गुरुवार, 28 नवंबर 2013

बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य



बरखा उपरान्त का प्रकृति सौंदर्य


कुच प्रकृति मातृ का पान किए
कल का निर्जन चैतन्य हुआ
ज्यूँ प्रसव व्यथा सह आज पुनः
इक नव मधुवन का जन्म हुआ

प्रात वात सुचि सुगंध मंद
खग कलरव के संग संग
शान्त प्रकृति है इठलाती
अपने वैभव के अंग अंग

शांत आपगा निर्झर करतल
करती कलकल पर निश्छल
ज्यूँ दो अधरों के बीच सुधा
या हों विरहन के अश्रु अविरल

पुष्पित डाली यूँ झूम रही
संग सखी पवन के घूम रही
कली मुकुल बन संग संग
उसके अधरों को चूम रही

जो वन जीवन में मस्त हुआ
या प्रकृति प्रेम अभ्यस्त हुआ
वे सब प्राणी हैं इठलाते
ज्यूँ माँ आँचल में , हों बल खाते 

डालो के गालों का ले अवलंब
कुछ मुकुल पुष्प बन झूम रहे
अनुरक्ता के अधरों को
भ्रमर मीत  बन चूम रहे

           उमेश कुमार श्रीवास्तव

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