बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल


खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

देखो ठहर सी जाती अब , जीवन की तड़पती चपला ये
पायल की रुनझुन का ये असर, कुछ धीमा धीमा है

प्यासी तड़पती बुलबुल ये , मर जाये ना इक आश लिए
मद से भरे अधरों का असर , कुछ धीमा धीमा है

बिखरी सबा में खुशबूए , गश खाने लगा दिल ठहर ठहर
ज़ुल्फो का तेरी , खुशबू का असर, कुछ धीमा धीमा है

ये शोख अदा ये बांकापन , उस पे ये जवां अंगड़ाई
यौवन की तेरे, इस मय का असर , कुछ धीमा धीमा है

खामोश नज़र का ये असर , कुछ धीमा धीमा है
विंदास अदा का ये कहर ,  कुछ धीमा धीमा है

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

रे अधीर मन


रे अधीर मन !


नहीं अकुला अभी से तू , नहीं तो हार जाएगा
अरे तू डर रहा क्यूँ है , धरा तू ही सजायेगा

सहन कर ले जो कुछ आए, तेरे दुश्वारियाँ सम्मुख
यही दौरे दौरा है , यही सब कुछ सिखाएगा

नहीं आए अगर ये मोड़ , जीवन राह अधूरी है
कहाँ किस ग्रंथ में पढ़ कर , तू ये मर्म पायेगा

मिलनें को हैं मिल सकती , तुझे रंगीनियाँ सब सी
मगर बंधुत्व को क्या फिर , तू पहचान पाएगा ?

तड़पने दे तड़पता है, मन , चंचल ये निर्लज्ज
स्वयं को ढूढ़ स्वयं में ही , तभी तू ब्रम्‍ह पाएगा

तू आया ही नहीं जीने , ये भोग भौतिकता
तुझे क्या प्यास जल की है ? नहीं तृप्ति तू पाएगा !

अभी तो है गली सकरी , सिमट जा तू स्वयं मे ही
मगर तू देखना इक दिन , यही विस्तार लाएगा

कदम हैं साथ तेरे क्यूँ , यही चिंतन जो तेरा हो
कहाँ श्रम है कहाँ विश्राम , कहीं तू रुक ना पाएगा

अभी तो सूखता तू है , कहाँ छाले अभी आए
तुझे पाषाण बनना है , तभी बदलाव आएगा

नहीं बस में जो कुछ तेरे , तो बस तू ध्यान धर उसका
अभी तो कर्म कर अपना , जो मिलना है वो पाएगा

नहीं अकुला अभी से तू , नहीं तो हार जाएगा
अरे तू डर रहा क्यूँ है , धरा तू ही सजायेगा

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव

Subhashita

यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छती पण्डितान् उपाश्रयपि ।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी दलं इव विस्तारिता बुद्धिः ॥ १५

One who reads, writes, sees, inquires, lives in the company of learned men, his intellect expands like the lotus leaf does because of the rays of sun.



अदृष्टपूर्वा बहव: सहाया: सर्वे पदस्थस्य भवन्ति वश्या: ।
अर्थाद्विहीनस्य पदच्युतस्य भवन्ति काले स्वजनोऽपि शत्रु: ॥


When a man is powerful and prosperous, friends gather around him and (come to him) from all directions; (but) if he is out of office and (lost his) fortune, they turn their backs on him, as foes in time of calamity.


विद्या नाम नरस्य रुपमधिकं प्रच्छन्नगुप्‍तं धनं
विद्या भोगकरी यशःसुखकारी विद्या गुरुणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
१२१॥ नीतिसूक्तिः
“Knowledge is certainly a man’s greatest beauty. It is a safe and hidden treasure.
It provides prosperity, fame and happiness. Knowledge is the teacher of all teachers.
It acts as one’s friend in a foreign country. Knowledge is the Supreme God.
It is the knowledge, not wealth, which is adored by kings. Without knowledge one remains as animal.”



षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्री भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥ 
- विदुर नीतिः
The six faults should be avoided by a person who wishes to attain prosperity, viz., sleep, drowsiness, fear, anger, indolence(inactivity resulting from a dislike of work) and procrastination.



येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मत्र्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्र्चरन्ति ॥ 

Those who do not have learning, have no austerity, do not give to charity, have neither knowledge nor character, have no good qualities no righteousness. They, on this Mrutyuloka, on this Earth, are being who are loads (literl translation would be; liabilities, those that only receive and don not contribute in return), in the form of people and are animals that simple graze.


आलस्योपहता विद्या परहस्तगताः स्त्रियः ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हन्ति सैन्यमनायकम् ॥

Knowledge is lost by laziness; women are lost when they are in the custody of others; cultivation fails when the quantity of seeds sown is very less; an army without a commander is lost too.


लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च ।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥

Greed is a cause of sin ( a greedy person can do any sin to satisfy his greed) Greed is cause of calamity, greed gives rise to enmity (greedy person invites enemies) Greed destroys a person (a greedy persons life gets spoiled by his own deeds) .


उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरुपता ॥ 

The sun looks alike while rising and setting. Great men too remain alike in both the good and bad times.

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

पाती




    पाती

                              १



कुछ रंग लिए कुछ भंग लिए
हिय की हुलसित तरंग लिए
प्रति-आस लिए विश्वास लिए
टीश भरी हर श्वास लिए

कुछ आन लिए कुछ शान लिए
बीते पल की पहचान लिए
इक रीत लिए कुछ प्रीत लिए
प्रेम सुधा सौगात लिए

कुछ नीर लिए कुछ पीर लिए
दिल की उजडी जागीर लिए
रार लिए तकरार लिए
नयनो में छलकता प्यार लिए

चाह लिए कुछ आह लिए
कुछ आश लिए कुछ प्यास लिए
अहसास लिए मधुमास लिए
प्रिय पाती मिली पिय प्यास लिए


    उमेश कुमार श्रीवास्तव ३०.०५.१९९५


                      २






अय पाती जा , जा कर कहना
मेरी उर्वी से हाल मेरा
कहना कि विकल है प्यार मेरा
बिन उनके सूना घर द्वार मेरा

हिय स्पन्दन तू लेती जाना
होना स्पन्दित सम्मुख उनके
औ कहना स्पंदनहीन बना-
जाता मैं बिन उर्वी के

नम हो जा, ले नीर मेरे
जा, सिहलन थोड़ी दे देना
कहना की नयना बे-नीर हुए
तकते तकते पथ उनके

यदि मिलन हो उनसे प्रातः तो
कहना की अंधेरी रात यहाँ
एकाकी पन की अंधियारी
करती उनके बिन घात यहाँ

यदि मध्यान्ह मध्य हो मिलन तेरा
तो कहना दिल की तपन मेरी
तू गंध मेरे जलते दिल की
थोड़ी सी उनको पहुँचा देना

यदि रात्रि मध्य पहुँचो तुम तो
अय पाती उनको बतला देना
बिस्तर पर करवट बदल बदल
कैसे तड़पू मैं, जतला देना

अय पाती, शीघ्र फिर आना तू
पा सानिध्य नहीं रुक जाना तू
मैं बैठा राह निहार रहा
यह जा कर भूल ना जाना तू

आते आते थोड़ी खुशबू
उनकी तू लेती आना
अधरों की नरमी, नयनो की अमी
चुपके से चुराती ले आना

सब हाल सुनाना आ कर के
कैसे कटती उनकी रातें
दिन रात गुज़रते हैं कैसे
कैसे करती मेरी बातें

है अंगड़ाई का मौसम कैसा
मुस्कानें अधर पर कैसी हैं
वह चन्चलता की प्रतिमूरत
मेरी उर्वी अब कैसी है

प्यासा जैसे मैं यहाँ पड़ा
वैसी ही प्यासी क्या उर्वी है
मैं तो अंशू हूँ तपता हूँ
क्या मेरी उर्वी भी तपती है

