मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नया वर्ष

नया  वर्ष 


आज के गोबर ने 
लगभग बुझ चुके 
कचरे के ढेर के नज़दीक
खिसक
अपने चिथडो को खुद से
लपेटते हुए
लड़ते हुए 
हड्डियो को सालती
सर्द हवाओं से
अपने हाथो से खाली पेट को दबा
सिकुड कर गठरी सा बनाते हुए
चेहरा उठा पूछा
बाबू..!
ये नया वर्ष क्या होता है ?
बाबू ने 
पसरे हुए 
गर्म राख की ढेर पर
ऊंघते हुए से
दिया जबाब
जिस दिन सुबह
होटलो, ढाबो बड़ी हवेलियो के बाहर
कूडो के ढेर पर
पेटभर
खट्टे मीठे चटपटे हर तरह के
खाने की 
अनबूझ चीज़ें मिलें
जिनके लिए 
कुत्तो से झगड़ना ना पड़े 
उस दिन को 
नया वर्ष कहते हैं
बेटा अब सो जा
कल ही नया वर्ष है
  
       उमेश कुमार श्रीवास्तव

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

सफलता

सफलता 


मुझे मालूम है 
तुम आओगी मेरे पास 
स्वयं को खोजने 
क्यो कि मेरे बिना 
तुम्हारा अस्तित्व  ही 
कहाँ है ,
इस जहां में 
बस 
इसी के सहारे 
निश्चिन्त सा 
कर्म पथ पर 
चलता रहा हूँ ,
रहूंगा, कि,
तुम आओगी 
किसी न किसी मोड़ पर
छोड़ जाओगी कहाँ 
इस वीराने  में 
मुझे। 

मैं जानता हूँ 
तुम ले रही हो परीक्षा 
धैर्य की  मेरे 
यह सही ,कि मैं अधीर हूँ 
जल्द पाना चाहता हूँ ,
तुम्हे 
इसलिए ही सदा 
खोता आया हूँ 
और तुम दूर ही दूर 
रहती आई हो 
मुझसे 

पर ,
यह भी सत्य है 
अटल 
कि , तुम भी 
लौटोगी मूल की तरफ 
बरगद कि लटो  की तरह 
क्यूँ कि तुम रही हो 
युगो से ,
मेरे सीने  में दफ़न 
धड़कनो की तरह 
मेरी,
रह न सकोगी 
एकाकी , बिछड़ कर 
मेरी धड़कनो से 

अब तो प्रतीक्षा है 
बस उसी घडी की 
जब फिर से सन्नाटा 
बोलेगा 
ले तेरे सात सुरो की बोली 
गमकेंगी जब 
हर दिशाएँ 
तेरे यौवन पुष्प की 
महक से 
मेरा जीवन भी तब 
चहकेगा 
कटेगी हर ,
प्रतीक्षा की घडी 

        उमेश कुमार श्रीवास्तव  २६. ०१. १९९१ 


अबूझ अन्तस

अबूझ अन्तस 

हर सुन्दर प्रतिमा क्यूँ ,
लगाती मुझको अपनी सी 
हर कुरूपता मुझको ,
लगती बेगानी क्यूँ है। 

शान्ति और नीरवता 
क्यूँ मेरे मन को भाती 
क्यूँ चहल पहल सतरंगी 
सदा मुझे छल  जाती। 

क्यूँ बींधे  कंटक तन से 
फूलो पर लिखता हूँ 
जब चीख रही मानवता 
क्यूँ प्रेम काव्य गढ़ता हूँ। 

क्यूँ शीतलता मुझको 
सदा रही है प्यारी 
अनुताप भरा यह जीवन 
अनुर्वर सम पड़े दिखाई। 

अय बता मेरी प्रेरणा तू ,
क्यूँ छल करती जाती 
श्री हीन  पड़े जीवन को 
क्यूँ , क्रूर बनाती जाती। 

                  उमेश कुमार श्रीवास्तव ०६,०१,१९९१ 

फिर आया नया वर्ष !


फिर आया नया वर्ष !

इतिहास बनते  वर्ष ने 
नवजात को 
इक पोटली दी है 
जहर की। 
जिसमे ,
जहर की 
अनेको किस्में 
विशुद्ध रूप में अपने, 
विदयमान हैं 
यथा :
दंगा ,साम्प्रदायिकता 
भ्रष्टाचार , लूटपाट 
बालात्कार 
साथ ही दी है 
देश के सिर पर 
लटकती 
विभाजन की  कटार 

देखना है 
नवागन्तुक 
नवजात , शिशु 
कैसे इन विषों का 
शमन करता है 
शिव कहलाने को 
या फिर चुपचाप 
शैशव , युवा औ जरा 
अवस्था बिता 
इस पोटली के वजन में 
कर वृद्धि 
झुकाये सिर  
गत वर्ष कि तरह ही 
स्वयं भी 
अपने अनुज के 
गोद  में डाल 
करता पश्चाताप 
डूब कर ग्लानि में 
गुजर जाता है 
बनने को  इतिहास 
पूर्वजों की तरह

                उमेश कुमार श्रीवास्तव  

नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष"


नूतन अभिनन्दन "नए वर्ष" 
वही रश्मि औ वही किरण है 
वही धरा औ वही गगन है 
वही  पवन है नीर वही  है 
वही कुंज  है वही लताएँ 

पर्वत सरिता तड़ाग वही हैं 
 वन आभा श्रृंगार वही है 
प्राण वायु औ गंध वही है 
भौरो  की गुंजार वही है 

क्या बदला है कुछ,नव प्रकाश में 
ना ढूंढो उसको बाह्य जगत में 
वहाँ मिलेगा कुछ ना तुमको 
डूबो तनिक अन्तःमन में 

क्या कुछ बदला है मन के भीतर ?
जब आये थे इस धरती पर 
क्या वैसा अंतस लिए हुए हो ?
या कुछ बन कर ,कुछ तने हुए हो !

