शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

मेरा अन्तस

 मेरा अन्तस

 

दो सरिताएं बहती ,

मेरे अन्तस में ,
निर्मल , निर्झर
स्निग्ध नीर की ,
अकूत राशि ले ၊

अन्तस मेरा
सदा रहे ,
भीगा - भीगा सा
पर अह्रलादित
मन्द मन्द मुस्कान लिये
दोनों सरि के
सुरभित तट पर ၊

इक सरि की धारा
काम भरे ,
आपूरित मन
मोहनी मूरत संग
भटक - भटक रसपान करे ,
जगति धरा के
लावण्यमयी हर कृति से
अद्वैत मान
अमूर्त रुप में ၊

भ्रमर सदृष्य मन
उड़ चलता
उन्मुक्त गगन में
कली कली से
गुपचुप गुपचुप
स्नेह चुराता
बिन ठेस लगाये
उसके मन को ,
मुकुल बना
पुष्पित कर देता ,
आह्लाद जगा ၊

हर में स्व को
स्व में हर को
आभासित करता
प्रेम सरि की 
किंचित बून्दो से ,
भिगो भिगो कर
हर इक मन के
प्रेम तृषा को
पग दे जाता 
बढ़ जाने को ,
प्रेम पथिक बन
तृषा तृप्त कर आने को ၊

दूजी सरि की
स्निग्ध जल राशि
आत्मक्षेत्र के 
उद्‌गम स्थल से.
हर हर कर
हहराती
पर शोर नहीं
नाद नहीं
निःशब्द
सभी, बहा ले जाती ၊

समतल, समरस
मृदु धारा,
है जिस पर विस्तृत
इस नद की बून्दे,
आभास उसे ही,
जो बाह्य जगत से
है आंखे मूंदे ၊

जब जब मैंने
तन मन चिन्तन को,
इस जल कण में
है,घोल दिया,
अदृष्य सुरसती (सरस्वती) बन,
संगम सुख को
तब भोग लिया ၊

इसकी जलधारा
सुसुप्त कराती,
मन चिन्तन को
उपनिषद कराती,
निकट ब्रम्ह के,
खो जाने को 
विराट पुरुष के
अनन्त रूप में
घुल जाने को ,
दृष्य जगत के पार अदृष्य से
एकाकी हो ,
मिल जाने को,
विस्तार स्वयं का 
पा जाने को ၊

उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर , दिनांक २५.०९.२० ၊


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