शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

बरखा जल

बरखा जल

कितनी अनुपम लगती प्रकृति
धुली धुली सी उज्ज्वल
चमक उठा है जग कण कण
पा कर पावन बरखा जल

झूम झूम कर इठलाती
कुंज पौध औ वृक्ष लताएँ
सुमन अधर भी देखो
प्रफुलित हो कर मुस्काएँ

शुष्क धरा के विदीर्ण हृदय पर
देखो हरियाली छाई
ज्यूँ विरहन नें पी स्वागत में
अपनी चुनरी लहराई

घनघोर घटायें घटाटोप
घूमड़ घूमड़ कर आती हैं
अपनी शीतल बूँदो से मोती
कितने आज लुटाती हैं

हैं साज़ सुनाई पड़ते कितने
औ राग सावनी सुर के
बरखा की बूंदे भी गिरती
आज सरगमी धुन पे

प्रकृति जगत का हर इक प्राणी
आनंद मग्न हो झूम रहा
पर एक हृदय ऐसा भी देखो
जो विरह अग्नि को चूम रहा

पी के वियोग में प्रेयसी हिय
मचल मचल हो मूढ़ रहा
पपिहा हो कर ज्यूँ विह्य्वल
पी पी कह पी ढूढ़ रहा

शीतल करती बरखा सब को
इक हृदय इधर पर जलता है
उधर बुझ रही धरा तृष्णा
इक आशदीप इत बुझता है

     उमेश कुमार श्रीवास्तव

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