गुरुवार, 7 जुलाई 2016

भीगे अहसास

भीगे अहसास

अम्ल सदृश्य गिरती बूंदे
बेकल घन से
घनघोर वेदना उठती
बेकल मन से

उत झनक रही पायल
झनन झनन झन से
इत धड़क रहा दिल
धिनक धिनक धन से

मैं मूढ़, ताकता
मेघों को,
सरसराती पवन मध्य
ठिठुरता
बचाता स्वयं को
गुदगुदाती फुहारों से

कुहासों से फुहारों की
डरा, बेचैन मैं
भोथरी असमतल धरा पर
घटाओं के अंधेरो में घिरा
डगर पर सहमा हुआ सा
बढ़ रहा था

वो नार चीकनी कमसिन
तर तर केश बसन से
रति रूप धरे,
 उन्मादित सी,
चर अचर जग
कण कण से
भी थी डगर पर

उसकी चितवन
टकराई हौले से
सिहरन भर गई
शिख से नख तक
उद्दीप्त हुआ
उद्दीपक नयनो की किरणें
ज्वाला सी लपकी रुधिर में
चितवन में नव ज्योति भर गई

वही धरा,घन, विटप, लताये
वही तड़ित नाद,
नभ जल मालाएँ
ताल वही विप्लव करते
नद नालों में उमड़ी
जल धाराएँ
पवन वही मृदु
ठिठुरन वाली
 झूम रही संग,
जल की हर डाली

सरगमी हो गई
सब की काया
बरसता संगीत
कण कण से
इक चितवन की यह
अदभुत माया

नर नारी का ये आकर्षन
अद्वितीय है
 शिव शक्ति सा शाश्वत
अलौकिक
अमार्जनीय है

न मेटो सम धरा के
दो प्राणियों के
मृदु तंतुओं को
बना अचिंतित विधि
सजाया है जिन्होने मिल
इस वसुंधरा को

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर ०७.०७.१६

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