बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

मेरे विचार

मेरे विचार

प्रश्न : भावना शून्य की स्थिति क्यों और कब होती है? इस स्थिति का मतलब क्या होता है सर?

उत्तर : भावना क्या है पहले यह जाने
जब किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान से लगाव उत्पन्न हो तो मन चिन्तन उससे जुड़ जाता है तो भाव उसके प्रति जगता है उसके हर अच्छे बुरे पहलू को हम चेतना से जुड़ अपना मानने लगते हैं उसका हर सुख दुःख हमे खुशी या दुःख देता है मन की यह दशा ही भावना है ၊
भावना शून्य हुआ ही नही जा सकता,
भाव न जगना पाषणता की निशानी है जहां प्राण है वहां पाषाण नही हो सकता और प्राणवान भावना शून्य नही हो सकता हर प्राण के स्पन्दन में भाव है ၊

प्रश्न : तो मनुष्य पाषाण कब हो जाता है ?

जब मानव के अन्दर का सब सरस भाव सूख जाये
रस का अभाव पाषाण बनाता है ၊
सरसता जीवन है, शरीर के हर अंग से रस बहाना जिससे जग कण कण सरस होता रहे ,जीवन का मूल है ၊

प्रश्न :  हूं, और रस का अभाव  कब और क्यों होता है ?

जब हम जान बूझ कर रेगिस्तान में अपने जीवन रस को बहा दें जहां रस का अजश्र श्रोत है उसको अनदेखा कर ၊
प्रश्न : तो क्या हमारा स्वयं का भावना शून्य होते जाना यह दर्शाता है कि हमारा प्रेय रेगिस्तान है ?
उत्तर : जीवन रस भाव है जिससे भावना बनती है यदि भाव किसी के प्रति जगे रस प्रवाहित हो उस दिशा में भावना की लहरें उठें ,वे लहरें नौ में से किसी भी रस तरल की हो ,उसके तक पहुंचे और फिर लुप्त हो जायें बिना किसी परिणाम तो हां वह रेगिस्तान है , पर उस तक भावना की लहरों का पहुंचना आवश्यक है , अन्यथा वह रेगिस्तान नहीं है वरन स्वयं में ही कहीं रेगिस्तान बना है जो स्वयं की भावना का शोषण कर रहा है ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
शिवपुरी , २८.१०.२०

बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

नीरव सहचर

निःशब्द अकेला चलता हूं
साथ है रेला कोलाहल का
दृष्टि जहां तक जाती है
सागर लहराता हलाहल का ।

बन्दिश मैंने पाली है
अन्तस के उजले कोटर में
क्षीण रश्मि भी तम धूप की
ना पहुँच सकी मन गोचर में । इन्द्रीयगम्य

भेद रहा हूं ब्रम्ह रन्ध्र मैं
अहंकार के शस्त्र लिये
प्रतिरोध चाहता सुर असुरों का
ले आ धमकें अब कोई अस्त्र लिये ।

हूं वाणी , मौन नहीं मैं
निः शब्द तनिक पुकारो तो
पोर - पोर में नाद समाया
स्पर्श दुलार दुलारो तो ।

ना कोलाहल से भाग रहा
ना भीड तंत्र से विह्वल हूं
हे मौन तुम्ही में घुलता हूं 
जो विलगित तुझसे रज कण हूं ।

नाद सुनू या मौन सुनू
व्योम जगत में रह कर मैं
तनिक बावला तनिक सयाना 
अवशोषित ठोस सा बहता मै ।

सूक्ष्म जगत स्थूल जगत सब
अंश तेरे कहलाते जब
क्यूं मैं देखूं क्यूं ताकू मैं
है रक्ष भार तुझ पर ही जब

इसलिये अकेला ही चलता हूं
निःशब्द निरापद चाल लिये
पदचाप तेरे नीरव धुन से
सहचर से मेरे, सन्ताप हरें ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : २४.१०.२५
9131018553

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

शुभ दीपावली

शुम दीप जले शुभ दीप जले
दीपावली मंगल मय हो
आशीष रहे सब देवों का
दैवी शक्ति मंगलमय हों

दिल प्रफुलित हो मन शीतल हो
राम जगें हर जीवन में
सुख शान्ति धरा पर विखरें चहुंदिश
कलुष न रहे जीवन में

आकाश गंग की सप्त रश्मि
आशीष लिये उतरें धृ पर
उझास भरें नव प्राण भरें
हर प्राण जले दीपक बन के

अंधियार छटे उझास बढ़े
ज्यूं राम रमे हों हर तन में
यूं दीप बनें दीपोत्सव पर
ज्यूं राम हों आये हर मन में

दीप न जलाओ जग में अब तुम
स्व दीप बनो तो जग बदले
बाती तन घृत पंचविकार कर
स्व प्रकाश करो तो तम पिघले ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
सिग्नेचर सिटी
कटारा हिल्स, भोपाल
दिनांक : २०. १०. २५
9131018553

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

इक थी पगडंडी
गांव - गांव, नगर - नगर
घूम घूम कर जाती थी
हम सबको पहुंचाती थी
अपने अपने गंतव्यों पर ।

अल्हड़ थी वह
कहीं धसी सी, कहीं उठी सी
उबड़ खाबड़
जंगल जंगल
ऊसर ऊसर
या खेतों की तरहटी से
कुछ अलसाई कुछ शरमाई
झिझक झिझक
छुरमुट से जाती
टीलों पर भी चढ़ बढ़ जाती
नदी पोखरों के बगल से जाती
सोंधी शीतल महक बांटती 
सब थकान वो हरती जाती
जोड़ रखे थी सबको सब से
धीमी थी पर 
सब की साथी ।

वह प्यारी थी, न्यारी न्यारी
सब के दिल की राजदुलारी 
पग पग हो या दो- पहियों पर
सब पर अपना लाड जताती 
मेरी प्यारी वो पगडंडी
धीरे धीरे ओझल होते
कहीं खो गई वो
राग द्वेष तज ।

ढूढ़े से कभी जो मिलती 
जर्जर काया ले फोड़े फुंसी 
मवाद भरी झुरझुर काया ले
टीश भोगती टीश बांटती
विस्मृत होती स्मृति पटल से
युगों युगों की
मेरी पगडंडी ।
☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️


पथ
कुछ हम बदले कुछ जग बदला
पगडंडी ने रूप था बदला 
नव पीढ़ी की पगडंडी आई
थोड़ी लम्बी थोड़ी चौड़ी
स्वच्छ मुहानी तरुण सयानी
चिकनी समतल सुघड़ थी काया 
फलदार वृक्ष की समुचित छाया
चौराहों पर हाट सजाया
पथ इक नाम मिला था इनको 
नगर ग्राम बस दिया था इनको ।

नगर नगर ले जा पहुंचाना 
ग्रामों को भी साथ में लाना
इतना काम दिया था इनको
दोनो छोर सजे थे इनके
दीप ज्योति तम हर लेने को
कुछ पग धारक शकट प्रिये  कुछ
रथ गामी कुछ तुरंग सवार कुछ
कुछ का आना कुछ का जाना
आवागमन सुरम्य सुहाना

हुई तेज गति मिलन बढ़े फिर
ग्राम टूट नगर बढ़े फिर
घर से दूर  नगर को भागे
नव युवकों के सपने जागे
उमड़े घुमड़े सम्बन्धों के जाल
विरह मिलन जी के जंजाल
वन नदिया पर्वत मैदान
सबका करते पथ सम्मान
अल्हड़ कमसिन पर परिधान निराला
चले पथिक ले अमृत प्याला ।

☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️☄️

सड़क
पक्की ईंटें और खड़ंजे
बिन ऊसर से गिट्टी आई
फोड़ शिला खंड औ पथ्थर 
कंकरीट बनी





राज  
राष्ट्रमार्ग

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

कालचक्र

कालचक्र का यह पहिया 
तम ज्योति योग से गढ़ा गया
जीवन पथ पर हर क्षण प्रतिपल
पथिक निरन्तर पढ़ा गया
तम ज्योति में जो सम भाव रहा
आनन्द उसी को चूमे है
तम देख टूट गया जो भी
सन्ताप उसी पर झूमे है ।
         🌹उमेश🌹
दिनांक : 08.10.25

शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

तरंगे

तरंगे कभी नही मरती
वे अच्छे लहरों की हो सकती हैं
बुरी लहरों की भी
पर निरन्तर गतिमान 
चलायमान रहती हैं
वे मर नही सकती
कभी मर नही सकती ।

वे सरिता की हो सकती हैं
तड़ागों की भी
यहां तक की सागर की भी
हो सकती हैं वे
वे  गंदे नालों की 
नालियों की या 
खारी झीलों की भी हो सकती हैं
पर गतिशील ही होंगी
क्यों कि
तरंगे मर नही सकती ।

वे समीपस्थ सभी को स्वयं में
समेटने समाहित करने का
स्वयं के अनुरूप उन्हे
लहरों में परिवर्तित करने का 
प्रयास तो कर सकती हैं
वे दूसरी लहरों से 
प्रभावित तो हो सकती हैं
हां , कर भी सकती हैं प्रभावित
दूसरों को भी
पर वे मर नही सकती ।

ये तरंगे
धरा से गगन गगन से अनन्त लोकों तक
यहां तक कि
सोच के अन्तिम छोर तक भी
चाहे वह ब्रम्हाण्ड का अन्तिम 
विस्तृत हो रहा छोर ही क्यों न हो तक भी
गमन कर सकती हैं
ऋजु , तिर्यक अथवा वक्री
किसी भी दशा दिशा में
पर तरंगे चलीं तो फिर 
गमन ही करती हैं निरन्तर
वे मर नही सकती

जन्म के साथ मृत्यु का, है अटूट रिस्ता भौतिक जगत का नियम यह
तरंगों पर प्रभावी नही लगता
क्योंकि
प्रकृति जगत का हर पदार्थ 
जिसमें प्राण जगत के साथ 
निष्प्राण भी हैं सम्मिलित
अपना अस्तित्व खोने के उपरान्त भी
प्रेक्षित करता रहता है
तरंगों को निरन्तर अनवरत
ब्रम्हाण्ड में
अनन्त पथ पर गमन करता
संसृति काया पुनः धारण करने तक

इसलिये
जान लो,तरंगे कभी नही मरती
वे मर ही नही सकती
कभी मर नही सकती ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक०७.१०.२०२५