बुधवार, 22 जनवरी 2014

ग़ज़ल



मैं चाहता था देखना धड़कन को अपने दिल की
देखा वहाँ तो तेरा घरोंदा बना हुआ है

खूं में थी रवानी औ जोश-ए-जुनू भरा था
अलमस्त तेरा चेहरा उसमें सज़ा हुआ है 

मैने की ज़रा सी जो मिज़ाज-पुरसी दिल से 
मुझको लगा कि जैसे वो तुझसे मिला हुआ है 

अजनबी सा खड़ा था मैं खुद के नसेमन में 
कहने को दिल मेरा था अनजाना सा जो हुआ है

तुम ही बताओ जानम जाएँ तो जाएँ कहाँ हम
उस दिल में ही अब जगह दो जो तेरा नहीं रहा है 

                               उमेश कुमार श्रीवास्तव

बुधवार, 8 जनवरी 2014

जीवन क्या है ?

जीवन क्या है  ?

जीवन क्या है  ?
इक निर्वात 
अदृश्य ऊर्जा का इक स्रोत 
अकूत ज्ञान , शक्ति  समुच्य 
कर्म बंधन से हो साक्षात !
इन्द्रिय जगत में आता साघात 
पाता भोग हेतु चिंतन 
इक अबूझ अगम्य मन 
इक पिंजर संग 
जिसमें भोगे भौतिक भोग 
संचित करने कर्मो को 
आने जाने के पथ रूप 
क्यो कि व्यर्थ कहाँ ऊर्जा है 
वह परिवर्तित करती बस रूप। 

जीवन क्या है ?
कर्मो का पथ 
युगो युगो से जन्मो से 
संचित हुए कर्मो का 
अच्छे बुरे द्वै कर्मो का 
प्रारब्ध बने हुए कर्मो का 
राई , पर्वत से कर्मो का 
ज्ञात, अज्ञात हुए कर्मो का 
जिस पथ  चल मंजिल पाना है 
जिसे भोगे  बिना , बस  चलना है 
इसमें अवरोध नहीं आना है 
कर्म बंध  के कटने तक 
हाड मांस के पिंजर  संग 
बस इस पथ पर आना जाना है। 

जीवन क्या है ?
इक अनुशासन !
आत्म शक्ति औ इन्द्रिय जगत में 
बाह्य जगत औ अंतस मन में 
वसुंधरा के हर प्राण जगत से 
अपने चेतन , अवचेतन में 
हर प्राणी के कर्मो के पथ से 
अपने कर्मो के पथ चिंतन में 
इस पार जगत के चिंतन से 
उस पार अगम्य गम्य के चिंतन में। 

जीवन क्या है ?
संग्राम भूमि है !
माया के जंजाल चक्र से 
काम क्रोध मद लोभ वक्र से 
कीचक सदृश्य मोह जगत से 
लतपथ इक संग्राम भूमि है 
कर्म पथिक को जिस पर चल कर 
उस द्वारे तक जाना है 
जिस द्वारे, तक रहा ब्रम्ह है 
चिर शान्ति जहां पर पाना है। 

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव  (०८. ०१. २०१४ )



समय का सफ़र



समय का सफ़र 



साँझ का झुरमुट ,
पंक्षियों कि 
चीं - चीं , कुट -कुट 
रक्तमय अम्बर पर सोई धूप 
छुट पुट 

अरुणचूर्ण की कुकडुककूँ 
चूजों की चूं -चूँ 
चर मंजिले पे बैठे 
कबूतरों की गुटरूकगूँ 

मानव का शोर , 
शान्ति की ओर 
बढ़ रहा ऐसे 
जैसे चितचोर 

रात का अंधकार 
कर गया मानव को प्यार 
साँझ के ढलते ही 
सो गया चौक बाजार 

रात्रि का द्वितीय पहर 
तप रहा पूरा 
अमीरों की  गुदगुदी वो 
गरीबों का जो कहर 

गगन पर छाया प्रकाश 
तारो से भरा आकाश 
सप्त ऋषि का आकार 
हो रहा ध्रुव पर न्योक्षार 

