गांव - गांव, नगर - नगर
घूम घूम कर जाती थी
हम सबको पहुंचाती थी
अपने अपने गंतव्यों पर ।
अल्हड़ थी वह
कहीं धसी सी, कहीं उठी सी
उबड़ खाबड़
जंगल जंगल
ऊसर ऊसर
या खेतों की तरहटी से
कुछ अलसाई कुछ शरमाई
झिझक झिझक
छुरमुट से जाती
टीलों पर भी चढ़ बढ़ जाती
नदी पोखरों के बगल से जाती
सोंधी शीतल महक बांटती
सब थकान वो हरती जाती
जोड़ रखे थी सबको सब से
धीमी थी पर
सब की साथी ।
वह प्यारी थी, न्यारी न्यारी
सब के दिल की राजदुलारी
पग पग हो या दो- पहियों पर
सब पर अपना लाड जताती
मेरी प्यारी वो पगडंडी
धीरे धीरे ओझल होते
कहीं खो गई वो
राग द्वेष तज ।
ढूढ़े से कभी जो मिलती
जर्जर काया ले फोड़े फुंसी
मवाद भरी झुरझुर काया ले
टीश भोगती टीश बांटती
विस्मृत होती स्मृति पटल से
युगों युगों की
मेरी पगडंडी ।
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पथ
कुछ हम बदले कुछ जग बदला
पगडंडी ने रूप था बदला
नव पीढ़ी की पगडंडी आई
थोड़ी लम्बी थोड़ी चौड़ी
स्वच्छ मुहानी तरुण सयानी
चिकनी समतल सुघड़ थी काया
फलदार वृक्ष की समुचित छाया
चौराहों पर हाट सजाया
पथ इक नाम मिला था इनको
नगर ग्राम बस दिया था इनको ।
नगर नगर ले जा पहुंचाना
ग्रामों को भी साथ में लाना
इतना काम दिया था इनको
दोनो छोर सजे थे इनके
दीप ज्योति तम हर लेने को
कुछ पग धारक शकट प्रिये कुछ
रथ गामी कुछ तुरंग सवार कुछ
सड़क
राज
राष्ट्रमार्ग
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