान ही निकलने लगी है
तेरा वह निरापद साम्राज्य
क्यूँ चकाचौंध हो चला है
खटपट फटफट में
सन्नाटा भी बोर हो चला है

मैं अब भी तलास में हूँ
अपने बचपन वाली उसी निशा की
इक बार तू ही बता दे
क्या कहीं मिल सकेगी वो
या यूँ ही भटकता रहूँगा
तलास में अपनी
किताबो की निशा की

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

अहसास (चंद शेर)

अहसास (चंद शेर)

            १
शुष्क इन लबों को ताज़गी दे दो
अपने लबों से छू इन्हे जिंदगी दे दो
            २
शुष्क लब भी अब मेरे हो चले मयखाना
जब से उनके लब मेरे लब को छू गये
             ३
रिस रहा चस्मे से आज दरिया-ए-लहू 
अश्क तेरी याद में कब के फ़ना हो गये
              ४
अश्क आँखो के न जाने कहाँ खो गये
जी चाहता रोने को पर रो नही पाते
              ५
गुफ्तगू करता रहा मुद्दतो से मैं तेरी
दरम्याने राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना
               ६
ना खुदा से है शिकवा ना नाखुदा से शिकायत
जब कश्ती ही हो टूटी तो क्यूँ कर न डूब जाए
               ७
भर मीना पिला साकी ना पूछ कि क्या हाल है
मौत आती है नहीं  जिंदगी बेहाल है
                ८
मुझको भूल जाना तुम बीते हुए कल की तरह
क्यूँ की लौट कर फिर मैं  आ न सकूँगा


                  उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

आधुनिक " निर्वाण "

आधुनिक " निर्वाण "

शिक्षित हो मानव
शायद, 
कुछ ऊँचा उठ जाता है
मानवता से, समाज से
परिवार से,
रिस्तो नातो से
यह अलग है,कि
उसका विवेक सो जाता है
वह स्वयं तक सीमित हो जाता है

अपने चारो ओर
एक घेरा बना लेता है
स्वार्थ का,
उसे चेतन, अचेतन
सभी दशाओं में
दिखाई पड़ता है
स्वयं का स्वार्थी,
आनंदमयी संसार

दूसरों के दुःखो का अहसास
छू तक नहीं जाता है
क्यूँ कि वह इनसे भी ऊपर
वर्तमान "निर्वाण" का लक्ष्य
प्राप्त कर चुका होता है
वह जो अपने तक
सीमित
हो चुका होता है

               उमेश कुमार श्रीवास्तव

जड़ का चिंतन

जड़ का चिंतन

कितना बेबस
नितान्त अकेला
चुपचुप
खड़ा निहारता
यह ग्लानि भरा वृक्ष
कसमसा रहा है
या पश्चाताप करता
चिंतन में हो लीन
अपने दुर्दिन पर
अपने कर्मो को
निहार रहा है

काश उसने भी , रक्षार्थ
प्राणी मात्र की
भीष्म प्रतिज्ञा न ली होती
तो आज इस कृतघ्न प्राणी से
अपनी सेवाओं का प्रतिफल
अवश्य लेता
क्यूँ कि उसने ये आज जाना
निष्काम सेवा, मानवो की,
जड़ की निशानी है
उसकी सभी परिभाषाएँ
आज पुरानी है

काश उसने भी
विरोधी रुख़ अपनाया होता,तो
बुद्धिजीवियों की पंक्ति में
खड़ा मुस्काया होता
न कि यूँ अपने अनुजो के
विछोह में
यहाँ सिसकता यूँ खड़ा होता

          उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

दर्द-ए-जवानी(ग़ज़ल)

दर्द-ए-जवानी(ग़ज़ल)

आज जो टूटा दिल मेरा, तो कितने करीने से
कि दर्द भी महसूस हुआ, तो आँखो के रास्ते

कितने सजो रखे थे मैने, सपनो के महल
ये गुमान न था कि, हैं ये शीशे के बने

इन अश्को को खूं कहूँ या, कतरे सिर्फ़ पानी के
निकल आए जो, दिल के फफोलों में पल

अपनी किश्मत पे कितना रश्क था मुझको
आज अश्को नें दूर कर दी, बदगुमानी मेरी

मैने तोला था खुद को, जिन मोतियों के मोल
जमाने के बाजार में, शबनम के वो कतरे निकले

कितनी बेमानी सी लगती है, अब ये जिंदगी अपनी
लगता जमाने की राहों पर, टूट कर जाऊँगा बिखर

                         उमेश कुमार श्रीवास्तव

उमस जीवन की


उमस जीवन की

एक लंबे दिन सा
गुजरता
यह जीवन
उमस सा देने लगा है
अब,
अब तो रातो की प्रतीक्षा में
आँखे भी पथरा गई हैं
पर काटता सा
प्रतिक्षण, जीवन
दूर से दूर होता ही
देख रहा है
सांध्य को
जो सूचक है
निशा की