अय पाती मेरी ,प्यारी पाती
सच, करना ना देर तनिक वहाँ
मेरी प्यारी उर्वी की खबर
ले कर आना तू शीघ्र यहाँ

  उमेश ३१.०५.१९९५

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

चिंता के नीड




जब मस्तिष्क की शिराओं में
ईर्ष्या द्वेष, लोभ, मोह का लहू
दौड़ने लगे
सूखती कोशिकाओं को घेरे
मुस्कुराती चमड़ियों पर
आडी तिरछी रेखाएँ नृत्य करती
नज़र आएँ
तब समझ लें आप
मानव नहीं, बल्कि
नीड हैं
चिंता के

  उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल

ग़ज़ल

फिजाओं पे रंगत है छाने लगी
हर कली आज फिर गुनगुनाने लगी

तुमने हँस के जो पूछा मेरा अहले हाल
मेरे खूं में रवानी है छाने लगी

खैरमकदम तेरा यार कैसे करूँ
खुशी में ज़ुबाँ लड़खड़ाने लगी

आज का दिन कितना हसीं बन गया
हर तरन्नुम तेरी याद आने लगी

अय मेरे हमनशीं अय मेरे हम सफ़र
तेरे नालों की नमी है बुलाने लगी

सब्र करता रहा सब्र जाता है अब
तेरी बेताबी मुझको सताने लगी

रंजो-गम भूल कर मुस्कुराती रहो
मेरे दिल से दुआ आज आने लगी

दिल की राहों में ज़रा तुम कदम तो सुनो
मेरे कदमो की आवाज़ है आने लगी

फिजाओं पे रंगत है छाने लगी
हर काली आज फिर गुनगुनाने लगी

                  उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

पाणिग्रहण



समर्पण
पूर्ण समर्पण
इक दूजे को
इक दूजे का
अर्पण
तन-मन-चिंतन
इस जीवन से
उस जीवन का
संघर्षण
मिलन,तर्पण
दो आत्म क्षेत्र का
मधुर मिलन
बस और नही कुछ
यही है चिंतन
पाणिग्रहण  का
मधुमय बन्धन

       उमेश कुमार श्रीवास्तव
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Inspirational Quotes

sanskit quote aim1
Arise, awake and seek the holy association of true Saints and acquire knowledge of God. (Vedas)

sanskit quote aim2
As a man determines, so he becomes. (Vedas)

sanskit quote aim3
You have received the most valuable human body, which is like a strong boat to take you across the ocean of maya. It is propelled by the favorable wind of God's grace and steered by the Spiritual Master. If with all this facility a soul does not cross this ocean, he is spoiling the golden opportunity he has received. (Bhagwatam, 11/20/17)

sanskit quote aim4
The supreme knowledge of God can only be attained in a human form of life. (Garud Purana)

sanskit quote aim5
This human body is the gateway leading to liberation. Having attained it, you must strive to take care of your spiritual progress. (Ramayana-Goswami Tulsidas)

sanskit quote aim6
You have been blessed with a human birth, which is difficult to attain. Don't waste the precious moments of your life in pursuit of sensual pleasures. (Shankaracharya)

sanskit quote aim6
There is no one one in the world who is not a sincere lover of and believer in God. (Valmiki Ramayan)


sanskit quote god1
True happiness is synonymous with God and that is eternal, unlimited, infinite, permanent and immeasureable. (Chandogya Upanishad)

sanskrit quote god2
Once divine bliss is attained, it is attained forever. (Vedas)

sanskrit quote god3
God is bliss (ananda). From bliss all beings are born, in bliss all beings are sustained, and into bliss all beings will merge at the time of complete dissolution of the universe. (Taitariya Upanishad)

sanskrit quote god4
God is omniscient (all-knowing). He Himself is the form of knowledge. (Mundak Upanishad, 1/2/9)

sanskrit quote god5
He is God, the supreme divine personality who is the governor of Maya (material energy). He is the one in whom the material universe exists and from whom the material universe evolves. Within Him the material universe is established, and due to His inspiration the material universe is produced. (Bhagwatam, 10/18/4)