प्रभात कि प्रथम वेला 
झुक गए हैं गुरु चेला 
पक्षियों की चीँ -चीँ चूँ -चूँ 
मुर्गे की  कुकडुक कूँ 

अरुणमय है पूर्वाम्बर 
चहल कदमी है घर घर 
कमल को आई मुस्कान 
कुमुद पर छाया श्यमसान 

धीरे से बदला आकार 
आ गया सूर्य मध्य द्वार 
तपती धरती लगे प्रलयंकार 
बंद हुई चौमुखी बयार 

फिर आई धीरे से साँझ 
मिला हो जैसे पुत्र बाँझ 
कुमुद की अर्ध मुस्कान 
कमल की भी यही पहचान 

फिर चिड़ियों की ची -ची चुट -चुट 
फिर सांझ का वही झुरमुट 

                         उमेश कुमार श्रीवास्तव (२०. ०७. १९८५ )


मंगलवार, 7 जनवरी 2014

नारी

नारी 


मौसम का प्यारा  गीत है तू 
हर  मन का वह संगीत है तू 
जिसे चुन  झूमे धरा गगन
वह अन्तस की सुरम्य ,प्रीत है तू 

श्रृंगारमयी आगार है तू  
जीवन की  मधुर झंकार है तू  
करतल ध्वनि से अनुगुंजित 
पावन शिव का द्वार है तू 

सरिता  की चंचल धार है तू 
निर्झरणी रस की फुहार है तू 
शीतल कर दे तन मन दोनों 
ऐसी ध्वनि नाद ऊँकार है तू 

असुरो के विनाश निमित्त उठी 
महा काली की हठी तलवार है तू  
सु-सभ्य बने मानव जीवन की 
प्रथम पगी गुरु द्वार है तू 

इस जग की पालनहार है तू 
इस जग की तारणहार है तू 
अपना रूप न बदल नारी 
मानव का  घर , आँगन ,द्वार है तू 

वसुधा की जीवन कारक तू 
ना चूस मृदु जीवा रस को यूँ 
मानव रिक्त बने ये धरा 
ना बन इसका कारक तू 

                        उमेश कुमार श्रीवास्तव 

सोमवार, 6 जनवरी 2014

ग़ज़ल

ग़ज़ल


कहाँ से लाए हो चुरा के इन नज़रो को 
चुरा लेती हैं  जो हर दिल करीने से

पलक के पर्दों को यूँ आहिस्ता उठाती क्यूँ हो
कहीं डर तो नही , कोई दिल फिसल न गिरे

तीखी नही जो सीधे बेध देती है
खंजर सी तिरछी नज़र से देखा न करो

कहने को लाख कहे झील या दरिया
हमे तो जाम-ए-हाला ही नज़र आती है

क्या कम तेरा हुस्न खाना खराब करने को
तीर-ए -नज़र के वार से हो क्यूँ विस्मिल हम

यदि चाहते हम भी हुस्न का दीदार करें
इश्क की चासनी भर इनको झुका लो ज़रा

                                      उमेश कुमार श्रीवास्तव

नई राह जीवन की ……?

नई  राह जीवन की ……? 


ये टूटते सम्बंध
ये टूटते संम्बंध
पश्चिम ने सिखाए
नित नये जो सम्बन्ध

निज स्वार्थ हेतु बहना देखो
भइया को विष दे आई है 
वामा ने वर की स्वार्थ हेतु
इहलीला आज मिटाई है
बहना की इज़्ज़त भइया ने
अपने हाथो लुटवाई है
बेटे के हाथो ममता ने
अपनी अस्मिता गवाँई है

क्यूँ चौक रहे हो हे भारत
ये सत्य हो रहे आज कहर
अब पूर्व, पूर्व रहा कैसा
आया जब से पश्चिम का भंवर

माँ जब अपने ही कर से
गृह दीपक आज बुझाती है
बेटे के पद तल माँ की बिंदी
जब आज मसल दी जाती है
तो विस्मय की बात कहाँ
कि, लगी है बेटी की बोली
पिता पुत्र पर चला रहा
अपने हाथो ही गोली

पश्चिम सिखा रहा देखो
कितना सुंदर यह किस्सा
अब तक रोते थे बस वे ही
अब बाँट दिया हमको हिस्सा

