शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

ग़ज़ल : रुख़ से जनाब ये परदा

ग़ज़ल : रुख़ से जनाब ये परदा

रुख़ से जनाब ये परदा ,तुम कब उठओगे
हमें, भी अपना कह कर, गले कब लगाओगे

चाँद को तकने के लिए, हम तो, छत पे आए थे
हमसे भी कब तलक ये बहाने बनाओगे

लरजते ये लब तेरे, कह रहे, कुछ सुन इनकी
हसरतों को इनकी कब तक, तुम यूँ दबाओगे

बेचैनियाँ दिल की, बयाँ, रुखसार कर देते हैं
धड़कते दिल को यूँ तुम, कब तक भरमाओगे

छोड़ दो शर्मो हया जो, है गैरों के लिए
अपने वजूद से ही, तुम कब तक, शर्माओगे

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर ०६.०९.२०१६


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