sanskrit quote god6
God does exist, and He can be experienced. When you have complete faith in Him, you receive God's grace fully, and due to this you are liberated from Maya forever. (Vedas)

sanskrit quote god7
God is omniscient and omnipotent. The individual soul has limited powers. Due to Maya, he is in ignorance and attached to the sense objects of the world. Both God and the souls are eternal. Apart from these two there is a third eternal existence: Maya. God is supreme. He enlivens Maya through His grace, and with this inspiration, Maya creates this universe. God is not the direct creator of this world. (Vedas)

sanskrit quote god8
Krishna says in the Bhagavad Gita, "I am the ultimate goal of the all the souls. I am their protector. I grace them with divine knowledge and love. I am their loving supreme God. I am the observer of the actions of the souls. All the souls reside in Me; I am their ultimate refuge when they humbly surrender to Me." (Bhagavad Gita, 9/18)

sanskrit quote god9
God is one. He resides in the hearts of all the living beings. He is omnipresent. He is the supreme soul of all the souls and graciously observes all their actions as an eternal witness. He is absolute bliss, which is beyond all mayic (material) qualities. (Shvetashvatar Upanishad)

Sanskrit Quotes

Brihadaranyakopanishat 4.4.5

काममय एवायं पुरुष इति। 

स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति। 

यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते। 

यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते॥

English Translation of Sanskrit Quote:

You are what your deep, driving desire is
As your desire is, so is your will
As your will is, so is your deed
As your deed is, so is your destiny


गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिंतयेत्।

वर्तमानेन कालेन वर्तयंति विचक्षणाः॥


English translation of Sanskrit Quote:

One should not regret the past. One should not worry about the future.
Wise men act by the present time.



कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥


English Translation of Sanskrit Quote:

Your right is to the duty only, not to the fruits thereof. 
Do not act for the results of your deeds. Never be attached to not doing the duty.



अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति।

मलये भिल्लपुरंध्री चंदनतरुकाष्ठमिंधनं कुरुते॥

English Translation of Sanskrit Quote:

Too much familiarity causes contempt. Frequent visits cause disrespect.
Queen of people residing on Malaya mountain uses sandalwood as fuel.


उपदेशोऽहि मूर्खाणां प्रकोपाय न शांतये। 


पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम्॥

English Translation of Sanskrit Quote:

Advice given to fools, makes them angry and not calm them down.
Just like feeding a snake with milk, increases its venom.



ईशावास्यमिदं सर्वं = ee-shaa-waas-ya-mi-dam sar-wam


यत्किञ्च जगत्यां जगत्। = yat-kin-cha ja-gat-yaam ja-gat

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: = ten tyak-ten bhun-jee-thaah

मा गृध: कस्यस्विद्धनम्।। = maa gridhah kas-ya-swid-dha-nam

English Translation of Sanskrit Quote:

All this here, is permeated by Brahman [The Supreme Soul],
whatever there is in this world.
Enjoy things by renunciation.
Do not covet others' wealth.


मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः। 
परगुणपरमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥

English Translation of Sanskrit quote:

Full of pious nectar in mind, words and body
Pleasing the Three Worlds by successive obligations
Always making a mountain of smallest of others virtue
By developing it in one's own heart, how many good people of such kind are there?

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

आजा पथिक



है दूर से आती पुकार
आजा पथिक आजा पथिक
कहता अनिल है बार बार
आजा पथिक आजा पथिक

है जोहती मंज़िल तुझे
धैर्य की सीमा तले
अब देर ना कर और तू
आजा पथिक आजा पथिक

प्रमाद की बेला कहाँ अब
क्यूँ हो रहा निःसहाय है
अकर्मण्यता का त्याग कर
आजा पथिक आजा पथिक

