भटक रहा था बाहर, अब भीतर आता हूं
छिप सके तो छिप ले छलिये
स्व छान रहा हूं अब मैं
काया छान चुका हूं कब का
मन माया छान रहा हूं अब मैं
गन्ध तेरी सु संग ले, बनी राह है मेरी
श्वान बना हूं फिरता, क्या करे राह अंधेरी
माया ! तेरी ये माया, भ्रमित करेगी कब तक
हूं अंश तेरा जब मैं तो, है विश्वास !
मिल ही लूंगा अब तुझसे ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक २०.०८.२०२५
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