ये अधर मेरे ख्यालो के
सपनो के, अभिलाषाओं के
मुरझा से गये है
बस एक बूँद नीर के बिना
और दूर दूर तक
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
मेघों का साया भी
नज़र नहीं आता
कैसे बधाऊ ढाढ़स
इन सूखते मन श्रोत को
कि जिंदा रख अपने
उत्साह को मेरे यार
कुछ और पल के लिए

अब तो विश्वास भी
डगमगा सा गया है
और खोजने लगा है
इक सैय्या, कॅंटकों की ही सही
जहाँ क्षण भर को ही
विराम पा जाए
इस उमस भरे दिन मे
प्रतीक्षा में , शीतलता भरी
रात के

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

स्वप्न

स्वप्न

यह जीवन भी स्वपनो का
पर्याय लगता है सारा
हम दिन प्रति दिन
अच्छे बुरे सपनो में ही तो
डूबते उतराते रहते हैं
 और कभी कभी
बिन स्वप्न ही सो जाते हैं
चुपके से


हम सदा अच्छो की ही
आश लगाए बैठे रहते हैं
दिन के किनारे
पर सदा इच्छित होने लगे
तो वे स्वप्न ही कहाँ
वे तो आते ही हैं
स्वयं की शक्तियो से
स्मृतियो में , और
भाग्य बन रह जाते हैं ,
जीवन में
हम चाह कर भी
बच नही पाते
खिचे चले जाते हैं
दिन प्रति दिन उनकी ओर

बुरे के भय से
छिपा रखना चाह कर भी
स्वयं को
छिपा नही पाते
वे सर्वव्यापी जो ठहरे
वो व्याप्त हैं सर्वदा से सर्वत्र
यहाँ तक की
हमारे मन मस्तिष्क में भी
फिर कहाँ तक
छिपा सकेगें स्वयं को
इन स्वप्नों  के दृष्टि पथ से

हम कितने निरीह हो जाते हैं
कुछ कर नही पाते हैं
जब वे आने से भी
लगते हैं कतराने
और हम गूंगे बहरे
तड़पते रह जाते हैं
जीवन में बस इन्ही
स्वप्नो के लिए

         उमेश कुमार श्रीवास्तव

छद्म आदर्शों की मारीचिका

छद्म आदर्शों की मारीचिका



इक किरण भी यदि
चमकती है किसी दिशा से
आदर्श के नाम की
तो, आज उस दिशा को ही
लोग पूजने लगते हैं
बिना सोचे विचारे
कि कहीं वह आदर्श की
मृगमारीचिका तो नही

आदर्श हीन दुनिया में
हर प्यासे को
ऐसा होना
प्रतीत होता है
स्वाभाविक सा

आदर्शों का बाजार मूल्य
बढ़ सा गया है
इस शताब्दी तक आते आते
या यूँ कहिए
आदर्श नामक जन्तु
लुप्त प्राय हो चला है
इस मानवीय हाट से


लुप्त होने में , किसी जन्तु के
वहसीपन का हाथ होता है
इंसानी वहसीपन का
वही वहसीपन, आदर्श को ,
खा गई है ,
अस्थि तक चबा गई है

और,
बाज़ारो में आज
मुखौटे बिकते हैं
आदर्शो के, बेढब से
पर, हाय रे इन्सान
तू उन पर भी फिदा है
वास्तविकता को पचा
बनावटीपन से
समझौता करता आ रहा है
दूसरो को ही नही दे रहा
स्वयं भी
धोखा खा रहा है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

अर्ज़ है..........



हमें तो शौक़ था इंतजारी का
पर इतना भी नहीं जितना तूने करा दिया
दिख भी जाओ, मेरे चाँद दूज के
नहीं तो कहोगे, तुमने ही दिया बुझा दिया...........उमेश.


खुशियो के गाळीचे पे गम का इक क़तरा
नही बना पायेगा खारा समन्दर..................उमेश...

मेरे तो अपने ही बहोत है गम देने को
मेहनत ना करो इतना तुम तो बेगाने ठहरे.........उमेश...

गुफ्तगू करता रहा मुद्द्तो से में तेरी
दरम्यान राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना..........उमेश...

ग़ज़ल




ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स मे तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूं
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो साकी
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यू
हर फ़न में तू उस्ताद है नज़र आती

.....उमेशश्रीवास्तवा....दिनांक 24.11.1989..

ग़ज़ल




चुपके चुपके यूँ तेरा ख्यालों में आना ठीक नहीं
अंजुम में आओ तो अच्छा ख्वाबों में आना ठीक नहीं

मासूम जवानी सफ्फाक बदन मरमर मे तरासा है तेरा
यूँ हाथ उठा अंगड़ाई ले दीवाना बनाना ठीक नहीं

शोख तब्बस्सुम चाह लिए गुमसुम अधर की पंखुड़िया
बाधित न करो यूँ यौवन को अवरोध लगाना ठीक नहीं

कैसे न कहूँ बिस्मिल हूँ मैं तेरी हर कातिल चितवन से
उठती नज़र से तीर चला यूँ नज़रें झुकना ठीक नहीं

मैं तो प्यासा था प्यासा हूँ बैठा हूँ मय की आश लिए
मय की ही प्रतिमूरत हो जब . आ छिप जाना ठीक नहीं

...उमेश श्रीवास्तव..19.11.1994