रविवार, 29 दिसंबर 2013

गीत नया क्या गाऊँ मैं

गीत नया क्या गाऊँ मैं



गीत नया क्या गाऊँ मैं
कुंठित, कलुषित चित्त लिए
रजनीचर जैसी वृति लिए
भटक रहा, ये जीव धारा पर
ऐसी जीवनचर्या लख
देख दुर्दशा मानव की
फिर कैसे मुस्काऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

अनन्त, अबूझ अभिलाषा है
सब पा लेने की मद-आशा है
दूजो की बलि देते हिचक न हो
यह जीने की परिभाषा है
ऐसे भावों के साथ आज
कैसे सुर  मिलाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

है जीवन, पशुवत आज हुआ
चहूँ दिश जंगल राज हुआ
मौनी बस साधु समाज हुआ
असुरो के बढ़ते नाद मध्य
सुर-छन्द कहाँ से लाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

जग वैरी हुआ, "अनुशासन"
अधिकार बढ़े कर्तव्य घटे
सबकी अपनी मनमानी ही
जीवनचर्या की राह बनी
दुःशासन, दुर्योधन , की राहों से
किस मंज़िल की आश लगाऊं मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं


देख मानवी चाल चलन
माँ प्रकृति राह बदलती अब
हर क्रिया प्रतिक्रिया से आपूरित
माँ, छिपा रही अपनापन अब
माँ का दोहन जो करते बन हवसी
क्यूँ उन संग राग मिलाऊं मैं ?
गीत नया क्या गाऊँ मैं
गीत नया क्या गाऊँ मैं

                उमेश कुमार श्रीवास्तव

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