मंगलवार, 29 सितंबर 2020

गज़ल

 गज़ल

 

ना जाने क्यूं जिन्दगी, बे-साज लग रही

कुछ तो कमी है जो, बे-आवाज लग रही ၊
हूं भीड़ में अकेला , है  माज़रा ये क्या
सब की नज़र है मुझ पर, नज़र बेआवाज लग रही ၊
सबा-ए-मुंतजर से, घुलती ये जिन्दगी
है मुंतज़री ये किसकी ,अनजान लग रही ၊
रग रग में घुल गई है, अहसास है जगा
जान-ए-हया है कौन ? बे-पहचान लग रही ၊
कब तक घुटूं उसके मुंतज़र में मैं
जो प्यार की प्यारी सी परीजान लग रही ၊

उमेश , इन्दौर, २८.०९.२०

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मेरा अन्तस

 मेरा अन्तस

 

दो सरिताएं बहती ,

मेरे अन्तस में ,
निर्मल , निर्झर
स्निग्ध नीर की ,
अकूत राशि ले ၊

अन्तस मेरा
सदा रहे ,
भीगा - भीगा सा
पर अह्रलादित
मन्द मन्द मुस्कान लिये
दोनों सरि के
सुरभित तट पर ၊

इक सरि की धारा
काम भरे ,
आपूरित मन
मोहनी मूरत संग
भटक - भटक रसपान करे ,
जगति धरा के
लावण्यमयी हर कृति से
अद्वैत मान
अमूर्त रुप में ၊

भ्रमर सदृष्य मन
उड़ चलता
उन्मुक्त गगन में
कली कली से
गुपचुप गुपचुप
स्नेह चुराता
बिन ठेस लगाये
उसके मन को ,
मुकुल बना
पुष्पित कर देता ,
आह्लाद जगा ၊

हर में स्व को
स्व में हर को
आभासित करता
प्रेम सरि की 
किंचित बून्दो से ,
भिगो भिगो कर
हर इक मन के
प्रेम तृषा को
पग दे जाता 
बढ़ जाने को ,
प्रेम पथिक बन
तृषा तृप्त कर आने को ၊

दूजी सरि की
स्निग्ध जल राशि
आत्मक्षेत्र के 
उद्‌गम स्थल से.
हर हर कर
हहराती
पर शोर नहीं
नाद नहीं
निःशब्द
सभी, बहा ले जाती ၊

समतल, समरस
मृदु धारा,
है जिस पर विस्तृत
इस नद की बून्दे,
आभास उसे ही,
जो बाह्य जगत से
है आंखे मूंदे ၊

जब जब मैंने
तन मन चिन्तन को,
इस जल कण में
है,घोल दिया,
अदृष्य सुरसती (सरस्वती) बन,
संगम सुख को
तब भोग लिया ၊

इसकी जलधारा
सुसुप्त कराती,
मन चिन्तन को
उपनिषद कराती,
निकट ब्रम्ह के,
खो जाने को 
विराट पुरुष के
अनन्त रूप में
घुल जाने को ,
दृष्य जगत के पार अदृष्य से
एकाकी हो ,
मिल जाने को,
विस्तार स्वयं का 
पा जाने को ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक २५.०९.२० ၊


बुधवार, 23 सितंबर 2020

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरे विचार

                         मेरे विचार

   जीवन के सभी मंत्र अध्यात्म हैं जो प्राणी मात्र के जीवन को सरल सरिता सा निर्वाध बहते हुए सागर में समाहित होने की राह दिखाये, शेष सभी नश्वर भौतिक मोह माया ၊अध्यात्म कोई गूढ़ या अज्ञेय विधा नहीं है वरन सब से सरल , जन्म से ही जीव के साथ जुड़ी विधा है जिसे मानव अपनी बढ़ती आयु के साथ भौतिक जगत की ओर आकर्षित होते हुए छोड़ता जाता है और जीवन को स्वयं गूढ़ बना अध्यात्म को अबूझ व गूढ़ समझने लगता है ၊ अन्यथा शैशव व बाल पन के जीवन के व्यवहार की ओर दृष्टिपात कर देखें वह सरल है या गूढ़ ?वही अध्यात्मिक जीवन है ၊ इस भाव को अध्यात्मिक भाषा में  तटस्थ प्रेक्षक भाव कहते हैं , जिसमें न कोई अपना होता है न पराया यहां मैं या मेरा भी नहीं होता ၊यही भाव मानव को शान्त, निर्मल व आनन्द मय बनाता है ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर २२.०९.२०

बुधवार, 16 सितंबर 2020

मुक्तक

है कस्ती वो कागज की
जो सैलाबों में भी नही डूबी
कई दरियायी बेड़ों को
किनारों पर है डूबते देखा ।

