शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

चन्द अहसास








                चन्द अहसास


सुकून की तलास में फिरता रहा दरबदर
तू जो मिली जाना सुकूं क्या है।၊ १ ၊၊


ज़लज़ला हैं यादें वजूद तक हिला देती है ये, 
सफ़र है जिंदगी का जब तक आती ही रहेंगी ये ၊၊२၊၊


चंचल शोख निगाहों से ना तीर चलाओ ये जालिम
दिल के टुकड़ों पर पग रख यूँ, ना मुस्काओ ये जालिम၊၊ ३ ၊၊

जेठ की धूप भी जब चाँदनी लगने लगे, 
समझ लो यारों यह इश्क का बुखार है ၊၊४၊၊


लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना ၊၊५၊၊

........... उमेश कुमार श्रीवास्तव





गज़ल एक मुद्दत हुई उनको साथ देखे

एक मुद्दत हुई उनको साथ देखे
अब तो यादों से क़तरा , निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती हर साम तब्बस्सुम
अब सरे साम परदा गिरा जाते हैं

हम तो हैं समझते इसे, इश्क की ही अदा
लोग हम को बेहया , बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर छाया
कि कूंचे में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन 
जो थामे हाथ गैरों का चले जाते हैं

हो मिलता सुकून उनको जलन से हमारी
सोच कर यही हम भी चले आते हैं
.......उमेश श्रीवास्तव....01.08.1990

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

कुछ शेर

लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना........... उमेश कुमार श्रीवास्तव


फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब................. उमेश कुमार श्रीवास्तव

अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं ......      उमेश कुमार श्रीवास्तव


औकात नहीं कि नज्र कर दूं
इक ताज तेरे नाम को
दो अश्क मेरे भी रहे 
तेरी कब्र पर ये रूहे इश्क.........उमेश...

क़ब्रगाहे इश्क है ताज भी ये नाज़नीं 
दिल के जिंदा ताज की तू तो है मेरी मल्लिका
...उमेश...


मंगलवार, 28 जुलाई 2020

तुमको उठना ही होगा

तुमको उठना ही होगा

चीख रही मानवता 
तुमको उठना ही होगा
अय,जग दिग्दर्शक, पथ प्रदर्शक
भारत पूत महान

सत्य अहिंसा दया धर्म का
फिर से अस्त्र सम्हालो
भ्रात्रि-भाव का ले अवल्म्बन
फिर अखिल विश्व जगा लो

मायावी इस चकाचौंध में
है अखिल विश्वा भरमाया
सभ्य राष्ट्र की शीतलता में 
फिर , उनको आज बुला लो

वैर-भाव है जन्म ले चुका 
हर मानव के मन में
दानव की हो चुकी पैठ फिर
हर मानव के तन में

है जग तरणी  फिर डोल रही
तीव्र भँवर के आगे
ज्ञान शक्ति का अलख जगा 
पुन पतवार तुम्ही सम्हालो

प्रलय काल की बेला में, जग
कण-कण बिखर रहा है 
ब्रम्‍ह शक्ति से बना जगत
बस तुमको निरख रहा है

हो किस चिंतन में विचलित लगते 
पग अवधारो   भारत
भ्रमित भ्रष्ट्र इस त्रस्त्र जगत को
तुम  संधानो    भारत

..उमेश श्रीवास्तव...29.01.1991

गज़ल၊ गम में किसी के दिल को जला कर

गम में किसी के दिल को जला कर
फुर्कत में आँसू बहाता है कोई
 
जमानें के चलन को देखो तो यारों
मुखौटा लगा गुनगुनाता है कोई

अब तक मैं था बिस्मिल जिगर था 
ले दर्दे दवा अब बुलाता है कोई

मैं हूँ मुसाफ़िर सफ़र में रहा हूँ
मगर क्या करूँ अब सुलाता है कोई

अब हूँ वहाँ मैं जहाँ ना कोई था
फिर, महफ़िल वहाँ, क्यू सजाता है कोई

...उमेश श्रीवास्तव...27.02.1991

सोमवार, 27 जुलाई 2020

ग़ज़ल मुल्केअदम से लौट कर आऊंगा एक दिन

ग़ज़ल
           

मुल्केअदम से लौट कर आऊंगा एक दिन                     
अब्दियत तिरी वहाँ जो कर ना सकूँगा                        
नाआश्ना मैं रहाअन्जुमन से तेरी                                 
तू अदल पसंद रहा औ मैं बा-अदा                               
ख्वाहिश रही अजल से तेरे करम की                            
अज़ाब भी सहता रहादीदार को तेरे                              
अदम रसाई ही रही तेरी ऐ खुदा                                
अकारत ही गई सारी नफस मेरी                               
आज तो तू मान ले मैं भी हूँ दमसाज                           
मामूर ही रहेगा दिल में तेरा आशियाँ                            

