रविवार, 22 मई 2016

झंझावात अंतस का


जब कभी निर्वात सा छाया
हृदय के कृष्ण-विवर में
बड़ा गुबार ले कर के
इक अंधड़ भी चला आया

बहुत सोचा , बंद कर लूं
सभी खिड़कियाँ दरवाजे
किसी की इन्तजारी में , पर
खुली मैं छोड़ आया

बहकती सी हवाओं ने
मगर वो खेल खेला है
सलामत अब छत मेरी
दीवारों को बचा पाया

कई दिन तक रहा रीता
जो बादल आज है बरसा
बवंडर का संग पा कर के
खुद को रोक है पाया

खरपतवार सी देखो
पड़ीं हैं याद किस किस की
फ़ुर्सत के पलों में मैं
जिन्हे सॅंजो ही नही पाया

रख तू रंज मेरे यार
खता सब से ही होती ही
चाकरी कर समय अपना
हूँ गैरों को लुटा आया

हूँ टूटता लेकिन
बिखर मैं हूँ नहीं सकता
उस माटी से हूँ जुड़ा अब भी
जहाँ बिलगाव नहीं आया

कहाँ दम है बवंडर में
मुझे जड़ से जुदा कर दे
रिस्तो को निभाने का
चलन जो साथ ले आया

कर कोशिश बवंडर तू
अब मुझको उड़ाने की
तुझ जैसे अनेको को
पिछली गली हूँ छोड़ आया

उमेश कुमार श्रीवास्तव (१७.०५.२०१६)











जब कभी निर्वात सा छाया
हृदय के कृष्ण-विवर में
बड़ा गुबार ले कर के
इक अंधड़ भी चला आया

बहुत सोचा बंद कर लूं
सभी खिड़कियाँ दरवाजे
किसी की इन्तजारी में पर
खुली मैं छोड़ आया

बहकती सी हवाओं ने
मगर वो खेल खेला है
सलामत अब  छत मेरी
 दीवारों को बचा पाया

कई दिन तक रहा रीता
जो बादल आज है बरसा
बवंडर का संग पा कर के
 खुद को रोक है पाया

खरपतवार सी देखो
पड़ीं हैं याद किस किस की
फ़ुर्सत के पलों में मैं
जिन्हे सॅंजो ही नही पाया

 रख तू रंज  मेरे यार
खता सब से ही होती ही
चाकरी कर समय अपना
हूँ गैरों को लुटा आया

हूँ टूटता लेकिन
बिखर मैं हूँ नहीं सकता
उस माटी से हूँ जुड़ा अब भी
जहाँ बिलगाव नहीं आया

कहाँ दम है बवंडर में
मुझे जड़ से जुदा कर दे
रिस्तो को निभाने का
चलन जो साथ ले आया

 कर कोशिश बवंडर तू
अब मुझको उड़ाने की
तुझ जैसे अनेको को
पिछली गली हूँ छोड़ आया

उमेश कुमार श्रीवास्तव (१७.०५.२०१६)























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