कॅंटको से जूझ कर
जब मध्यमा तक आ गया
डर ना फिर शूल से
आजा पथिक आजा पथिक

मौत शाश्वत है सदा
फिर सोचता क्यूँ उस दिशा
जिंदगी कर संघर्ष तू
आजा पथिक आजा पथिक

बेचैनियों का ये लबादा
दूर कर दे दृष्टि से
उत्साह भर प्रमोद ले
आजा पथिक आजा पथिक

जब जोहती है बाट तेरा
स्‍वमेव ही मंज़िल तेरी
फिर तोड़ तू भव बँध को
आजा पथिक आजा पथिक

          उमेश कुमार श्रीवास्तव


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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

नौका-विहार(केराकत-जौनपुर गोमती नदी शिव-घाट)

नौका-विहार(केराकत-जौनपुर गोमती नदी शिव-घाट)

वह शान्त घाट एकांत घाट
शिव के दर का पावन कपाट
गोमती तट का वह विस्तार
माँ के आँचल का लगे सार

कलरव की धुन का अंत छोर
पंक्षी उड़ते कर मधुर शोर
हम बैठे थे बस इसी काल
हिय के हिलोर को रहे पाल

वह मंद मंद बहती धारा
ज्यूँ जग जीवन चलता सारा
आसार सार यह "उर्वी"सारा
चलना जीवन चलती धारा

फिर साथ साथ नौका विहार
युगल दृगों का युगल प्यार
वह मधुर स्वरों का गायन वादन
माँ गोद मध्‍य यह अपना पन

माँ का करना पद-प्रच्छालन
परिणय प्रज्ञ करना पालन
दे आशीष हो रही विभोर
फिर आज बँधी परिणय की डोर

तेरे कर का स्पर्श किया
ज्यूँ पाणि तेरा फिर ग्रहण किया
फिर सांझ घनेरी आई यूँ
ज्यूँ माँ ने हमें विस्राम दिया

सब मगन चल रहे अपने में
हम युगल स्वयं के सपने में
इस पार नहीं उस पार नहीं
यूँ जैसे अब संसार नहीं

कैसा कठोर समय का वेग
घट गया तरणी का मधुर वेग
पल में पहुचे हम तल पर
तरणी के लगते ही तट पर

वह पल भर का नौका विहार
रच गया ह्रदय के क्षार क्षार
वह सांध्य घड़ी वह मधुर विहार
जीवन के पल का इक सृंगार

             उमेश कुमार श्रीवास्तव (०१.०४.१९९५)


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बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

दिल के नाले (शेर )

दिल के नाले (शेर )
             १
मेरे नालों में गर दिल का दर्द भी होगा
तुम्हे भी नींद ना होगी तुम्हे भी चैन ना होगा

             २
उन्ही की सूरतें उनके ख्यालात आते हैं
करते हैं हम कुछ याद , मगर वो याद आते हैं

             ३
अरे अब रोक लो इनको , कहीं पागल न हो जाऊं
तुम्हारी याद संग जी जी , तुम्हे ही भूल ना जाऊं

             ४
कसक कहते किसे तुमको गर मालूम होता
न कहते , फुर्कत में हमें ना याद किया करना

              ५
गमो के सहारे, जिया यूँ किया करते
कभी नालों पे चला करते कभी आहें भरा करते


                      उमेश कुमार श्रीवास्तव

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

इस कदर दिल पे छाई हो तुम
जिंदगी बन हर तरफ गुनगुनाई हो तुम

खुशबू से तेरी महकी बज्म मेरी
सहारा को गुलशन बनाई हो तुम

ख्वाब था, ख्वाब हूँ,ख्वाब अब ना रहूँगा
हक़ीकत का वो मंज़र लाई हो तुम

है हक़ीकत यही अहले दिल कह रहा
मेरी हर साँस में समाई हो तुम

ये ना समझो की तारीफ़ हूँ कर रहा
बन के तकदीर मेरी झिलमिलाई हो तुम

इस कदर दिल पे छाई हो तुम
जिंदगी बन हर तरफ गुनगुनाई हो तुम

                                        उमेश कुमार श्रीवास्तव


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इक बूँद हूँ मैं




इक बूँद हूँ मैं
आश की
विश्वास की
आभास की
जो कभी ना भर सकी
प्याला , प्याला !
इक प्यास की

