शनिवार, 4 अप्रैल 2020

मैं और तू


 मैं और तू

हूं निरखता, मैं,निरन्तर
अन्तस की गलियों में उतर ।
खोजता रहता हूं नित
हर गली हर राह पर ।

इक झलक की चाह ने
बावरा सा कर दिया
रश्मि आंखो से गई
रजनी से दामन भर दिया ।

तप ये नही ! तो और क्या ?
तू ही बता कितना तपूं
तपन की इस अगन ने 
क्या क्या न मेरा रज हुआ।

मैं हूं अलग या तो मुझे
यह झलक आ कर दिखा,
या मेरे विश्वास को
"परमात्म हूं" सच कर दिखा ၊

नित निरन्तर जूझता 
जिन्दा हूं, या हूं, जी रहा
तू ही बता , तू ईश है
पाने की तेरी राह क्या ?

जड़ नही, हूं पशु नही , 
औरस मनु सन्तान हूं
इस धरा पर आज भी 
मैं ही, तेरी पहचान हूं ၊

फिर भटकता क्यूं फिर रहा
स्वयं की ही खोज में
ये भरम क्यूं भर रहा
फिर मेरी इस मौज में ၊

आ तनिक मुझको बता
मैं पृथक क्यूं कर हुआ
आत्म मैं परमात्म तू ,फिर
योग क्यूं क्षितिकर हुआ ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक 25.04.2020
इंदौर

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