उमेश कुमार श्रीवास्तव                                           
जबलपुर २६.०६.२०१६                                      
 
मुल्केअदम---: यमलोक                                                                  
  अब्दियत-------बंदगी पूजा आराधना                                                                 
 नाआश्ना----अनभिज्ञ, अज्ञानी
अजल-----अनादि काल , सृष्टि काल
   करम----आशीष,समर्थन,सहयोग
अन्जुमन----सामान्य प्रयोजन हेतु एक़त्रित हुए    व्यक्तियों का संगम 
    बा-अदा ----अभिनय करने वाला
    दीदार---- दर्शन, आमने सामने से देखना
अदल पसंद---------न्यायसंगत  
 अज़ाब--- नर्क यातना
अदम रसाई---- अपहुंच
ख्वाहिश---इच्छा  
अकारत----बेकार जाना  
नफस------श्वासोच्छवास. साँस, श्वास   
  दमसाज-----दोस्त , मित्र    
  मामूर -----बसा हुआ, आबाद

मद कामनी

मद कामनी

कुछ लिखना चाहूं क्या लिख सकता हूं,
तुम सुन्दर हो क्या कह सकता हूं  ?

सिन्दूर नहाया दुग्ध बदन ,
चिकनाई कमल के फूलों सी
आरोह अवरोह भरी काया
रति मादक कामुक झूलों सी 
अलकों मे समाई काली घटा
सावन का सुरूर जगाती हैं।
नयनों से छलकती हाला को
अधरों पे उड़ेलने आती हैं।
कटि प्रदेश का कम्पन ये
गतिमान तुम्हे जो करता है
ना जाने कितनों को ही
गति शून्य बना कर रखता है।
है जो तेरी चंचल चितवन
हदयवेध जो देती है
जाने क्यूं पीड़ा की जगह 
उन्माद वहां भर देती हैं
ना देख इधर यूं तीखे दृग से
अधरों पे छिड़क मद हाला तू
हूं पाषाण नही भगवान नही
कहना ये नही मतवाला तू ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर , २८.०७.२०१६

रविवार, 26 जुलाई 2020

तीन शेर




हमें तो शौक़ था इंतजारी का
पर इतना भी नहीं जितना तूने करा दिया
दिख भी जाओ, मेरे चाँद दूज के
नहीं तो कहोगे, तुमने ही दिया बुझा दिया...........उमेश......


अख्स-ए-बदन में रखा क्या है , रूह-ये-बदन दिल में लाया करो
लब-ओ-रूखसार पे भरो हया के रंग,बंद आँखो में चमन बसाया करो...उमेश...

फासला होता है कहाँ वक्त इक दरिया है
जिसमें डूबे हुए हम इंतजार करते हैं....उमेश...

गज़ल। मेरे गेसुओं की महक के सहारे

मेरे गेसुओं की महक के सहारे
गुलशन को जन्नत बना लीजिए

तब्बस्सुम खिली जो लब पे मेरे
उसे देख खुद भी खिलखिला लीजिए

कहते समंदर मेरे चश्म को तो
उन्ही में उतर फिर नहा लीजिए

मीना-ए-जाम है जब मेरा ये बदन
तो उठा के लब से लगा लीजिए

गमगिनियों मे कहाँ हो खोए 
सभी गम मुझी में भुला दीजिए

...उमेश श्रीवास्तव..26.02.1991

शनिवार, 25 जुलाई 2020

शेर

खुशियो के गाळीचे पे गम का इक क़तरा
नही बना पायेगा खारा समन्दर....उमेश...

मेरे तो अपने ही बहोत है गम देने को 
मेहनत ना करो इतना तुम तो बेगाने ठहरे....उमेश...

गुफ्तगू करता रहा मुद्द्तो से में तेरी
दरम्यान राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना...उमेश...

ग़ज़ल ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी

ग़ज़ल
ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स मे तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूं
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो साकी
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यू
हर फ़न में तू उस्ताद है नज़र आती

.....उमेशश्रीवास्तवा....दिनांक 24.11.1989..

