सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

महासमर

महासमर

जब जीवन,
कृष्ण निर्वात से गुजर रहा हो
अभिलाषाएं आकाक्षाएँ दम तोड़ रही हों
मृत्यु जीवन से सहज लगती हो
मुस्कानें काटों सम चुभती प्रतीत होती हों
दर्द,पीड़ा,उपेक्षा,अपमान सहयात्री से लगते हों
औ जीवन-जल बू दे रहा हो
स्थिरता का परिचायक बन
तब , जब ज्ञान दीप का प्रकाश भी
अन्तह्तम को भेदने में असफल प्रतीत होता हो
तब होती है एक अजीब बेचैनी
मथानी सी मथने लगती है
शुष्क रेगिस्तानी समर भूमि को
किसी बावरे की तरह

सभी अपने करने लगते हैं किनारे
औ सन्नाटो से भी
इक शोर सा उठता है , कर्ण-भेदी
आँखे चुन्धिया उठती हैं (तम में भी)
जगत रूप देख स्वार्थी
मचल उठता है मन धारणार्थ
जगत के रूप को ही (कालिमा से ओत-प्रोत)
झगड़ उठता है मन, आत्म-चिंतन से
कारण समझ, पराभव का उसे
औ सिकुड जाता है कुछ पलों को
साथी मेरा 'इक अकेला'
बस वही क्षण होता है मेरे
जीवन मरण का

पर सहज ही मुक्त हो कर
भेद देता है, मोह को वह
वह 'कर्ण' मेरा आत्म कण
पर कब तलक कुरुक्षेत्र सा
मैं सहूँगा महासमर
हर बार चाहता हूँ शान्ति
नीरवता विहीन, पर लगता नही
आएगा कोई
बन दूत शान्ति का
कृष्ण सा

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

अमराई की छाँव

अमराई की छाँव


अय अमराई की छाँव
उस दिन ,
जब मैं,तुम्हारे आँगन में
तुम्हारे बौरों की फैली,
मस्ती भरी खुशबू में,
स्वयं को ,
अपने दर्द को ,अपने गम को
भुलाने का प्रयत्न कर रहा था
और जब , इस मौसम में
पहली बार कोयल ने,
पुकारा था प्रेयसी को
और तुमने प्रश्न सा किया था
कर्ण प्रिय ..?
नहीं कर्कश..!
स्वपनिल सी इक कंपन,
तब
निकल गई थी, मुख से मेरे
तुमने व्यक्त किया था
आश्चर्य..!
मेरी इस अभिव्यक्ति पर
क्यूँ कि ,तुम्हारे आँचल में
अब तक कोई
इस कदर नहीं बौराया था
जिस कदर तुमको,
मैं नज़र आया था.

अय अमराई की छाँव
उस दिन
जब गगन में
घुमड़ रहे थे कृष्ण घन
और मैं बैठा , तुझ तर
अपनी पीड़ा के घनों से
रहा था जूझ
कि वे बिन बरसे
ना जाएँ वापस
क्यूँ कि मैने नीर
नही देखा था अपने नयनो मे
सदियों से
इस कदर मरू बन गई थी
मेरी आँखे
उसी क्षण गगन के जलद ने
तुम पर फेंक दी थी
अपनी शीतल फुहार
और फिर तुमने
किया था इक प्रश्न मुझसे
सुखद...?
और मैने विकृत से चेहरे से अपने
टका सा दिया था उत्तर
ईर्ष्या कर तुम पर
नहीं...अम्लद..!
और तुम विद्रुप से
देखते रह गये थे ,मुझे
इस मौसम में भी
बौराया समझ

अय अमराई के प्रिय-तम
उस रजनी जब मैं
बेचैनी से टहलता
गगन के तारों में (कंपकपाते से)
सुख को तलासता
तेरे कदमो के पास ही
विह्वल फिर रहा था
और
सर्द हवाओं से
तिठुरते हुए से तुम
निहार रहे थे ,मुझे
अचंभित से
किसी बेचैनी का आभास कर,
पर तुम्हे आभास कहाँ था
दिल में धधकती ज्वाला का
मेरी,
अन्यथा
कभी भी न होते
अचंभित इतने तुम
यूँ टहलते देख मुझको
रात में इस पूस की
मैं ठहर सा गया था
और तुम
थके से अलसाई आँखो से
देख रहे थे मुझे
मैं भी तुम्हारे कदमों के तले ही
तुम्हारे वक्ष का ले कर सहारा
अपनी तंद्रा में
खो सा गया था
कि तभी
इक प्रश्न फूटा मुख से तुम्हारे
दिवस..!
औ मैं मुरझाए कुम्हलाए
फटे चिथड़ो सम
अधरों से पुकारा था
(अनजाने में ही शायद)
हा.. दिवस...?


शायद तुम्हे मिल गये थे
प्रश्नो के उत्तर अपने
तभी तो आज तक फिर,
तुमने उलट कर,कभी न पूछा
कोई प्रश्न मुझसे;
इस कष्टप्रद अंतराल मध्य,
जब मैं अचेतन में पहुचता
जा रहा हूँ
चेतन पथ से गुजर


                उमेश कुमार श्रीवास्तव
www.hamarivani.com

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

जीवन मीत




अब तो दो धीरज मुझको
ना जाती सही ये पीड़ा
तुम छिपी कहाँ हो बैठी
मेरे जीवन की वीणा

कब तक संसार समंदर के
लहरों से इसे बचाऊँ
टूटी नैया को कैसे
इन ज्वारों में पार लगाऊं

तुम तो सब की सम्बल हो
मेरी भी बन जाओ
अब तक तड़प रहा था
ना अब तनिक तडपाओ

क्या स्वप्न मेरे ये सारे
यूँ टूट बिखर जाएँगे
जग मे आने के सब कारक
सब व्यर्थ चले जाएँगे

हाँ भाग्य मेरा है खोटा
तुम तो ना करो किनारा
मैं भाग्या बिना जी लूँगा
गर तुमसे मिले सहारा

बिखर न जाऊं कहीं मैं
आ मुझे तनिक सम्हलो
अपने आँचल के छाव तले
तनिक मुझे सुला लो

मैं आया क्यू था जाग में
हूँ भूल रहा मैं सब कुछ
आ जाओ बन प्रेरणा तुम
ले लो अब तो मेरी सुध

बस एक बार स्वर लहरी
जीवन मे बिखेर दो मेरे
फिर चाहे जीवन तरणी
जा छिपे कहीं घनेरे

मैं सिसक रहा हूँ क्या तुम
अब भी द्रवित ना होगी
इस दुर्दिन में भी मेरे
क्या निष्ठुर बनी रहोगी

आ जाओ मेरी आभा तुम
आ जाओ मेरी कांति
है जीवन मेरा शोर बना
दे दो इसे आ शान्ति
...उमेश श्रीवास्तव...18.05.1989

अजनबी




उस अजनबी की तलास में
आज भी बेकरार भटक रहा हूँ
जिसे वर्षों से मैं जानता हूँ
शक्ल से ना सही
उसकी आहटों से उसे पहचानता हूँ

उसकी महक आज भी मुझे
अहसास करा जाती है
मौजूदगी की उसकी
मेरे ही आस पास

हवा की सरसराहट सी ही आती है
पर हवस पर मेरे
इस कदर छा जाती है ज्यूँ
आगोश में हूँ मैं, उसके,या
वह मेरे आगोश में कसमसा रही हो

कितने करीब अनुभव की है मैंने
उसकी साँसे,और
उसके अधरों की नर्म गरमी
महसूस की है अपने अधरों पर

उसकी कोमल उंगलिओं की वह सहलन
अब भी महसूस करता हूँ
अपने बालों में
जिसे वह सहला जाती है चुपके चुपके

उसके खुले गीले कुन्तल की
शीतलता अब तक
मौजूद है मेरे वक्षस्थल पर
जिसे बिखेर वह निहारती है मुझे
आँखों में आँखे डाल

पर अब तक तलास रहा हूँ
उस अजनबी को,
जिसेमैं जानताहूँ वर्षों से!
वर्षों से नहीं सदियों से

जाने कब पूरी होगी मेरी तलास
उस अजनबी की
..................उमेश श्रीवास्तव...01.09.1990...

