शनिवार, 23 जुलाई 2016

ग़ज़ल

ग़ज़ल

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

दिल है बच्चा जो मेरा, तो क्या ग़लत हुजूर
मेरे दिल पर उम्र का, स्याह साया न करो

काश तुम भी भूल कर, आ जाते इस गली
फिर ये कहते. यूँ उम्र को, तुम जाया न करो !

हम तो चलते उस राह पर, जो नेमत मे है मिली
तन्हाइयों की राह हमें, तुम बतलाया न करो

अलमस्त हूँ अल्हड़ हूँ मैं, परवाह नहीं इसकी मुझे
तुम सबक संजीदगी का, यूँ सिखाया न करो

मैं निरा बच्चा रहूं बच्चा जियूं बच्चा मरूं
तुम मेरे मिज़ाज को औरों से मिलाया न करो

खुली किताबे हर्फ हूँ जो चाहे पढ़ ले जब कभी
इंसानी फितरत से मेरा ताल्लुक कराया न करो

खुद समझ पाया नही मैं अपने मिज़ाज को
लोग कहते हैं मुझे, यूँ खुल जाया न करो

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक २३.०७.२०१६

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

बिरहन


बिरहन


घटा घनघोर घिरी चहु दिश
लरजत नार सलोनी
पनघट पर पिय बाट तकत गोरी
नयनन कै डार बिछौनी

चंचल चित लै ,मेघ मीत से
करत रार बरजौनी
पी की पाती लाए काहे नही
रहि बाट जोहति चौमहनी

पथराय गई नयनो की पुतरी
अधरादल पड़े सुखौनी
हिय मध्य दहत अगन जो
उरोज बने धौकोनी

तुम बरसो ना बरसो बदरा
मधुमास गयो तरसौनी
हर्षित फसल दूर की कौड़ी
ये खेत पड़े परतौनी

भीग गई चुनरी चोली
अंसुअन कै चुऐ ओरौनी
हुलसित हिय पेंग लगे तन पे
सब राग चले उतरौनी


मुझ बिरहन कै राग जरे सब
आग लागि बिछौनी
अखियन में नीद समाय सकी
उत, पी छवि लाय बसौनी


ना रोर करो मत शोर करो
मीत बनाय पछतौनी
अंधियारी घनेरि का तुम करो
पिउ की उजियारि बचौनी


हे मेघ मेरे साजन के सखा
इत आय मोहे लिपटा लो
सोख घनेरी व्यथा सब मोरी
उत लिपट तुम्ही समझा दो

उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर,१५.०७.२०१६

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

भीगे अहसास

भीगे अहसास

अम्ल सदृश्य गिरती बूंदे
बेकल घन से
घनघोर वेदना उठती
बेकल मन से

उत झनक रही पायल
झनन झनन झन से
इत धड़क रहा दिल
धिनक धिनक धन से

मैं मूढ़, ताकता
मेघों को,
सरसराती पवन मध्य
ठिठुरता
बचाता स्वयं को
गुदगुदाती फुहारों से

कुहासों से फुहारों की
डरा, बेचैन मैं
भोथरी असमतल धरा पर
घटाओं के अंधेरो में घिरा
डगर पर सहमा हुआ सा
बढ़ रहा था

वो नार चीकनी कमसिन
तर तर केश बसन से
रति रूप धरे,
 उन्मादित सी,
चर अचर जग
कण कण से
भी थी डगर पर

उसकी चितवन
टकराई हौले से
सिहरन भर गई
शिख से नख तक
उद्दीप्त हुआ
उद्दीपक नयनो की किरणें
ज्वाला सी लपकी रुधिर में
चितवन में नव ज्योति भर गई

वही धरा,घन, विटप, लताये
वही तड़ित नाद,
नभ जल मालाएँ
ताल वही विप्लव करते
नद नालों में उमड़ी
जल धाराएँ
पवन वही मृदु
ठिठुरन वाली
 झूम रही संग,
जल की हर डाली

सरगमी हो गई
सब की काया
बरसता संगीत
कण कण से
इक चितवन की यह
अदभुत माया

नर नारी का ये आकर्षन
अद्वितीय है
 शिव शक्ति सा शाश्वत
अलौकिक
अमार्जनीय है

न मेटो सम धरा के
दो प्राणियों के
मृदु तंतुओं को
बना अचिंतित विधि
सजाया है जिन्होने मिल
इस वसुंधरा को

उमेश कुमार श्रीवास्तव जबलपुर ०७.०७.१६

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

हूँ मैं यूँ ही

हूँ मैं यूँ ही

गुनगुनाता हुआ गीत गाता रहा हूँ,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा हूँ

ठहरा नहीं पल किसी के लिए पर

हर पल की दुनिया मैं, बसाता रहा हूँ


मुझे पल ये मेरा न यूँ ही मिला है

अनेको जनम के करम साथ इसमे

मैं खुश रहूं और बाँटू यही बस

खुशियों से दुनिया यूँ सजाता रहा हूँ


पानी खुशी है माटी है दुखो की

मिला कर जिसे, बना ये है जीवन

इक इक बूँद कर ही मै जोड़ता हूँ

नमी इसकी ऐसे बचाता रहा हूँ


मुझे खींचती हैं सभी मृदु दिशाएं

मोहनी यूँ सदा रिझाती रही हैं

चंचल रहा मन मगर मुझसे पीछे

उसे राह मैं ही दिखाता रहा हूँ


ऐसा नही कि मिली ना हो ठोकर
 

गिर कर सम्हल कर बढ़ता रहा हूँ
 

मैं आँसुओ की हर बूँद को ले
 

खुशियों की देहरी सजाता रहा हूँ



समझ न सके जो , मेरी राह को

उन्हे मैं निराला लगता रहा हूँ

मुझे न शिकायत उनसे रही है

बदलने से खुद को बचाता रहा हूँ


गुनगुनाता हुआ गीत गाता रहा हूँ,

मैं यूँ ही सदा मुस्कुराता रहा हूँ


उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक ०५.०७.१६


मंगलवार, 28 जून 2016

मेघ

मेघ

इतना ना उड़ ऊपर मेघा
कि रीता रीता कहलाए
गुरुता ला खुद में थोड़ी
झुकना भी थोड़ा जाए