इक बूँद हूँ मैं
श्वेद की
निर्वेद की
इक खेद की
जीती रही जो सर्वदा
बहती हुई निर्बाध सी

इक बूँद हूँ मैं
उस जलद की
जो कभी बरसा नहीं
हरसा नहीं
थरसा नहीं
स्वयं में सिमटा रहा
जो सर्वदा...सर्वदा

इक बूँद हूँ मैं
अजनबी सी
अनछुइ सी
अनकही सी
अज्ञात लुप्त
हो जाए गुप्त
वाष्प की जो
बन परिणीता


...........उमेश श्रीवास्तव..


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आह्ववाहन

कब तक बैठोगे तम में तुम
बाट जोहते दिनकर की
तुम दीप जलाओ तो पहले
सूरज तो निकलेगा ही ।

आत्मदीप की आभा में
राकेश तिमिर से लगने लगें
प्रज्जवलित करो तुम आत्म अनल
हिम-तम फिर तो पिघलेगा ही

मन के चंचल इन अश्वों को
इक डोरी में तो बांधो
अधीर हुए क्यूँ बैठे यूँ
मंज़िल पथ तो निकलेगा ही

हैं पथरीली राहें तो क्या
क्या कर लेंगे उतन्ग शिखर
पग अवधारो पहले तो तुम
सुमन राह में बिखरेगा ही

कभी नहीं विचलित होना
कर्म राह से तुम सीखो
इस पार भले मरूभूमि मिले
उस पार सुमन बिखरेगा ही


                     ......उमेश श्रीवास्तव


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जागो हे भारत



अय मानवता के प्रहरी
रक्त के धब्बे
पड़े आज क्यू तुझ पर
है कौन छिपा, जो तुझसे
छीनता सौम्य आवरण तेरा
क्रूरता का पहनाने को वसन

अय सभ्यता दूत
उदगाता संस्कृति के
है कौन घोलता जहर
बर्बरता तामसी
वायु जल वाणी का

अय धर्म के प्राण
अध्यात्म के चिंतन
क्यूँ बाधित हुई है धार
कौन तंत्रिका रोध बना
निष्प्राण किया
कृषकाय भीम सम बदन

अय शक्ति के पुंज
किन्कर्तव्य विमूढ़ हुए क्यूँ
बर्बरता का देख तांडवी नृत्य
करते भयभीत सभ्यता सस्कृति को
जब करने को एकता भेद

अय अजर अमरता दीप
उठो उठो तुम जागो
भयभीत हुई संस्कृति
आलस्य तुम त्यागो
आज जलाओ फिर वैसी ही ज्वाला
यज्ञ भूमि पर बैठ , जपे सब
भारत की ही फिर माला

                            ...उमेश श्रीवास्तव...
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चंद मुक्तक-२



चंद मुक्तक


पलकें उठी उठ कर गिरीं
ओंठो की पंखुड़ीयाँ कपकपा उठी
ऐसा लगा जैसे साकी
वो कुछ कहना चाहतीं हों......उमेश



बसते हैं दोजख की नादिया के किनारे
ख्वाबों में बसाए हुए जन्नत के नज़ारे
ख्वाबों को रूबरू करने का है हौसला
बदलेंगे हम तस्वीर को अपने कर्मों के सहारे........उमेश



हर समय याद तेरी आती रही
जिंदगी पास ही गुनगुनाती रही
जिसे खोजा फिरे हर घड़ी हर दिशा
दिल में बैठी वो मूरत मुस्कुराती रही .........उमेश




ये दुनिया हुस्न व सोहरत की , कब किसका साथ निभाई है
कभी जिंदा रखा मुर्दा कर , तो कभी जिंदा ही जला डाला.........उमेश


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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