आज धुंधलके उसको देखा

आज धुधल्के उसको देखा
दूर क्षितिज के बीच कहीं 
कौंधी इक जीवन रेखा 
आज धुधल्के उसको देखा
                      
गुमसुम चुपचुप व्योम घूरती
नयनो में नीर लिए 
अधरो पर इक सूखी बिखरी 
दर्द भरी मुस्कान लिए 

शांत था मुखड़ा बिखरी अलकें 
वसन बदन पर अस्त व्यस्त 
कंपित तन औ विह्वल मन से 
व्यथित हुए हिय प्राण लिए 

सम्हल सम्हल कर पग धरते 
अनिल वेग से थरथर कपते
हाथ पसारे आगे बढ़ते 
इक विरहन सा गात लिए 

अपने अगम हिय प्रदेश में 
उसके आगम को सह के 
उसकी पीड़ा में निज हिय को
मैने आज मचलते देखा 

आज धुधल्के उसको देखा....

...उमेश श्रीवास्तव....21.05.1989

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

तलाश

उस अजनबी की तलाश में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ ၊

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास ၊

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो ၊

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर ၊

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके ၊

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल ၊

पर अब तक तलाश रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसे मैं जानता हूँ,
वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से ၊

जाने कब पूरी होगी मेरी तला
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव


गुरुवार, 23 जुलाई 2020

दरश की आश

दरश की आश


नेह जगा
हृदय गुहा में ,
कौन भला, चुप बैठा है ,
दुःख के सागर
आनन्दमयी सरि ,
इन द्धय तीरों पर
रहता है ၊

आश जगे
या , प्यास जगे ,
श्वांसे बेतरतीब
बहकती हैं,
जिसके आने या जाने से
ये मंद, तीव्र हो
चलती हैं ၊

वाचाल रहे
या, मितभाषी,
आन्दोलित जो कर जाता है ၊
मौन सन्देश से
उर प्रदेश को,
जो,मादक राग सुनाता है ၊

मैं सोचूं या ना सोचूं
पर सोच जहां से चलती है ၊
उस सुरभित
शीतल गलियारें में ,
है प्यास ये जिसकी
पलती है ?

ये पंच भूत की
देह है मेरी ,
औ पंचेन्द्री का ज्ञान कोष्ट ,
पर ,प्रीति,अप्रीति,विषाद त्रयी, सम .
जो घनीभूत  हो बैठा है ၊

हूं वाचाल
पर, मौन धरे हूं
आहट उसकी लेता हूं ,
बाह्य जगत से तोड़ के नाता ,
अन्तस को अब सेता हूं ၊

आश यही ले
निरख रहा हूं
शायद उससे मिल जाऊं
वह ही मुझको ढूढ़ ले शायद
जिसे खोज, न, शायद पाऊं ၊

उमेश श्रीवास्तव दि० ०३.१०.१९  : १०.४५ रात्रि


बुधवार, 22 जुलाई 2020

तीन शेर

देख तस्वीर तेरी  हूक उठे कुछ कहने को
सहम जाता हूं कहीं , ठेस न लग जाये तुझे
.....उमेश

कहां से लाती हो तुम , ये बला सी अदायें
फुहारों सी भिगोती है वो,हम दिवाने हुए जाते हैं।.... उमेश

करीब से दिल के गुजर , मिलेंगे ही,चाहने वाले ।
दिल में उतर देख,क्या हैं वो फिक्र करने वाले ।
               ........उमेश

गज़ल : खुद समझ पाया नहीं अपने मिज़ाज को

ग़ज़ल

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

दिल है बच्चा जो मेरा, तो क्या ग़लत हुजूर
मेरे दिल पर उम्र का, स्याह साया न करो

काश तुम भी भूल कर, आ जाते इस गली
फिर ये कहते. यूँ उम्र को, तुम जाया न करो !

हम तो चलते उस राह पर, जो नेमत मे है मिली
तन्हाइयों की राह हमें, तुम बतलाया न करो

अलमस्त हूँ अल्हड़ हूँ मैं, परवाह नहीं इसकी मुझे
तुम सबक संजीदगी का, यूँ सिखाया न करो

मैं निरा बच्चा रहूं बच्चा जियूं बच्चा मरूं
तुम मेरे मिज़ाज को औरों से मिलाया न करो

खुली किताबे हर्फ हूँ जो चाहे पढ़ ले जब कभी
इंसानी फितरत से मेरा ताल्लुक कराया न करो

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर,  "मेरी ग़ज़लें" से
मैने देखा है ह्रदय का स्पन्दित होना
हौले हौले उसका आन्दोलित होना ।
उसका स्मित होना महसूस किया है 
अपने अधर द्वय पर,अनायास ही ।
 उसकाआना ,इसका असहज होना

सोमवार, 20 जुलाई 2020

अबूझ चिन्तन *अज्ञात

अबूझ चिन्तन *अज्ञात*


तुझे पहचानने का
प्रयत्न,
कितनी बार किया
मैने,
हर प्रयत्न
विफलता देता रहा
क्यूं ?

