शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

यह जीवन है

यह जीवन है

स्वीकार ह्रदय से करते कैसे ?
कहो जरा आधार है क्या ?
हृदय कुंज में गमके बेला
कहो जरा ,  यह प्यार है क्या ?
प्रात अरूण की किरण लगे जो,
मध्य वही  तो  ताप   जगाये ၊
मध्यम दीपशिखा की आभा ,
तिमिर सदा ही नाश कराये  ၊
नभ अनन्त है ,अबूझ रहा है ,
आश्रयदायी  रही    गुहाएं ,
हर प्रमोद में  छिपी उदासी,
व्यथा सदा,सम,अहसास कराये ၊
शुभ, अशुभ पद होते हैं क्या ?
सुरभित करती, संगी की चाहें ၊
मन शीतल है दाह है मन ही ,
जिससे बनती सुगमित राहें  ၊
उन्मुक्त गगन है,हर इक मन का ,
स्वयं पिंजरित किये हुए हम ၊
दृग खोलो अहसास करो तो ,
सुन्दर पांखो से सजा हुआ तन ၊
कोकिल जैसी वाणी को ,
क्यूं कर्कश कह खिझा रहे ၊
क्यूं वाग्देवी  के आशीषों को ,
तुम ,नाहक व्यर्थ गवां रहे ၊
पुष्पपमयी जो जीवन जीते ,
वह, बस, आभाषित जीवन है ၊
अमिट छाप वे छोड़े जिनका ,
पाषाण सदृष्य जीवन है  ၊
हर क्षण, हर कण,पुलकित जग का,
हर जल है, इक पावस धारा ၊
गर सागर जल छूटे जग से ,
मिट जायेगा यह जग सारा  ၊
उलझन में क्यूं उलझांये मन,
सरल तरल मन कोमल होता ၊
निहित है उत्तर स्वयं प्रश्न में ,
प्रश्न बिना क्या उत्तर होता  ?
तिलक है शोभा पर आभाषित ,
रक्षा को है लगे दिठौना ၊
मनका मन की हर धड़कन है ,
हर तन केवल अबूझ खिलौना ၊
आत्म सन्देश ग्रहण करे जो ,
मन की चंचलता त्याग करे ၊
अडिग रहे जीवन में हरदम ,
विह्वलता यदि त्याग करे ၊
व्यथा सोच , आनन्द की बाधक ,
व्यर्थ का चिन्तन , कलुषित धारा ၊
घट घट में हैं हरि - हर बसते ,
फिर अन्तर्मन क्यूं है बेचारा  ၊
ज्योति ज्योति है, जहां भी दमके,
उझास सदा ही देती है ၊
सरगम की धुन जहां निहित हो ,
पीड़ा सब हर लेती है  ၊
ईश मगन कर, कुटिया अपनी ,
हिय , शिव आराध्य बना ၊
जीवन है , समय की सरिता ,
तू शिव को पतवार बना  ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव ०५.१०.१९ (कर्मयोगी - 2) के जवाब में

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