उमेश
२०.०९.२०


रविवार, 13 सितंबर 2020

हमें इतिहास रचना है

हमें इतिहास रचना है
नया इतिहास रचना है

नई  है आज पीढ़ी भी  , नया है ज्वार खूनो  में
नया उत्साह ले कर के नया कुछ खास लिखना है।

अभी तक थी गुलामी की बची सिसकारियां दिल में
उन्हें उन्मुक्त सासें दे दिलो पर हास  लिखना है।

उन्होनें  तुष्ट कर कर के दिलो को बाँट डाला  था
सभी को साथ ले बन्धू , सभी को साथ दिखाना है।

हमारा धर्म है सहिष्णु हमारा कर्म है सहिष्णु
दिलो में आज सबके ही यही बस पाठ लिखना है।

हिन्दू सिक्ख ईसाई  मुस्लिम पारसी सारे
हिन्दुस्तान  है अपना ,हिन्दू हैं सभी न्यारे।

तभी तो आज सबको मिल, सभी को  साथ दिखना  है
हमें इतिहास रचना है नया इतिहास रचना है

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

कब तक बलिदानों की भाषा

कब तक बलिदानों  की भाषा
हम से बुलवावोगे   ?
कबतक त्यागों  की आशा ,
बस हममें ही पाओगे ?

कब तक एक जून की रोटी में भी
बचत हमें सिखलाओगे ?
कब तक अधनंगे  तन से , चीर ,
चीर , ले जाओगे ?

कब तक दानी कहलाने का हक़ ,
 बस, हमको दिलवावोगे ?
कब तक ज्वरित कांपते तन से
सकल बोझ  ढुलवावोगे  ?

बलिदानो का आह्यवाहन उठाने वालो
ऐ त्यागो की आश लगानें वालो
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर
जब स्वयं  इन्हें अपना दिखलाओगे

ऐ पञ्च सितारा संस्कृतियो में पले  बढे
हो तुम तो चर्बी बोझ तले दबे पड़े
क्या वह दिन भी आएगा इस धरती पर ?
दूजो के हित , जब बचत तुम्ही दिखलाओगे

हम तो वंशज दधीचि  के कहलाते
तुम भी कर्णधार हो राष्ट्र भूमि भारत के
जब लेते अस्थि हमारी धरणी उद्धार हेतु
फिर तुम कब , कर्ण बन दिखलाओगे

                 उमेश कुमार श्रीवास्तव

पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

समर्पण
पूर्ण समर्पण
इक दूजे को
इक दूजे का
अर्पण
तन-मन-चिंतन
इस जीवन से
उस जीवन का
संघर्षण
मिलन,तर्पण
दो आत्म क्षेत्र का
मधुर मिलन
बस और नही कुछ
यही है चिंतन
पाणिग्रहण  का
मधुमय बन्धन

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ
समय जोहता कहाँ किसी को
उसके संग भी , कुछ तो रह लूँ

रही अदावट मेरी सदा ही
नये मूल्य आदर्शों से
किंचित पल अब ,ठहर सोचता
कुछ उनसे भी गागर भर लूँ

मैं पुरुषार्थ प्रतीक बना
विपरीत लहर के चलता था
पर मुर्दों सम , संग लहरों के
क्यूँ ना, बहने का,अनुभव कर लूँ

ज्ञान अधूरा तब तक, जब तक
द्धय, तम-ज्योति, ज्ञान न होवे
निमित्त इसी के,आज पाप से
चन्द पगों का गठजोड़ न कर लूँ

नहीं कह रहा , पुण्य भूमि हूँ
हूँ पाप पुण्य से मिला बना
पर , मथमथ कर इस जीवन को
क्यूँ ना आगत उज्ज्वल कर लूँ

कितने दिन से मैं चुप था
आज सोचता हूँ, कुछ कह लूँ

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

प्रेम गर्भांण्ड (बीज)

   प्रेम गर्भांण्ड (बीज)

 

नेह गुहा में प्रीत पले

अंकुर बन फिर, प्रेम जगे
करबद्ध बीज शीश झुका
अपने सारे अभिमान तजे ।

नव पल्लव अपने कर में
सारे जग का अनुराग भरे
अभिसिंचित पूरित प्रेमसुधा
जड़ को प्रेषित कर, चैतन्य करे ।

हो शुष्क मृदा या आद्र मृदा
पथरीली हो या चट्टान मृदा
बस अवशोषित कर प्रेमसुधा
वह सुरभित करता है वसुधा ।

गर्भांण्ड प्रेम,अति सूक्ष्म रहा
इन्द्रिय जगत के, परे बढ़ा
जब तक आच्छादित रही धरा
तब ही तक प्राणी चहुंओर बढ़ा ၊