जितना ऊपर उठता तू है
कलुषित काया हो जाती
थोड़ी सी अमी पर हित ले झुके
तो तेरी ये छवि है धुल जाती

चातक तकते पपिहा तकते
सीप तके गज, बाँस तके
हो निराश धरा संतति
मेघा जो ज़रा तू दंभ तजे

झुक, नीर बना, हर्षित हो कर
बन, पीर-हरा, प्रमुदित हो कर
कर दान, सुधा, जग तारण को
राधेय हृदय सा आलोकित हो कर


उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर, दिनांक २८.०६.२०१६

ग़ज़ल; कहाँ से चला था

ग़ज़ल

कहाँ से चला था कहाँ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ

इधर भी उधर भी नज़ारे नहीं अब
नीचे ज़मीं ऊपर सितारे नही अब

दिल तो है बच्चा, मगर खो गया मैं
कशिश में किसी की हूँ सो गया मैं

ना भूला हूँ बचपन के खेलों की दुनिया
ना भुला हूँ अरमां तमन्ना की दुनिया

वो गलियाँ अभी भी रूहों में रची हैं
लटटू की डोरी उंगलियों में फसी है

बिखरी है अब तक वो पिट्टूल की चीपे
डरी थी जो गुड़िया उसकी वो चीखें

वो बारिस की, कागज की किश्ती हमारी
चल रही बोझ ले अब भी जीवन की सारी

वो अमवा की बगिया वो पीपल की छइयां
नदिया किनारों की वो छुप्पम छुपैया

सभी खो गये हैं उजालों में के
तमस की नदी के किनारों पे के

वो माँ की ममता भरी डाट खाना
आँखों से पिता की वो तरेरा जाना

कमी आज सब की खलती हमे अब
गुम हो गये इस भीड़ में हम जब

ये तरक्की ये सोहरत ये बंगला ये गाड़ी
वो माटी के घरोदे वो पहिए की गाड़ी

बदल लो इनसे सभी मेरे अपने
नही चाहिए छल भरे, छलियों के सपने

लौटेगा अल्हड़ वो बचपन हमारा
सफ़र है सहरा, है सीढ़ियों का सहारा

आँखो ने सहरा के टीले दिखाए
जहाँ है दफ़न मेरे बचपन के साए

चलता रहा छोड़ बचपन की गलियाँ
सकरी हो चली हर ख्वाहिशों की गलियाँ

अब तो यहाँ दम घुटने लगा है
नई ताज़गी से साथ छूटने लगा है

भटकते भटकते कहाँ फँस गया हूँ
कफस में जाँ सा धँस मैं गया हूँ

कहाँ से चला था कहाँ गया हूँ
खड़ी तंग गली में समा मैं गया हूँ


उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर दिनांक २८.०६.२०१६

शनिवार, 25 जून 2016

मेघ फुहार




सरसराती पवन
गड़गड़ाता गगन
चहुदिश चमकती तड़ित
अठखेलियाँ की उमंग में
बूदों का अल्हड़पन

बूढ़ेपेड़ों का मन
शाखाओं पर लदी
पत्रवल्ली के संग
अह्लाद का अतिरेक कर
झूमता सा

नव पौध देखो वनों की
भय मिश्रित कौतूहल लिए
झुक रहे सर्वांग से
माँ प्रकृति की गोद में
भीगे बदन

परिहास करती
माँ भी कभी,दिखता यही
पर सीख देती ज्यूँ कह रही
तनना ही नही
झुकना भी
जीवन की कला है,
 सीख ले
सुख में ही नही
कठिनाइयों में भी
मुस्कुरा जीना पड़ेगा

आँचल में लिपटी दूब
गिरती बूँद से
पवन के वेग से
कर रही अठखेलियाँ
बिन डरे
जिंदगी है धरा से
उड़ ना अधिक
उड़ जाएगा
लोट जा मृदा में
जीवन संजोने के लिए
तृप्ति व आनंद
इसमे ही तू
पा जाएगा

प्राणियों में प्राण
जग से हैं गये
भावना से भय
भग से हैं गये
खग बृंद पुलकित
झूमते
यद्यपि , भीगे पखों से
डालियों पर, बस घूमते
उड़ान की चाहत नही,
बस भीगने की
रूखी में ज्यूँ स्वाद
छप्पन भोग की

जल ही जीवन
जानता चर चराचर
बादलो से नेह का कारक यही
देख इन नीर दूतों को तभी
झूम जाते इस धरा के
प्राण सारे

प्रेमियों के प्रिय जैसे
जीवन के आधार
मेघ धरा पर पाते
तुम भी
यूँ ही
प्राण जगत से
अगिनित प्यार

       उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २५.०६.२०१६