मंगलवार, 29 सितंबर 2020

गज़ल

 गज़ल

 

ना जाने क्यूं जिन्दगी, बे-साज लग रही

कुछ तो कमी है जो, बे-आवाज लग रही ၊
हूं भीड़ में अकेला , है  माज़रा ये क्या
सब की नज़र है मुझ पर, नज़र बेआवाज लग रही ၊
सबा-ए-मुंतजर से, घुलती ये जिन्दगी
है मुंतज़री ये किसकी ,अनजान लग रही ၊
रग रग में घुल गई है, अहसास है जगा
जान-ए-हया है कौन ? बे-पहचान लग रही ၊
कब तक घुटूं उसके मुंतज़र में मैं
जो प्यार की प्यारी सी परीजान लग रही ၊

उमेश , इन्दौर, २८.०९.२०

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मेरा अन्तस

 मेरा अन्तस

 

दो सरिताएं बहती ,

मेरे अन्तस में ,
निर्मल , निर्झर
स्निग्ध नीर की ,
अकूत राशि ले ၊

अन्तस मेरा
सदा रहे ,
भीगा - भीगा सा
पर अह्रलादित
मन्द मन्द मुस्कान लिये
दोनों सरि के
सुरभित तट पर ၊

इक सरि की धारा
काम भरे ,
आपूरित मन
मोहनी मूरत संग
भटक - भटक रसपान करे ,
जगति धरा के
लावण्यमयी हर कृति से
अद्वैत मान
अमूर्त रुप में ၊

भ्रमर सदृष्य मन
उड़ चलता
उन्मुक्त गगन में
कली कली से
गुपचुप गुपचुप
स्नेह चुराता
बिन ठेस लगाये
उसके मन को ,
मुकुल बना
पुष्पित कर देता ,
आह्लाद जगा ၊

हर में स्व को
स्व में हर को
आभासित करता
प्रेम सरि की 
किंचित बून्दो से ,
भिगो भिगो कर
हर इक मन के
प्रेम तृषा को
पग दे जाता 
बढ़ जाने को ,
प्रेम पथिक बन
तृषा तृप्त कर आने को ၊

दूजी सरि की
स्निग्ध जल राशि
आत्मक्षेत्र के 
उद्‌गम स्थल से.
हर हर कर
हहराती
पर शोर नहीं
नाद नहीं
निःशब्द
सभी, बहा ले जाती ၊

समतल, समरस
मृदु धारा,
है जिस पर विस्तृत
इस नद की बून्दे,
आभास उसे ही,
जो बाह्य जगत से
है आंखे मूंदे ၊

जब जब मैंने
तन मन चिन्तन को,
इस जल कण में
है,घोल दिया,
अदृष्य सुरसती (सरस्वती) बन,
संगम सुख को
तब भोग लिया ၊

इसकी जलधारा
सुसुप्त कराती,
मन चिन्तन को
उपनिषद कराती,
निकट ब्रम्ह के,
खो जाने को 
विराट पुरुष के
अनन्त रूप में
घुल जाने को ,
दृष्य जगत के पार अदृष्य से
एकाकी हो ,
मिल जाने को,
विस्तार स्वयं का 
पा जाने को ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक २५.०९.२० ၊


बुधवार, 23 सितंबर 2020

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

अनामिका

अनामिका

स्मृतियों में रेखांकन
रेखांकन में स्मृतियाँ
सब गडमड हो जाती
जब कभी तुम्हारी छवि
बैठता हूँ बनाने
मस्तिष्क के कैनवास पर

कभी कपोल कभी नयन
कभी अलकें कभी वसन
कभी अधर कभी कमर
शिखरों के कभी मोड़ पर
तूलिका अवरोधित हो
रुक सी जाती और मैं
केवल और केवल
उन्ही पर टिका ,चिंतन में गुम
परिचय के पूर्व ही तुम्हारे
समाधिस्थ हो जाता हूँ
और अधूरी रह जाती है
मेरी  साधना ,
चित्रांकन की तुम्हारी
बिना किसी परिचय
ऐ , मेरी अनामिका !

            उमेश कुमार श्रीवास्तव

प्रथम पग का उल्लास

प्रथम पग का उल्लास

उषा काल में ज्यूँ
खगकुल की चहचहाहट मध्य
मन्दिर में बजती ,मधुर पावन
घन्टी  गूँज में
समाहित कर, स्वयं के अस्तित्व
भुला देना चाहता है
मस्तिष्क द्वय

उसकी किलकारियां
औ करधनी में बंधे
घुँघरू की  ,
समेकित गूंज
कर देती है
विभोर ,
आत्मविस्मृत करने को
मुझे स्वयं को

उसी की बोल में बोलना
भाषा उसी की तोतली
रोने पे उसके
बिसूरना अपने मुख को
हँसने पर  स्वयं भी
खिल खिला उठना साथ
उसी के
इक सदी पीछे
खींच लेता है
और छोड़ देता है
दूर कहीं
बंजर जमीं सा
वर्त्तमान को
भूत का यह
सलोनापन

हम भागते हुए
ठहर से जाते हैं
कुछ  पल के लिए
उसकी ठुमक देख
और इक क्रूर मुस्कान
अनायास , टिकती है आ
किनारे अधर के
कहती सी , कि ,

आज होल़े  प्रमोद
जितना चाहता है
होना आज तू ,
स्वयं की इस सफलता पर
कि , तू चल पड़ा है
अपने पगों पर
वह दिन दूर कहाँ अब
जब,
खड़ा होगा तू भी
कतार में
हांफता
सब की तरह
और किलकारियां होंगी
अधर पर ,
पर , हास्य की नहीं
रुदन की ,
आज की ही तरह ही ,
चला रहा होगा
पाँव तू ,
माया के
इस मकडजाल में ,
औ चाहता होगा
वापसी , तू भी भूत  में
स्वयं के ,
मेरी तरह ही ,
क्यूँ क़ि ,
दोपहरी कभी भी
कहाँ भाई है
किसी को
जेठ की

    उमेश कुमार श्रीवास्तव

मेरे विचार

                         मेरे विचार

   जीवन के सभी मंत्र अध्यात्म हैं जो प्राणी मात्र के जीवन को सरल सरिता सा निर्वाध बहते हुए सागर में समाहित होने की राह दिखाये, शेष सभी नश्वर भौतिक मोह माया ၊अध्यात्म कोई गूढ़ या अज्ञेय विधा नहीं है वरन सब से सरल , जन्म से ही जीव के साथ जुड़ी विधा है जिसे मानव अपनी बढ़ती आयु के साथ भौतिक जगत की ओर आकर्षित होते हुए छोड़ता जाता है और जीवन को स्वयं गूढ़ बना अध्यात्म को अबूझ व गूढ़ समझने लगता है ၊ अन्यथा शैशव व बाल पन के जीवन के व्यवहार की ओर दृष्टिपात कर देखें वह सरल है या गूढ़ ?वही अध्यात्मिक जीवन है ၊ इस भाव को अध्यात्मिक भाषा में  तटस्थ प्रेक्षक भाव कहते हैं , जिसमें न कोई अपना होता है न पराया यहां मैं या मेरा भी नहीं होता ၊यही भाव मानव को शान्त, निर्मल व आनन्द मय बनाता है ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर २२.०९.२०