शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

अमराई की छाँव

अमराई की छाँव


अय अमराई की छाँव
उस दिन ,
जब मैं,तुम्हारे आँगन में
तुम्हारे बौरों की फैली,
मस्ती भरी खुशबू में,
स्वयं को ,
अपने दर्द को ,अपने गम को
भुलाने का प्रयत्न कर रहा था
और जब , इस मौसम में
पहली बार कोयल ने,
पुकारा था प्रेयसी को
और तुमने प्रश्न सा किया था
कर्ण प्रिय ..?
नहीं कर्कश..!
स्वपनिल सी इक कंपन,
तब
निकल गई थी, मुख से मेरे
तुमने व्यक्त किया था
आश्चर्य..!
मेरी इस अभिव्यक्ति पर
क्यूँ कि ,तुम्हारे आँचल में
अब तक कोई
इस कदर नहीं बौराया था
जिस कदर तुमको,
मैं नज़र आया था.

अय अमराई की छाँव
उस दिन
जब गगन में
घुमड़ रहे थे कृष्ण घन
और मैं बैठा , तुझ तर
अपनी पीड़ा के घनों से
रहा था जूझ
कि वे बिन बरसे
ना जाएँ वापस
क्यूँ कि मैने नीर
नही देखा था अपने नयनो मे
सदियों से
इस कदर मरू बन गई थी
मेरी आँखे
उसी क्षण गगन के जलद ने
तुम पर फेंक दी थी
अपनी शीतल फुहार
और फिर तुमने
किया था इक प्रश्न मुझसे
सुखद...?
और मैने विकृत से चेहरे से अपने
टका सा दिया था उत्तर
ईर्ष्या कर तुम पर
नहीं...अम्लद..!
और तुम विद्रुप से
देखते रह गये थे ,मुझे
इस मौसम में भी
बौराया समझ

अय अमराई के प्रिय-तम
उस रजनी जब मैं
बेचैनी से टहलता
गगन के तारों में (कंपकपाते से)
सुख को तलासता
तेरे कदमो के पास ही
विह्वल फिर रहा था
और
सर्द हवाओं से
तिठुरते हुए से तुम
निहार रहे थे ,मुझे
अचंभित से
किसी बेचैनी का आभास कर,
पर तुम्हे आभास कहाँ था
दिल में धधकती ज्वाला का
मेरी,
अन्यथा
कभी भी न होते
अचंभित इतने तुम
यूँ टहलते देख मुझको
रात में इस पूस की
मैं ठहर सा गया था
और तुम
थके से अलसाई आँखो से
देख रहे थे मुझे
मैं भी तुम्हारे कदमों के तले ही
तुम्हारे वक्ष का ले कर सहारा
अपनी तंद्रा में
खो सा गया था
कि तभी
इक प्रश्न फूटा मुख से तुम्हारे
दिवस..!
औ मैं मुरझाए कुम्हलाए
फटे चिथड़ो सम
अधरों से पुकारा था
(अनजाने में ही शायद)
हा.. दिवस...?


शायद तुम्हे मिल गये थे
प्रश्नो के उत्तर अपने
तभी तो आज तक फिर,
तुमने उलट कर,कभी न पूछा
कोई प्रश्न मुझसे;
इस कष्टप्रद अंतराल मध्य,
जब मैं अचेतन में पहुचता
जा रहा हूँ
चेतन पथ से गुजर


                उमेश कुमार श्रीवास्तव
www.hamarivani.com

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