चंद मुक्तक

   
चंद मुक्तक

        १

आँखो में मुस्कान लिए हो
ओठों पर मधुमास
ज़ुल्फो में सावन की घटा ले
हो , जाती किसके पास



        २


किन सोचों में गुमसुम हो तुम
किन ख्यालो में हो डूबी
ये बीते पल की यादें देखो
कहाँ कहाँ ले कर डूबी



         ३


सिमटी सिमटी वहाँ खड़ी क्यूँ
अपने में ही सकुचाती
किस परदेसी की बात जोहती
ले व्यथा विरह की हहराती


          ४


घूर रही क्यूँ तिरछी चितवन
क्या कोई तकरार है
पर ओठों पर शोख हँसी है
लगता आया प्यार है


          ५


खोजती है नज़र उन्ही उनको ऐ सनम
जिनने दिल को दर्द दे कर कर किनारा है लिया


                     उमेश कुमार श्रीवास्तव
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सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

महासमर

महासमर

जब जीवन,
कृष्ण निर्वात से गुजर रहा हो
अभिलाषाएं आकाक्षाएँ दम तोड़ रही हों
मृत्यु जीवन से सहज लगती हो
मुस्कानें काटों सम चुभती प्रतीत होती हों
दर्द,पीड़ा,उपेक्षा,अपमान सहयात्री से लगते हों
औ जीवन-जल बू दे रहा हो
स्थिरता का परिचायक बन
तब , जब ज्ञान दीप का प्रकाश भी
अन्तह्तम को भेदने में असफल प्रतीत होता हो
तब होती है एक अजीब बेचैनी
मथानी सी मथने लगती है
शुष्क रेगिस्तानी समर भूमि को
किसी बावरे की तरह

सभी अपने करने लगते हैं किनारे
औ सन्नाटो से भी
इक शोर सा उठता है , कर्ण-भेदी
आँखे चुन्धिया उठती हैं (तम में भी)
जगत रूप देख स्वार्थी
मचल उठता है मन धारणार्थ
जगत के रूप को ही (कालिमा से ओत-प्रोत)
झगड़ उठता है मन, आत्म-चिंतन से
कारण समझ, पराभव का उसे
औ सिकुड जाता है कुछ पलों को
साथी मेरा 'इक अकेला'
बस वही क्षण होता है मेरे
जीवन मरण का

पर सहज ही मुक्त हो कर
भेद देता है, मोह को वह
वह 'कर्ण' मेरा आत्म कण
पर कब तलक कुरुक्षेत्र सा
मैं सहूँगा महासमर
हर बार चाहता हूँ शान्ति
नीरवता विहीन, पर लगता नही
आएगा कोई
बन दूत शान्ति का
कृष्ण सा

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

अमराई की छाँव

अमराई की छाँव


अय अमराई की छाँव
उस दिन ,
जब मैं,तुम्हारे आँगन में
तुम्हारे बौरों की फैली,
मस्ती भरी खुशबू में,
स्वयं को ,
अपने दर्द को ,अपने गम को
भुलाने का प्रयत्न कर रहा था
और जब , इस मौसम में
पहली बार कोयल ने,
पुकारा था प्रेयसी को
और तुमने प्रश्न सा किया था
कर्ण प्रिय ..?
नहीं कर्कश..!
स्वपनिल सी इक कंपन,
तब
निकल गई थी, मुख से मेरे
तुमने व्यक्त किया था
आश्चर्य..!
मेरी इस अभिव्यक्ति पर
क्यूँ कि ,तुम्हारे आँचल में
अब तक कोई
इस कदर नहीं बौराया था
जिस कदर तुमको,
मैं नज़र आया था.