भटकन

भटकन

मैं रोता हूँ , या मैं हँसता
आज मुझे ये याद नहीं
कल रोता था या था हँसता
ये भी मुझको याद नहीं

सुख की किरण मिली थी कोई
इस पड़ाव तक आते आते
तम में खोई इन आँखो को
ऐसी कोई याद नहीं

उस पड़ाव से चला था जब मैं
थी इक गठरी कुछ अनुभव की
सुख था ? दुख था ? या दोनो था ?
यह भी बिल्कुल याद नहीं

यहाँ से आगे कहाँ है जाना
या तम में होगा खो जाना
जाना है तो किस पथ जाना
आया अब तक याद नहीं

कहाँ से आया ? कहाँ हूँ आया ?
कहाँ टिका हूँ ? कहाँ है जाना ?
भटक रहा हूँ इन प्रश्नो में
उत्तर आता याद नहीं
.....उमेश श्रीवास्तव...17.10.1993

आत्म-वेदना


आत्म-वेदना


चिंतन की धारा है
कुंठित
मन उदिग्घ्न
वाणी अवरोधित

त्रिशंकु बन गया
है , विवेक
आत्म , अंधेरी कोठी में
संकुचित हुआ सा
बैठ गया

पराकाष्ठा छू
बेकलता की
मस्तिष्क धमनियाँ
सिकुड गई

रोने की सोच
नयन द्वय
तड़ाग बन गये सूखे-सूखे
जिव्हया भी अकड़ गई
पुकार लगाने की चाहत ले

सुन्न पड़ गई सारी काया
मरण बिंदु की सीमा तक
जीवन ही हो गया निरर्थक
मृत्यु , सार्थकता पर्याय बनी
हो मंज़िल को इंकित करती
ना राह रह गई अब कोई
नई राह अब, ढूँढ सकूँ
कहाँ रही काया भी

पितृ सदृश्य तू
सम्पूर्ण जगत का
तो पुत्र तेरा ही मैं भी हूँ
शरणागत हूँ कैसे समझू
जब अंश तेरा ही मैं भी हूँ

नीर मेरे क्या,
ना पीड़ा देते
गर देते तो,दे दो वो
पाले बैठा जिसकी चाहत
चिन्ताओ में घुलता हूँ
और निरर्थक इस काया में
शव सदृश्य ही पलता हूँ

या मुक्त करा दो
पिंजर से
उन्मुक्त धरा पर आने को
अपनी इच्छाओं की सीमा से
दूर सूक्ष्म में जाने को

...उमेश श्रीवास्तव...18.04.1993

एकान्त : निःशब्द,निर्जन





निःशब्द 
अकेले
एकांत में
बैठ
करने को चिंतन 
करता है मन
क्या है जीवन ?

दिग्भ्रमित
दिगम्बर
प्रश्नो के अम्बार
जब जब
लज्जित कर देते
अन्तस

तम की गहराती
माया
ढक लेती है
काया
और
डूबने सी लगती हैं
साँसे

उजास की आश में
तड़फडा उठता है
तब मन
हीक सी उठती है
पिंजर को छोड़
भागने को उतावले
प्राण में

अपान,व्यान,उदान
व समान
निश्चल हो जाते हैं
शब्दाडंबरो से घिर,
आत्मा लुहलुहान हो
कराह उठती है,
शोर में
भौतिकता की दौड़ में

हाँफता सा शरीर
टूट कर बिखरने को
हो उठता है
बेकल
तब,बचता है
इनको
फिर से सम्हालने
सजोने व सवारने को
शायद, वही
निःशब्द,
निर्जन, एकान्त

जहाँ जाने को
पग द्वय
बढ़ जाते हैं
अकेले ढोते हुए से
तन

इसलिए निःशब्द
अकेले,
निर्जन एकान्त में बैठ
करने को चिंतन
करता है मन

पर मिलता नही
इस कंकरीट के वनो में
ओ निर्जन एकान्त
जिसे
ढूंढता है मन
करने को चिंतन

...उमेश श्रीवास्तव....