बुधवार, 20 जुलाई 2022

मेरे ना - समझ

मेरे ना - समझ 

उस ना - समझ ने
फिर, 
आवाज दी है
सोचा था जिसने
भुला ही दिया है ।

कोमल सी नाजुक सी
वो भावना थी
जिसे 
मन वाटिका में
था भटकने को छोडा ।

फिर आवाज दे कर
दी संजीवनी पर
 देखना यही कि
कितनी मौसमी है ।

खुद को कहें वो
हूं, ना समझ,  पर
बन्द लिफाफों के मजमूं
हैं जान लेते ।

हैं मुंतज़र में ,
मेरे हर्फ जाओ ,
नही बेरुखी से
ठुकराये न जाओ ।

तुम्हे पढ के शायद
कुछ रश्क जागे
चेहरे की रंगत
मुस्कान मांगे ।

चेहरे की रंगत
देख सकता नही पर
लबों पे  तब्बस्सुम 
खिली जरूर होगी ।

            उमेश कुमार श्रीवास्तव
.              शिवपुरी
               १२ . ०७ .२०२२






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