मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)

धूप जेठ की चुभे
जल रहा तन बदन
सूखते तड़ाग भी
सूखता है ये चमन

नीम के पुष्प भी
ले रही निम्बोली है
भौरों की गुंज से
अब कर रही ठिठोली है

बेल के वृक्ष पर
सज गये विल्व है
पत्र से निःपत्र हो
लग रहे शिल्प हैं

आम्र की टिकोर तो
कर रहे किलोल हैं
बालकों के झुण्ड से
अब हो रही तोल है

शुष्क शुष्क सी धरा
शुष्क मृदा के प्राण हैं
शुष्क से खड़े दरख्त
वन प्रान्त के जो प्राण हैं

पलास रंग यहां अलग
हरितिमा की शान है
कहीं कहीं ताम्रता ले
हैं ताने वो वितान हैं

कृष्ण कायता लिये
पाषाण खण्ड विशाल हैं
तृणों की शुष्क चादरें
चढी जिन पे जाल हैं

बांस की ये श्रृंखला
सुदूर तक जो दीखती
कैनियों के मध्य फंसे
उनके भी आज प्राण है

धूप से टपक रहे
पीत से, रस भरे
गमक रहे महक रहे
महुपुष्प प्रान्तरो की आन हैं

मृगों के झुण्ड छांव में
'सिमट गये रार कर
वानरों की टोलियां
खड़ी यहीं इधर उधर

सिहं नाद कर रहे
जल श्रेणियों की खोह में
पक्षियों के झुण्ड भी
उड़ चले हैं रोर में

दिग दिगंत जल रहा
पर चल रहे हर प्राण हैं
प्रचण्ड ,प्रचण्ड हो गया
यूं  दे रहा जो त्राण है ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव,जबलपुर,दिनांक १६.०४.२०१७

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