               उमेश कुमार श्रीवास्तव

रविवार, 5 जनवरी 2014

ग़ज़ल

ग़ज़ल


आने दो आती है नींद सो लूँगा
तुम्हारी यादो में चुपके से खो लूँगा

बहने दो सबा को सर्द झोके ले
तेरी बाहो में लिपट गर्म हो लूँगा

स्याह राते होगी स्याह औरो के लिए
चाँदनी से मैं तेरी , रात सजो लूँगा 

तू महफूज रहे मेरे गुनाहो से
जख्म-ए-गुनाह का ऐलान-ए-हदूद कर दूँगा

जज़्बा-ए-इश्क मेरी यूँ ही परवान चढ़े
अपनी सांसो पे तेरा नाम धर दूँगा

आने दो आती है नींद सो लूँगा
तुम्हारी यादो में चुपके से खो लूँगा

                         उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 4 जनवरी 2014

अभिसारिका

अभिसारिका 

हर श्रृगार अलग कर दूँ 
स्व मकरंद चहुँ दिशभर दूँ 
आतुरता से पी बाट तकूं 
हिय प्रेम सुधा हुलसाय रखूं 
जाने कब आय न जाएँ सखी 
अलको को नयनो से हटाय रखूं
यह वेध रही अगन हिय को 
अब सेज प्रसून सजाय रखूं.
                   
                              ...........उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

नाना बनाने का सुखद अहसास कराने वाले नाती के जन्म पर उसे समर्पित

 नाना बनाने का सुखद अहसास कराने वाले नाती के जन्म पर  उसे समर्पित 


नव पीढ़ी के सेतु बने , तुम 
अभिनन्दन !
धरा पर पग धरे तुम ,
अभिनन्दन !

मृदुता भरी मुस्कान से 
आबद्ध कर 
दे दिया रिस्तों को तुमने 
इक नयापन 
अभिनन्दन 

सूर्य सा तेज ले दमको 
शशि कि शीतलता से चमको 
किलकारियों कि अनुगूँज से 
भर दो धरा गगन 
अभिनन्दन 

धर्म के अग्रज रहो 
प्रमुदित करो हर ह्रदय 
आह्लाद की  सीमा रखो 
हर्षित करो दिग्दिगंत 
अभिनन्दन 

शुष्क कर दो त्रास के हर तड़ाग 
रस भरो उनमें स्नेह के 
महका दो चतुर्दिक 
अपना चन्दन 
अभिनन्दन 
अभिनन्दन 

   उमेश कुमार श्रीवास्तव 

ऐ ,भौतिक प्रलोभन

ऐ ,भौतिक प्रलोभन 
कितनी बार तुमसे कहा 
कि , 
ना आया करो यूँ 
चुपके से। 
मुझे तुम्हारा यह तरीका 
नागवार लगता है 
चुपके से खलल डालना 
एकांत आराधना में 
मेरी,
टेशू से दहकते 
मदमस्त यौवन से अपने 

कितनी बार रोका है तुम्हे 
कि, 
मुझे भाते नहीं 
ऋतुराज 
और तुम हो कि 
पतझड़ में भी 
बुला लाती हो उन्हें 
जलाने को मुझे 

मैंने कहा था न तुम्हे 
मैं विश्वामित्र नहीं बन रहा 
तुम्हारी मेनका बनने कि चाह 
तुम्हे 
नचा रही है यूँ 
उतार दो तुम इन्हे 
और फेंक दो दूर 
क्षितिज के पास 
जहां से फिर , मिल ना सकें 
और , न अवरोध ही बने 
मेरे 
ये तुम्हारे सरगमी 
नूपुर 

क्यूँ नाहक तुम 
देती हो दस्तक , उन द्वारों पर 
जिन्हे खुले सदियाँ ही नहीं 
इक युग 
गुजर चुका  है 
मुझे चिढ सी होने लगी है 
अब तो 
जहां थी पहले 
सहानभूति। 
कि , तुम चाहती हो 
पत्थर को द्रव्य बना
मुहर लगाना 
विजय पर अपनी 