अहंकार , मदभरी लालसा 
वैरी नहीं जगत की  हैं यें  
यही जन्म के बाद जगी है 
जो वैरी जग को ,तेरा कर दी है 

यदि विगत दिवस की सभी कलाएँ 
फिर फिर दोहराते जाओगे 
नए वर्ष की नई किरण से 
उमंग नई  क्या तुम पाओगे 

जब तक अन्तस  अंधकूप है 
कहाँ कही नव वर्ष है 
अंधकूप को उज्जवल कर दो 
क्षण प्रतिक्षण फिर नववर्ष है 


हर दिन हर क्षण, जो गुजर रहा है 
कर लो गणना वह वर्ष नया है 

हम बदलेंगे  युग बदलेगा 
परिवर्तन ही वर्ष नया है 

गुजर रहे हर इक पल से 
क्या हमने कुछ पाया है 
जो क्षण दे नई चेतना 
वह नया वर्ष ले आया है  


मान रहे नव वर्ष इसे तो 
बाह्य जगत से तोड़ो भ्रम 
अपने भीतर झांको देखो 
किस ओर  उझास कहाँ है तम 

अपनी कमियां ढूढो खुद ही 
औरो को बतलादो उसको 
बस यही तरीका है जिससे 
हटा सकोगे खुद को उससे 

सांझ सबेरे एक समय पर 
स्वयं  करो निरपेक्ष मनन 
क्या करना था क्या कर डाला 
जिस बिन भी चलता जीवन 

कल उसको ना दोहराऊंगा 
जिस बिन भी मैं जी पाऊंगा 
आत्म शान्ति जो दे जाए मुझको 
बस वही कार्य मैं दोहराऊंगा 

 राह यही  नव संकल्पो की 
लाएगी वह  अदभुत हर्ष 
तन मन कि हर  जोड़ी जिसको 
झूम कहेगी नया वर्ष 

आओ हम सब मिलजुल कर  
स्वागत द्वार सजाएं आज 
संकल्पित उत्साहित ध्वनि से 
नए वर्ष को लाएं आज 

   उमेश कुमार श्रीवास्तव 

रविवार, 29 दिसंबर 2013

गीत नया क्या गाऊँ मैं

गीत नया क्या गाऊँ मैं



गीत नया क्या गाऊँ मैं
कुंठित, कलुषित चित्त लिए
रजनीचर जैसी वृति लिए
भटक रहा, ये जीव धारा पर
ऐसी जीवनचर्या लख
देख दुर्दशा मानव की
फिर कैसे मुस्काऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

अनन्त, अबूझ अभिलाषा है
सब पा लेने की मद-आशा है
दूजो की बलि देते हिचक न हो
यह जीने की परिभाषा है
ऐसे भावों के साथ आज
कैसे सुर  मिलाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

है जीवन, पशुवत आज हुआ
चहूँ दिश जंगल राज हुआ
मौनी बस साधु समाज हुआ
असुरो के बढ़ते नाद मध्य
सुर-छन्द कहाँ से लाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

जग वैरी हुआ, "अनुशासन"
अधिकार बढ़े कर्तव्य घटे
सबकी अपनी मनमानी ही
जीवनचर्या की राह बनी
दुःशासन, दुर्योधन , की राहों से
किस मंज़िल की आश लगाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं


देख मानवी चाल चलन
माँ प्रकृति राह बदलती अब
हर क्रिया प्रतिक्रिया से आपूरित
माँ, छिपा रही अपनापन अब
माँ का दोहन जो करते बन हवसी
क्यूँ उन संग राग मिलाऊं मैं ?
गीत नया क्या गाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं ।

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

अनुपमा

अनुपमा


सावन की शर्मीली छुईमुई
या बसंत में खेतो का सृंगार
तुमको दूं मैं क्या उपमा
प्रमुदित दिल का है सभी द्वार

पतझड़ में प्रकृति सौंदर्य सदृश्य
फूली टेशू की डाली हो
या कामदेव को रिझा रही
रति कोई मतवाली हो

घन सदृश्य कुन्तल बिच में
खिला प्रसून कमल का है
या रजनी के अंक मध्य
बाल्य रूप दिवस का है

नयनो की अमी है ओठो पर
या कामदेव की ज्वाला है
या अधरो पे लेती हिलोर
सकल निरधि हाला है

है सकल अंग अनुपम तेरा
इनकी उपमा अब कैसे करूँ
बस इतना सोच रहा अब हूँ
मधुकर बन मधु मैं चख लूँ

                उमेश कुमार श्रीवास्तव