शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

अर्ज़ है..........



हमें तो शौक़ था इंतजारी का
पर इतना भी नहीं जितना तूने करा दिया
दिख भी जाओ, मेरे चाँद दूज के
नहीं तो कहोगे, तुमने ही दिया बुझा दिया...........उमेश.


खुशियो के गाळीचे पे गम का इक क़तरा
नही बना पायेगा खारा समन्दर..................उमेश...

मेरे तो अपने ही बहोत है गम देने को
मेहनत ना करो इतना तुम तो बेगाने ठहरे.........उमेश...

गुफ्तगू करता रहा मुद्द्तो से में तेरी
दरम्यान राजे-नियाज़ भूला ज़ुबाँ चलाना..........उमेश...

ग़ज़ल




ये ज़ुनू है वहशत है या है दीवानगी
कि हर शख्स मे तू है नज़र आती

प्यार से हर बुत को मैं चूमता फिरता
कि हर बुत तेरी अक्से-रु है नज़र आती

राहे इश्क पर कदम मेरे डगमगाते कुछ यूं
कि कभी पास कभी दूर तू है नज़र आती

तीर-ए-नज़र अब तो रोक लो साकी
दिल की हालत अब विस्मिल है नज़र आती

नाजो अदा तेरी देख लगता कुछ यू
हर फ़न में तू उस्ताद है नज़र आती

.....उमेशश्रीवास्तवा....दिनांक 24.11.1989..

ग़ज़ल




चुपके चुपके यूँ तेरा ख्यालों में आना ठीक नहीं
अंजुम में आओ तो अच्छा ख्वाबों में आना ठीक नहीं

मासूम जवानी सफ्फाक बदन मरमर मे तरासा है तेरा
यूँ हाथ उठा अंगड़ाई ले दीवाना बनाना ठीक नहीं

शोख तब्बस्सुम चाह लिए गुमसुम अधर की पंखुड़िया
बाधित न करो यूँ यौवन को अवरोध लगाना ठीक नहीं

कैसे न कहूँ बिस्मिल हूँ मैं तेरी हर कातिल चितवन से
उठती नज़र से तीर चला यूँ नज़रें झुकना ठीक नहीं

मैं तो प्यासा था प्यासा हूँ बैठा हूँ मय की आश लिए
मय की ही प्रतिमूरत हो जब . आ छिप जाना ठीक नहीं

...उमेश श्रीवास्तव..19.11.1994

अर्ज़ है





करते मुसिर वो भूल जाने की मुझसे
दिल कम्बख़्त ,धड़कन की जगह नाम लिए जाता है



पंज़ीराई है मेरे अंजुमन में ये गम
तरन्नुम-ए-शहनाई ना राश आई मुझे



दर्दे दिल टीशा औ निकली फफोलों से आहें
जब कभी हम उन्हे दिल से भूलना चाहे



लगता है गुम्गस्ता है मेरा कुछ न कुछ
पा तुझे पास भूल जाता हूँ पूछना



दिल दर्द से जब जब टीशता है यारों
उनकी यादों का ही कोई लम्हा होता है



अंदर से उठ कर धुआँ गुजरता जब दिल के पास से
रौशनाई यादें बन कागज पे चल पड़ती हैं



है साँस उखड़ी मेरी यादों में गोते लिए
भूलना कहते किसे कोई बतला दे मुझे



फकत याद में होता रहा खाना खराब
वो भी कितने मगरूर हैं देते नही खत का जबाब



मेरे दिल पे कदम तेरे शोर कुछ यूँ कर रहे
ज्यूँ पतझड़े बयार में गुज़रा कोई पेड़ों तले

१०

जाती है फिसल नज़रें मेरी पड़ कर तेरे रुख्सार पर
हैं चाहते लब मेरे बोसा तेरे रुख्सार पर

                           उमेश कुमार श्रीवास्तव

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य



बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य


कुच प्रकृति मातृ का पान किए
कल का निर्जन चैतन्य हुआ
ज्यूँ प्रसव व्यथा सह आज पुनः
इक नव मधुवन का जन्म हुआ

प्रात वात सुचि सुगंध मंद
खग कलरव के संग संग
शान्त प्रकृति है इठलाती
अपने वैभव के अंग अंग

शांत आपगा निर्झर करतल
करती कलकल पर निश्छल
ज्यूँ दो अधरों के बीच सुधा
या हों विरहन के अश्रु अविरल

पुष्पित डाली यूँ झूम रही
संग सखी पवन के घूम रही
कली मुकुल बन संग संग
उसके अधरों को चूम रही

जो वन जीवन में मस्त हुआ
या प्रकृति प्रेम अभ्यस्त हुआ
वे सब प्राणी हैं इठलाते
ज्यूँ माँ आँचल में , हों बल खाते 

डालो के गालों का ले अवलंब
कुछ मुकुल पुष्प बन झूम रहे
अनुरक्ता के अधरों को
भ्रमर मीत  बन चूम रहे

           उमेश कुमार श्रीवास्तव

कुंठा



हर चाह जब
तृष्णा में 
परिवर्तित हो जाती है
 और कदम
स्वमेव
मृगमारीचिकाओं की ओर
उठने लगते हैं
तभी जन्म होता है
इक नई कुंठा का

       उमेश कुमार श्रीवास्तव

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

एक मुद्दत हुई , साथ देखे उन्हे
अब तो यादों से भी कतरा, निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती  तब्बस्सुम सदा
अब सरे शाम परदा गिरा जाते हैं

हम समझते इसे भी इश्क की ही अदा
पर , लोग हमे ही बेहया बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर चढ़ा
कि , कूचें में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो हाथ गैरों का  थामे चले जाते हैं

हो मिलता शुकून उनको जलन से हमारी
सोच कूंचे में उनकी हॅम चले आते हैं

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव