बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

नीरव सहचर

निःशब्द अकेला चलता हूं
साथ है रेला कोलाहल का
दृष्टि जहां तक जाती है
सागर लहराता हलाहल का ।

बन्दिश मैंने पाली है
अन्तस के उजले कोटर में
क्षीण रश्मि भी तम धूप की
ना पहुँच सकी मन गोचर में । इन्द्रीयगम्य

भेद रहा हूं ब्रम्ह रन्ध्र मैं
अहंकार के शस्त्र लिये
प्रतिरोध चाहता सुर असुरों का
ले आ धमकें अब कोई अस्त्र लिये ।

हूं वाणी , मौन नहीं मैं
निः शब्द तनिक पुकारो तो
पोर - पोर में नाद समाया
स्पर्श दुलार दुलारो तो ।

ना कोलाहल से भाग रहा
ना भीड तंत्र से विह्वल हूं
हे मौन तुम्ही में घुलता हूं 
जो विलगित तुझसे रज कण हूं ।

नाद सुनू या मौन सुनू
व्योम जगत में रह कर मैं
तनिक बावला तनिक सयाना 
अवशोषित ठोस सा बहता मै ।

सूक्ष्म जगत स्थूल जगत सब
अंश तेरे कहलाते जब
क्यूं मैं देखूं क्यूं ताकू मैं
है रक्ष भार तुझ पर ही जब

इसलिये अकेला ही चलता हूं
निःशब्द निरापद चाल लिये
पदचाप तेरे नीरव धुन से
सहचर से मेरे, सन्ताप हरें ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : २४.१०.२५
9131018553

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