गुरुवार, 19 मई 2016

मेरी प्यारी गौरैय्या




इक गौरैय्या मैने भी पाल रखी है
अपने लैपटॉप के आमुख पर
क्यूँ की
अब उनसे भेंट नही होती
अपने घर के आस पास
आँगन या चौबारे पर

बहुत दिनो तक ढूँढा मैने
गलियों में,
गाँव की चौपालों पे
खेतों की मेडों पर
पोखर तट और बरगद
के नीचे भी

पर वीरान कर गई थी
इन सब स्थानों को
तू प्यारी गौरैय्या
बस सन्नाटा बोल रहा था
जैसे वह भी
गौरैय्या!
तेरी बोली सुनने को
अपने कानों को तोल रहा था

मैने फिर ढूँढा
शहर -शहर की गलियों में
छोटे बड़े कतारबद्ध
भवनो के उपवन
सड़कों से सटे खड़े पेड़ों के
झुर्मुट तल
पर कही नहीं मिलनी थी
मिली, तेरी आभाषित छवि भी

बच्चे तो भूल गये तेरा
वो अपनापन
तेरी चह चहाअट
के सुरो का जादू
शहद घोलती सी दिल में
वो तेरी आपस की अनबन

ये अपनी ही करनी है जो हमने
तुझको खोया है
हंस भले रहा है समाज पर
दिल सब का ही रोया है


अगली पीढ़ी क्या जान सकेगी
ठिठोली तेरी, रिस्ते अपने
भोर से गोधूली तक
किन किन रसों से भीने
रहते थे
तेरा अदना सा कद
कितना कुछ हमको देता था

बहुत याद जब आई
ले आया हूँ तेरी छाया
उसके संग ही अपनत्व जगा कर
रे गौरैय्या
अपना अपनत्व जता रहा हूँ
या यूँ कह ले
अपराध बोध से ग्रसित हुआ
हर क्षण
अपने कर्मों की क्षमा याचना
में झुका हुआ हूँ


उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर (१९.०५.२०१६)

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