यैसा नहीं कि मैं 
मुग्ध नहीं हूँ 
इस लावण्यमयी 
यौवन से तेरे 
मैं भी चाहता हूँ 
इक सुहाना संसार 
जीने को 
तुम सी ही संगिनी 
सुधा- अधर पीने  को 

पर नहीं चाहता तो बस 
किसी सुमन का 
यौवन में ही मुरझाना 
मैं स्वयं को जानता हूँ 
बस कारण इतना 
दूर रहने का तुमसे 
क्यूँ कि तुम सी कली 
न सहेज पाऊंगा 
अपने जीवन ध्येय से 
भटक 
अपने आराध्य को 
विलग कर। 
न यही चाहूंगा 
मुरझा जाओ तुम 
मुझे पराजय का 
अहसास करा 

      उमेश कुमार श्रीवास्तव 

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

तुम !

तुम ! 

सच , तुम 
गुदगुदा जाती हो 
मेरे मन को 
अंदर तक 
जहां से उदभुत होती है 
सच्चाई कि रौशनियां 
वहाँ तक तुम्हारी सादगी 
वार करती है जा 
और मैं 
कहने को विवश हो उठता हूँ 
कि तुम सुन्दर हो 
अति सुन्दर 

    उमेश कुमार श्रीवास्तव 

बदल गया इन्सान

बदल गया इन्सान 


ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

कलुषित मन औ उज्जवल तन पर 
करता है अभिमान 
दया धर्म कि बातें छोड़ी 
हुआ आज पाषाण 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

छोड़ सभी रिस्ते नाते 
बैठा , कर निज ध्यान 
पैसों के पीछे पागल हो 
भाग रहा इन्सान 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

अन्तर्मन  को, तम कर डाला 
बुद्दि किया बलवान 
पशुओं को पीछे छोड़ा 
कहलाते इन्सान 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

प्रेम , विलास का रूप बनाया 
किया , काम , का ध्यान 
इनकी संतति कैसी होगी 
अब जाने भगवान 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

खीझ रहा ,खिसियाय  रहा 
ना , करनी  देता ध्यान 
उसी डाल  पर बैठ काटता 
उसी को ये इन्सान 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

नही आज भी बदल सका तो 
रोयेगा ब्रम्हाण्ड 
मिट जायेगी हस्ती सारी 
सिसकेंगे हर प्राण 
ये मानव रीति  निराली 
ये भौतिक प्रीति  निराली 

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव 

क्या तुम वही हो ?

क्या तुम वही  हो   ?

क्या तुम वही हो 
जिसको खोजता रहा मैं 
सदियों से स्वप्न में 
जागती , सोती और 
ऊंघती आँखों से 
शायद ,
शायद नहीं भी। 


क्या तुम वही हो 
जिस पर मैंने 
घण्टों किया है चिंतन 
अनवरत वर्षों से ,
इक प्रकोष्ट ही , मस्तिष्क का 
संजोता रहा 
उन संकेतों को 
जिन्हे भेजा था नयनो नें 
क्षण प्रतिक्षण मस्तिष्क को 
अपने स्वप्नो से खींच 
और जिसका रेखांकन भी 
धुंधला सा बना रखा था 
मैं अभी संशय में हूँ 
कि , क्या तुम वही हो ?
शायद ,
शायद नहीं भी। 

क्या तुम वही हो 
जिसे मैंने माँगा था 
उस ब्रम्ह से 
जिसे शायद मैं कुछ दे न सका हूँ 
इसी लिए माँगा था 
उसे , जिसका प्रतिरूप , रूप 
आज सम्मुख हो तुम 
क्या तुम वही अर्धांश हो मेरी 
जिससे मिल मैं सम्पूर्ण हो सकूंगा 
और दे सकूंगा उस ब्रम्ह को 
अंश उसका , उसके मन का 
शायद तुम वही हो 
शायद , 
शायद नहीं भी 

संशय का यह आवरण 
कब तक रहेगा  छाया 
कभी ना कभी तो हटेगा 
राज पर से यह झीना परदा 
कि , तुम वही हो या नहीं हो 
तब तक मैं उन्ही शायदों में 
जीता रहूंगा , कहता रहूंगा 
कि , शायद तुम वही हो 
या , शायद तुम नहीं हो 

             उमेश कुमार श्रीवास्तव