गुरुवार, 9 मई 2019

हसरते चाह

हसरते चाह

तुमको सुकूं मैं दे सकूं'
यूं बेसुकूं रहता हूं मै
गुल खिलें रुख्सार पे
यूं दर्दे ख़ार चुनता हूं मैं

तुम खिल के मुस्कुरा सको
यूं गम तेरे चुनता हूं मैं
तुम सबा बनी बहा करो
यूं खिज़ा के संग पलता हूं मैं

मायूसियत कभी किसी
मोड़ तुझे न आ  मिले
हर मोड़ पे तेरी राह के
यूं मुंतजर रहता हूं मैं

मेरी हर खुशी तेरे दर पे है
तेरे गम का आसरा हूं मैं
इक तब्बस्सुम चाह ले
यूं जला  करता हूं मैं

तू फकत मुस्कराए जा
मेरे अश्क पे तू कभी न जा
मेरे गम मुझे अजीज़ हैं
यूं राह इस चलाता हूं मैं

तेरी जिन्दगी का नाख़ुदा
बस यूं ही नही हूं मै बना
तेरे रंजो गम वो दर्द की.
यूं इम्तहां करता हूं मैं

ये ही फकत है आरजू
देखूं तुझे हर मोड़ पे
तू मुझे तकती ज्यूं सदा
यूं ही तुझे मैं तका करूं ।

उमेश श्रीवास्तव २७.०१.२०१७ जबलपुर

.

जागो भारत जागो

जागो भारत जागो

जन रो रहा , गण-मन रो रहा
जय हो रही अधिनायको की सदा
रक्त पी रहे हर राह पर जनों की
विधाता बने भाग्य के जो हमारी

दधिचि बनी थी अब तलक ये काया
हर रहनुमा ने हमें ही लुटाया
नव अधिनायको की गर्जना है भयावह
सिसक है रही मातु भारती अब हमारी

वो भाग्य-विधाता कुन्द-मानस लिए थे
ये रहनुमा तो शातिर चालें लिए हैं
वो बाँटते रहे दिलों को दिलों से
ये तो नुचवा ही देंगे बोटी हमारी

इक देश को उनने सूबों में बाँटा
अँग्रेज़ों की चालों का ले के सहारा
इनकी फितरत कितनी है शातिर
शहर की गली हर, बट रही अब हमारी

पंजाब सिंधु गुजरात मराठा उठो आज फिर जागो
द्राविण उत्कल बंग बंधु सब तंद्रा अपनी त्यागो
वाणी कर्म चरित्र त्रयी से परखो भाग्य विधाता
फिर सौंपो उसको इस जन गण की रखवारी

                     उमेश कुमार श्रीवास्तव २९.०१.२०१४

रविवार, 5 मई 2019

अर्धागंनी को उसके जन्म दिवस पर दी गई आदराञ्जली

आज अपनी धरा (उर्वी) के जन्म दिन पर उसे यादों भरी प्रेमांजली उसके अंशुमाली की ओर से :

आज तुम्हारे जन्मदिवस पर
जो प्रथम बार शायद है याद
दिल है प्रमुदित मन उल्लासित
दे , कोटि कोटि तुम्हे साधुवाद ၊

प्रेम सुधा की गागर जैसी
धैर्य तुम्हारा सागर है ,
गाम्भीर्य सगरमाथा है तेरा
मृदुता की तो तू, ना-गर है ၊

धरा पे जीवन पाया तूने
मेरा जीवन जीने को ,
या यूं कहिए मेरे जीवन का
हर गरल सुधा सम पीने को ၊

शव सदृष्य बस जीता मैं था
स्वांस मेरी बस चलती थी
पा स्वन्दन तेरी सांसो से
शिव सदृष्य अब पलता हूं ၊

प्रेम रसिक था मन चिन्तन पर
था प्रेम सुधा से रीता जीवन
रूनझुन पग ले मेरे आंगन में
ले आई तुम नव जीवन ၊

जो हूं अब मैं , वो तुम हो
इस जीवन की हो प्राण तुम्ही
मैं रुखा था प्रेम सुधा तुम
जीवन की हो श्रृंगार तुम्ही ၊

जन्म दिवस पर क्या दूं तुमको
जब अर्पित स्वयं हुआ हूं मैं
परिणय बन्धन सम्पूर्ण समर्पण
अब शेष कहां रहा हूं मैं ၊

बस यही कामना रहे सदा
प्रमुदित प्रफुल्लित जीवन हो ,
हर दुःख हों अवशोषित मुझ में,
तेरा, सुखमय सदा जीवन हो  ၊

उमेश ,जबलपुर , दि० 06.05.18

दीर्घायुरारोग्यमस्तु
सुयशः भवतु
विजयः भवतु
जन्मदिनशुभेच्छाः

शुभ तव जन्म दिवस सर्व मंगलम्
जय जय जय तव सिद्ध साधनम्
सुख शान्ति समृद्धि चिर जीवनम्
शुभ तव जन्म दिवस सर्व मंगलम्

