रविवार, 14 फ़रवरी 2016

मद-नार (कचनार)

मद-नार (कचनार)


कचनार
बहुत भाते हो,
नयनो के सहारे
दिल में
उतर जाते हो

कहाँ से लाते हो
ऐसी नक्कासी, नफ़ासत
दूध मिली केशर की रंगत
रिझाने को
विश्वामित्र का भी
तप, खंडित कर उसे,
मदन बनाने को

शाखाओं पर तेरा इतराना
रति का अहसास जगाता है
मदमस्त कर
तन मन दोनो
पूरी काया को ,
सम्मोहित कर जाता है

तेरी भीनी सी, मीठी सी
सुगन्ध
काया ही नही
अंतस को भेद जाती है
मेरे अस्तित्व का
हर भेद खोल जाती है

तेरा आना, गदराना
तेरा खिलना, मुरझाना
जज्बातों को बे- परवाह
बना जाता है

तंगदिल मौसम से
रही शिकायत
ये सदा

तुझसे दिल की कभी
कहने दी
रूबरू हो
जैसे ही खोया तुझमे
ये बेमुरौआत
बदल जाता है


उमेश कुमार श्रीवास्तव (१२.०२.२०१६)

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

अबूझ संकल्प

अबूझ संकल्प
मैं चाहता हूँ गुज़रना उन सभी हदों से,
जिनको अभी तक तूने, बाँधा ही नही है

मैं चाहता हूँ ठहरना, उन सभी मुकाम पर
जिनको अभी तक तूने, गढ़ा ही नही है

मैं चाहता हूँ कहना, हर उस अनकही को
जिस हेतु अभी तक तूने, वाणी नही गढ़ी है

मैं चाहता हूँ देखूं, वह अदृश्य द्र्श्य तेरा
जिस दृश्य हेतु तूने, सोचा अभी नही है

मैं चाहता हूँ भोग लूं उस दर्द को भी
जिस दर्द का कारक तूने, सोचा अभी नही है

मैं चाहता हूँ हँसना अपनी हर उस कमी पर
जिनको अभी तक तूने , जग से कहा नही है

मैं चाहता हूँ रोना ,अपनी उन नाकामियों पर
जिनके काम तूने ,सौपे ही मुझे नही हैं

पर क्या करूँ ऐ मालिक बेबस हुए अश्व सब
रास छोड़ दी है सारथी ने हो मद मस्त
माया जगत असमतल , राह है पथरीली
रथी है लुहलुहान रथ में उछल उछल कर

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०५.०२.२०१६


छँटी जो माया तब दरश है पाया

छँटी जो माया तब दरश है पाया
प्रियतम की काया देखने भटका किए मगर
पाया जो प्रियतम को पास तो तम छटने लगे
हमने उन्हे देखा मगर आँखे बंद कर 
ऐसे दरश हो गये कि घड़ियाल बज उठे
हमने उन्हे सुना मगर कानो को बंद कर 
ऐसी बजी सरगम कि हर दीप जल उठे
हमने उन्हे पुकारा मगर रसना को बंद कर 
ऐसा घुला बदन की इकसार हो गये
हमने उन्हे सूँघा मगर रन्ध्रो को बंद कर
ऐसी गमक भरी कि प्राण वृंदा-वन हो गये
हमने उन्हे छुआ मगर अस्तित्व को मिटा
ऐसा हुआ साकार कि हम ब्रम्‍ह हो गये
आत्म चित्त आकार प्रवृति बुद्धि अहंकार
"
हम" के ये ताने-बाने पा उसे विस्मृत हो गये
उमेश कुमार श्रीवास्तव (१०.०२.२०१४)