जब जब रीती, स्नेह सुधा
पाषाण हुई, हर प्राणप्रभा
रणभूमि बनी फिर फिर वसुधा
विचलित,जीवन की सारी विधा ၊

हर मे पोषित बस प्रेम करो
हर पग पर वृन्दा धाम करो 
रसखान बनो रणवीर तजो
हर जीवन राधे-श्याम करो  ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक : १५.०९.२०
इन्दौर









प्रेम पर दोहे

प्रेम पर मुक्तक


प्रेम रंग डूबे वही, 
जामे अनन्त को वाश ,
हर हिय में रमता वही ,
का आम का खास ।


हिय हिलोर के छानिये , 
नवनीत प्रेम अति मृदु ,
अंग अंग पर लेपिये , 
होये पीर विलुप्त ၊

प्रेम आश है बावरी
ना बैठे इक ठौर
सदा भटकती संग संग
मिलन कोश हो दूर ၊


प्रेम तृषा मृगलोचनी , 
भरमाये हर बार ,
तिरछे चितवन से लखे , 
जाये हिय के पार ၊

प्रेम न देखे रंग है,
प्रेम न देखे रूप,
जड़ चेतन जिससे जुड़े,
ढले उसी के रूप ၊

उमर न कोई प्रेम की
न कोई है गात
हिय मध्य जब ऊपजे
दमके दिन अऊ रात ၊ ।


उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक : १२ . ०९ . २०

रविवार, 6 सितंबर 2020

ग़ज़ल। चाहते तो थे नही कि आपको यूँ दर्द दें

ग़ज़ल

चाहते तो थे नही कि आपको यूँ दर्द दें
क्या करें ज़ज्बात-ए- दिल हम बयां कर दिए

अर्जमन्द आप है नाज़ुक जिगर है आप का
अजनबी की बात पर यूँ आप हैं रो दिए

है अजब हाल ये मेरे लिए ऐ नासमझ
आईना खुद आज अपना अक्स है दिखा दिए

ऐ हवा थम जा ज़रा आँचल न उसका यूँ उड़ा
मासूक ने मेरे लिए अश्क हैं बहा दिए

क्या करें हम इल्तिजा आज़ाद इक परवाज़ की
सैय्याद ने पर काट के फिजाओं में उड़ा दिए

ऐ सनम सब्र कर टूटा नही ये दिल मेरा
वो हैं हम जिसने किर्चों से ताज बना दिए

आब-ए-तल्ख़ ये तेरे मरहम बन के आए हैं
जो जमाने ने थे दिए वो जख्म सारे भर दिए

ना तनिक गमगीन हो मुस्कुरा दो अब ज़रा
ये जमाना छोड़ दो अब आह भरने के लिए

आब-ए-तल्ख़ :  आंसू,  :  अर्जमन्द : महान

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

ग़ज़ल: आपको हमने कहा

आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये
इश्क की इस राह में , पहले कदम घबरा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

यूँ तेरी अर्ज़ तो , आगोश में, आने की है
पर हया-ए-रुख़ से तुम ,खुद से ही शर्मा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

है कली जो दिल में तेरे ,लब पे वो जल्वा चाहती
जुल्फ को रुख़ पर गिरा, क्यूँ उसे भरमा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

ये तेरी सांसो की सरगम, कर रहीं मदहोस हैं
इन पे पहरा क्यूँ बिठाया, हो तिश्नगी बढ़ा गये
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

छोड़ दो  हया ये अपनी,लब ज़रा अब खोल दो
हीर-रांझे की गली में, यूँ ही नही तुम आ गए
आपको हमने कहा , प्यार, तो शर्मा गये

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,०७.०९.२०१६

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

" तुम "

" तुम "

अल्हड़ निर्झरणी की धारा सी
मेघ घनेरी बन उठती तुम
मेरे तन मन के आंगन को
स्नेहिल शीतल कर जाती हो ।

पुष्पित, सुरभित वन बयार सी
अन्तस तक गमकाती तुम
मेरे तन के हर श्वासों में
अबूझ चेतना भर जाती हो ।
 
मुकुल ,कली से पुष्पित सी
कोमल भाव जगाती तुम
अरूण रश्मि सी, भेद मुझे
आनन्द मग्न कर जाती हो ।

झंकृत वीणा की ध्वनि सी
अन्तस ऋचा जगाती तुम
भाव जगत की ज्योति जला
साम गान कर जाती हो ।

अदृष्य जगत की प्रभापुण्ज सी
अलौकिक जगत सजाती तुम
मेरे हर तम को, हर , हर कर
हरि , हर नाद सुना जाती हो ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक ०६. ०९ . २०

गजल၊ आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं

गजल

आपको आप से ही ,चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो, गुनगुना क्यूं न लू।
आपकी शोखियां मदहोश कर गई
सोचता हूं बे-वजह मुस्कुरा क्यूं न लूं।

हूं जानता आप मेरे नहीं, 
इस दिल में आपके बसेरे नहीं
मानते पर कहां दिल के जज्बात हैं
इक घरौंदा तिरा मैं बना क्यूं न लूं।

आप यूं चल दिये ज्यूं देखा नहीं
रूप की धूप को चांदनी से उढ़ा
चांदनी से जला,खाक बन जायेगा
खाक-ए-बदन फिर उड़ा क्यूं न लूं।

कदमों में लिपट चैन पा जाऊंगा
गेसुओं में भी थोड़ा समा जाऊंगा
सबा से जो मदद,थोड़ी मिल जायेगी
बदन से लिपट झिलमिला क्यूं न लूं।

आपको आप से ही चुरा क्यूं न लूं
आपकी जो रज़ा हो गुनगुना क्यूं न लूं।

उमेश २८.०८.२०१६ जबलपुर

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

गजल। अय यार तेरी सोहबत में हम

गजल

अय यार तेरी सोहबत में हम 
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम 
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।

बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके

हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके

हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके

जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये 
ना जी ही सके ना मर ही सके ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६

बुधवार, 2 सितंबर 2020

ग़ज़ल अहले दिल की तेरी दास्तां ,

ग़ज़ल

अहले दिल की तेरी  दास्तां , तिश्नगी मेरी बढ़ा हैं गई
कुछ और पिला ऐ साकिया,दर्दे दिल भी ये  बढ़ा गई

अब सुकून मुझे ज़रा मिले, कुछ तो जतन बता मुझे
तेरे रुख़ की इक झलक तो दे, न जला मुझे न जला मुझे

तेरे जाम को ये क्या हुआ, ब- असर  से जा बे-असर हुए  
लगा लब से अपने इन्हे ज़रा, इन्हे सुर्ख सा बना ज़रा 

 जो अश्क हैं इन चश्म   में, बेकद्र में न बहा उन्हे 
 अश्क-ए-हाला ज़रा, तू मिला  मेरी शराब में , शराब में

तोहमत न दे बहक रहा, मैं,तिरी महफिले जाम में
मै तो डूबता चला गया तिरी इस नशीली शाम में

वो असर हुआ है दिल पे कि, बे-असर हुई शराब भी
तेरा हुश्न तिरी वो दास्तां मेरे होश ही उड़ा गई

उमेश कुमार श्रीवास्तव,०३.०९.२०१६ जबलपुर

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मेरे विचार

       मेरे विचार 

      प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ, अपने विचार और अपने कार्य-व्यवहार को अन्तिम सत्य मान कर दूसरों से अपेक्षा करता है कि वे उसी के अनुरूप अपने कार्य-व्‍यवहार का निरूपण, निष्पादन व क्रियान्वयन करें , यही दुःख का मूल है क्योंकि वह स्वयं भी दूसरे व्यक्ति के लिये दूसरा है ၊
      इस श्रृष्ठि में मानव के अद्भव काल से मानव कार्य व्यवहार का नियमन होता आया है , हर काल विशेष में उस काल की परिस्थितियों के अनुरूप मानव के अच्छे व बुरे विचार ,आचरण व व्यवहार को परिभाषित किया जाता है उसी के अनुरूप समझ , विचार व कार्य व्यवहार मानव अंगीकृत करता है ၊
     आदि से सनातन निरन्तर वर्तमान तक, हर काल में जो आचरण , व्यवहार , विचार व कार्य उचित या अनुचित रूप में निरूपित होते आयें हैं उन पर किसी काल, स्थान विशेष या परिस्थिति विशेष का कोई प्रभाव नही पड़ा है वे ही सत्य अवधारित किये जा सकते हैं ၊ किसी काल विशेष ,स्थान विशेष व परिस्थिति विशेष में ही तार्किक बुद्धि से मानव समूह विशेष में जो आचरण ,व्यवहार ,विचार व कार्य प्रचलन में आयें हो उन्हे सत्य व प्रकृति के नियम के अर्न्तगत होना नही माना जा सकता ၊

     अतः उन आचार, विचार , कार्य व्यवहार को जो हर काल में व परिस्थिति में शास्वत रहे आयें हैं उन्हे दृष्टिगत रख अपने व दूसरों के कार्य व्यवहार व आचरण को हमे देखना चाहिए कि हम सही हैं अथवा वह दूसरा जिसे हम गलत ठहरा रहे ၊ दुःख का मूल कारण वहीं समाप्त हो जायेगा ၊ हां ऐसा करते आप को एक तटस्थ अम्पायर की भूमिका में रह मनन करना होगा ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक ०१ .०९.२०२०