अय अमराई की छाँव
उस दिन
जब गगन में
घुमड़ रहे थे कृष्ण घन
और मैं बैठा , तुझ तर
अपनी पीड़ा के घनों से
रहा था जूझ
कि वे बिन बरसे
ना जाएँ वापस
क्यूँ कि मैने नीर
नही देखा था अपने नयनो मे
सदियों से
इस कदर मरू बन गई थी
मेरी आँखे
उसी क्षण गगन के जलद ने
तुम पर फेंक दी थी
अपनी शीतल फुहार
और फिर तुमने
किया था इक प्रश्न मुझसे
सुखद...?
और मैने विकृत से चेहरे से अपने
टका सा दिया था उत्तर
ईर्ष्या कर तुम पर
नहीं...अम्लद..!
और तुम विद्रुप से
देखते रह गये थे ,मुझे
इस मौसम में भी
बौराया समझ

अय अमराई के प्रिय-तम
उस रजनी जब मैं
बेचैनी से टहलता
गगन के तारों में (कंपकपाते से)
सुख को तलासता
तेरे कदमो के पास ही
विह्वल फिर रहा था
और
सर्द हवाओं से
तिठुरते हुए से तुम
निहार रहे थे ,मुझे
अचंभित से
किसी बेचैनी का आभास कर,
पर तुम्हे आभास कहाँ था
दिल में धधकती ज्वाला का
मेरी,
अन्यथा
कभी भी न होते
अचंभित इतने तुम
यूँ टहलते देख मुझको
रात में इस पूस की
मैं ठहर सा गया था
और तुम
थके से अलसाई आँखो से
देख रहे थे मुझे
मैं भी तुम्हारे कदमों के तले ही
तुम्हारे वक्ष का ले कर सहारा
अपनी तंद्रा में
खो सा गया था
कि तभी
इक प्रश्न फूटा मुख से तुम्हारे
दिवस..!
औ मैं मुरझाए कुम्हलाए
फटे चिथड़ो सम
अधरों से पुकारा था
(अनजाने में ही शायद)
हा.. दिवस...?


शायद तुम्हे मिल गये थे
प्रश्नो के उत्तर अपने
तभी तो आज तक फिर,
तुमने उलट कर,कभी न पूछा
कोई प्रश्न मुझसे;
इस कष्टप्रद अंतराल मध्य,
जब मैं अचेतन में पहुचता
जा रहा हूँ
चेतन पथ से गुजर


                उमेश कुमार श्रीवास्तव
www.hamarivani.com

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

जीवन मीत




अब तो दो धीरज मुझको
ना जाती सही ये पीड़ा
तुम छिपी कहाँ हो बैठी
मेरे जीवन की वीणा

कब तक संसार समंदर के
लहरों से इसे बचाऊँ
टूटी नैया को कैसे
इन ज्वारों में पार लगाऊं

तुम तो सब की सम्बल हो
मेरी भी बन जाओ
अब तक तड़प रहा था
ना अब तनिक तडपाओ

क्या स्वप्न मेरे ये सारे
यूँ टूट बिखर जाएँगे
जग मे आने के सब कारक
सब व्यर्थ चले जाएँगे

हाँ भाग्य मेरा है खोटा
तुम तो ना करो किनारा
मैं भाग्या बिना जी लूँगा
गर तुमसे मिले सहारा

बिखर न जाऊं कहीं मैं
आ मुझे तनिक सम्हलो
अपने आँचल के छाव तले
तनिक मुझे सुला लो

मैं आया क्यू था जाग में
हूँ भूल रहा मैं सब कुछ
आ जाओ बन प्रेरणा तुम
ले लो अब तो मेरी सुध

बस एक बार स्वर लहरी
जीवन मे बिखेर दो मेरे
फिर चाहे जीवन तरणी
जा छिपे कहीं घनेरे

मैं सिसक रहा हूँ क्या तुम
अब भी द्रवित ना होगी
इस दुर्दिन में भी मेरे
क्या निष्ठुर बनी रहोगी

आ जाओ मेरी आभा तुम
आ जाओ मेरी कांति
है जीवन मेरा शोर बना
दे दो इसे आ शान्ति
...उमेश श्रीवास्तव...18.05.1989

अजनबी




उस अजनबी की तलास में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल

पर अब तक तलास रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसेमैं जानताहूँ वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से

जाने कब पूरी होगी मेरी तलास
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव...01.09.1990...