अवरुद्ध , चिन्तन ၊
करता रहा
मनन,
निरन्तर, कालातीत ၊
पर,
ना जान सका ,
इस भूत बनते क्षण तक
मैं ၊

हर प्रयास मेरा,
सामिप्य का ,
दूर क्षितिज का
अहसास भर जाता,
जहां एकाकी मैं,
आभासित होता
तुमसे ၊

निःशब्द
प्रेषण,
संवादों का, ह्रदय के,
अथक प्रयत्न ၊
विफल ၊
क्या अब,
प्रयत्न, चीखने का
करूं ၊

टीश,मीठी ?
नहीं !
निरर्थक, व्यर्थ ၊
विरलता ,
सघन बनेगी ,
विश्वास ,
है जो ये ,
प्यार ၊

अनवरत
निमग्न चिन्तन ,
रहा ;
अविच्छेद्य,
उहा के
काल से,
मेरे ,मायावी !
जगत

मैं हूं
उपनिषद
उसके ,
जो ,निमित्त कारण
है जगत का
जब

स्वर्ण आच्छादित
सत्य जो,
आत्माओं का
मूल है ,
है ब्रम्हाण्ड का
जो नियन्ता
ब्रम्ह ,
जब
मैं अंश उसका

उमेश ,दिनांक  १४.०९.१९ इन्दौर-भोपाल यात्रा मध्य


हूं आज मैं निखर गया

टूट कर बिखर गया , 
लो आज मैं निखर गया ।

लौह था ये पुर मेरा
स्वांस थी ज्वाल की,
प्रस्तरों के कोष थे
बिजुलियों की शिरायें,
मन चिन्तनों में खो गया
माखन बना, पिघल गया,
लो आज मैं निखर गया ।

निराली हर दिशा रही
अबूझ हर दशा रही
कलप रही थी जिन्दगी
वो बन्दिनी थी ,बन्दिनी
हर दिशा पर राज अब
हर दशा में साज अब
प्रमोद आज जिन्दगी
आमोद से हूं भर गया
लो आज मैं निखर गया ।

पाषाण से परमाणु हूं
विवेक संग स्वतन्त्र हूं
अनवरत भ्रमण में रह
तुझी में खो रहा हूं मैं
अनन्त नाद में रमा
अनन्त को कदम बढ़ा
यायावर सा हूं बह गया
लो आज मैं निखर गया ।

अनन्त हूं ,है चाह भी
मंजिल मेरी, यह राह ही,
इस पर बढूँ ,फिर न जुड़ूं
इस धरा का हर कण हूं मैं
हर प्राणियों का प्राण सा
आह्लाद कर, हूं बन गया,
यूं टूट कर बिखर गया
यूं आज मैं निखर गया ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव 
इन्दौर , 20.07.20






बुधवार, 15 जुलाई 2020

चन्द बन्दिसे

दर्द जब सांसों में समा जाता है,
न जाने क्यू ,ये समां ही बदल जाता है ।

.......उमेश

भटकता रहता है खोज़ में , दर-ब-दर
देख दिल में ही छिपा बैठा न हो कहीं ..

...उमेश

कान्हा कान्हा चीख रहे क्यूं ,गली गली चौबारे में,
कान्हा रास रचा रखे जब
दिल के हर गलियारे में ।.....उमेश

बेचैन कर न इस कदर रुह को ऐ जहनशीं,
जो है तेरा ,भीतर तेरे,
वो साथ होगा ,उम्र भर ।
....उमेश

चंद फांसलों पर फ़कत
दरयाफ्त हो जायेगा वो,
तू करीने से जऱा
चश्मों को अपने बन्द कर । ......उमेश


चश्मे हाला में ,ये  तूने
क्या मिलाया साकिया,
जन्मों से जिसको ढूंढता
था ,इक घड़ी में पा गया।.....उमेश


रूह में तेरी बसा है, रुह से मिल ले ज़रा ।
क्यूं भटकता दूर तक तू,
अपना नशेमन छोड़ 
कर । .....उमेश


जान पाया है नहीं, ये जमाना आज तक,
अनसुलझी हूं ,वो पहेली,
अबूझ मैं वो राज़ हूं ।
....उमेश