प्रार्थयामहे भव शतायु: ईश्वर सदा त्वाम् च रक्षतु।
पुण्य कर्मणा कीर्तिमार्जय जीवनम् तव भवतु सार्थकम् ।।

ईश्वर सदैव आपकी रक्षा करे
समाजोपयोगी कार्यों से यश प्राप्त करे
आपका जीवन सबके लिए कल्याणकारी हो
हम सभी आपके लिए यही प्रार्थना करते हैं

शनिवार, 4 मई 2019

ग़ज़ल जिगर का लहू है कागज पे यारो

ग़ज़ल  
जिगर का लहू है कागज पे यारो
ग़ज़ल कह न इसको फ़ना कीजिए

अश्के नमी है हर मोड़ पर
फिसलन से बच कर चला कीजिए

कसक-ए-मोहब्बत दिल में बसी है
दर पर न इसके हंसा कीजिए

जख़्मो से खूं तो अब भी है रिसता
हैं मरहम ये आँसू न गवाँ दीजिए

मैं तो हूँ, खाक-ए-चमन अब तो यारो
हमसे न यूँ अब मिला कीजिए

जिगर का लहू है कागज पे यारो
ग़ज़ल कह न इसको फ़ना कीजिए

                   उमेश कुमार श्रीवास्तव

समय

समय


समय ,
अविरल धारा
प्रवाहित, आदि काल से
निरंतर,
निरापद,
राग द्वेष से परे
अपने नियत कर्म पथ पर

गुजरता रहा ,
हर कण,
निष्प्राण,या प्राण प्रवाहित
कोई अवरोध समय का
रहा कब किसी पर

हर चक्षु हैं खोजते
अच्छा या बुरा
अपने ही वातायन से
अपने ही बनाए
ज्ञान चक्षु के दायरो से

पर समय होता नही
अच्छा या बुरा
वह तो बस होता है
होने के लिए
जिससे हम बह सकें
निरंतर
अपनी यात्रा पथ पर

अपनी ज्ञान की पोटली को
ज्ञान का भंडार माने, हम
दोष देते रहें हैं, समय को
जो प्रेक्षक की तरह है
अविकल अटल, निरपेक्ष

हम चाहते बिन प्रयास
पाना सभी
ना चाहते अनायास
खोना कभी
सजगता कर्मठता निरंतरता
धैर्य सहनता
पुरुषार्थ की  है निशानियाँ
जिनके सहारे ही
समय सागर में है तिरना
पर भुला इसको दोष देते
हैं समय को

देखो ज़रा अपनी सफलता
क्या तब इसी की नाव में तुम
ना थे सवार
देखो ज़रा अपनी असफलता
क्या तब इसी  नाव में
ना थे छिद्र अपार
फिर किस बिना
देते समय की दुहाई
वो कहाँ से है
बुरा या अच्छा
मेरे भाई

उमेश कुमार श्रीवास्तवा ०४.१०.२०१४

शेर

जिस निगह देखो मुझे मैं  ही मिलूंगा ,
पाषाण की प्रतिमा नहीं जो इक सा दिखूंगा ।
नीर बन बहनें न दो मैं हूं वहां ,
बन्द कर देखो जरा मैं ही दिखूंगा ।
....उमेश

शुक्रवार, 3 मई 2019

बरखा

कितनी अनुपम लगती प्रकृति
धुली धुली सी उज्ज्वल
चमक उठा है जग कण कण
पा कर पावन बरखा जल

झूम झूम कर इठलाती
कुंज पौध औ वृक्ष लताएँ
सुमन अधर भी देखो
प्रफुलित हो कर मुस्काएँ

शुष्क धरा के विदीर्ण हृदय पर
देखो हरियाली छाई
ज्यूँ विरहन नें पी स्वागत में
अपनी चुनरी लहराई

घनघोर घटायें घटाटोप
घूमड़ घूमड़ कर आती हैं
अपनी शीतल बूँदो से मोती
कितने आज लुटाती हैं

हैं साज़ सुनाई पड़ते कितने
औ राग सावनी सुर के
बरखा की बूंदे भी गिरती
आज सरगमी धुन पे

प्रकृति जगत का हर इक प्राणी
आनंद मग्न हो झूम रहा
पर एक हृदय ऐसा भी देखो
जो विरह अग्नि को चूम रहा

पी के वियोग में प्रेयसी हिय
मचल मचल हो मूढ़ रहा
पपिहा हो कर ज्यूँ विह्य्वल
पी पी कह पी ढूढ़ रहा

शीतल करती बरखा सब को
इक हृदय इधर पर जलता है
उधर बुझ रही धरा तृष्णा
इक आशदीप इत बुझता है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव