गुरुवार, 28 नवंबर 2013

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

ग़ज़ल : एक मुद्दत हुई

एक मुद्दत हुई , साथ देखे उन्हे
अब तो यादों से भी कतरा, निकल जाते हैं

जिस दर पे थी खिलती  तब्बस्सुम सदा
अब सरे शाम परदा गिरा जाते हैं

हम समझते इसे भी इश्क की ही अदा
पर , लोग हमे ही बेहया बना जाते हैं

इस कदर इश्क का जुनू है हम पर चढ़ा
कि , कूचें में फिर भी अश्क बहा आते हैं

उस हुस्न को होती पता इश्क की जलन
जो हाथ गैरों का  थामे चले जाते हैं

हो मिलता शुकून उनको जलन से हमारी
सोच कूंचे में उनकी हॅम चले आते हैं

                    उमेश कुमार श्रीवास्तव

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