बाहें पसारे बैठा कोई,नज़रे गड़ाये राह पर । 
गर मुसाफ़िर जान ले,
क्यूं तबाही में फसे ।
... उमेश







मंगलवार, 14 जुलाई 2020

ललकार

आ रहा हूं, 
ऐ समन्दर, 
रोकना है तो रोक ले
कल न कहना
भय-सूचना बिन
तुझको पराजित है किया ।

वो और होंगे जो तेरी
लहरों से भय खा गये
हम तेरी लहरों पे अपने
गीत लिख के जायेंगे ।

है गुमां तुझको तेरी
अथाह गहराईयो का गर
हम तेरी अतलों में भी
महफ़िल सजा दिखाएंगे ।

हमने सीखा ये ही सदा
झंझावतों को झेलना
तू मचल ले  आज जी भर
कल से मुझे तू झेलना ।

हूं जानता, कुछ भी नहीं
सहज मिलता है यहां
पुरुषार्थ पर कर भरोसा
तब ही तो आया हूं यहां ।

ना चाहता सहज में ही
झोली में मोती आ गिरे
कर्म से ,तल से तेरे
ले जाऊंगा तुझसे परे ।

झंझावतो के साथ तू
रोर कर ले ,नाद कर
फेणित तरंगों संग चाहे
रौद्र श्यामल जलधि कर ।

जो कदम मेरे उठे है
ना रोक तू अब पायेगा
राह दे स्वागत कर तू
या पराभव पायेगा। ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक १५.०७.२०१७

बिरहन

बिरहन

घटा घनघोर घिरी चहु दिश
लरजत नार सलोनी
पनघट पर पिय बाट तकत गोरी
नयनन कै डार बिछौनी

चंचल चित लै ,मेघ मीत से
करत रार बरजौनी
पी की पाती लाए काहे नही
रहि बाट जोहति चौमहनी

पथराय गई नयनो की पुतरी
अधरादल पड़े सुखौनी
हिय मध्य दहत अगन जो
उरोज बने धौकोनी

तुम बरसो ना बरसो बदरा
मधुमास गयो तरसौनी
हर्षित फसल दूर की कौड़ी
ये खेत पड़े परतौनी

भीग गई चुनरी चोली
अंसुअन कै चुऐ ओरौनी
हुलसित हिय पेंग लगे तन पे
सब राग चले उतरौनी 

मुझ बिरहन कै राग जरे सब
आग लागि बिछौनी
अखियन में नीद समाय सकी न
उत, पी छवि लाय बसौनी

ना रोर करो मत शोर करो 
मीत बनाय पछतौनी
अंधियारी घनेरि का तुम करो
पिउ की उजियारि बचौनी

हे मेघ मेरे साजन के सखा
इत आय मोहे लिपटा लो
सोख घनेरी व्यथा सब मोरी
उत लिपट तुम्ही समझा दो

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,१५.०७.२०१६

रविवार, 12 जुलाई 2020

विचार

रात घनेरी आये बिन,
क्या सुबह कभी भी आई है ?
उनकी सुबह नही आती,
जिनने , बस सपनों में नींद गवाई है ၊
उमेश १२.०७.१७

बुधवार, 1 जुलाई 2020

रे अम्बुद सुन..

रे अम्बुद सुन...

उठती माटी से सुरभित बास
 बून्दे सस्मित, ताल दे रही
तरु पल्लव कर उज्जवल आभास
मगन नाचते,बौराये से
धरा गगन मध्य झूम झूम
आभासी उद्गार जताते
रे जलद धरा है प्यासी प्यासी
जा ठहर तनिक,
तन भीगा मन भी कर तर तू
आभासी बरखा ना बन
ये तड़ाग लख सूखा रीता
ये प्रवाहिनी तकती तुझको
जलधारा की आश जगा
तू कर निरझर्णी फिर आपगा
न निष्ठुर बन
किसलय मेरे कर रहे प्रतीक्षा
मेरे नाभिक में
उनका तू उद्वारक बन
तेरा मंजुल श्याम वर्ण
मनमोहन की प्रतिछाया
जाये निर्थक नाम तेरा
क्या पायेगा
दे सकल जल निधि
थल जल कर
बे नीर पड़ा जग
जग  मग कर जल
हे वारिधर,
सुरभि सुवासित वसुधा
मांग रही अपने अंशो हेतु  
तुझी से , सौंप दिया था 
अम्बु तुझे जो ,
हे अम्बुद 
उमेश कुमार श्रीवास्तव
 दिनांक ०१.०७.१७ ,जबलपुर