सोमवार, 27 जुलाई 2020

मद कामनी

मद कामनी

कुछ लिखना चाहूं क्या लिख सकता हूं,
तुम सुन्दर हो क्या कह सकता हूं  ?

सिन्दूर नहाया दुग्ध बदन ,
चिकनाई कमल के फूलों सी
आरोह अवरोह भरी काया
रति मादक कामुक झूलों सी 
अलकों मे समाई काली घटा
सावन का सुरूर जगाती हैं।
नयनों से छलकती हाला को
अधरों पे उड़ेलने आती हैं।
कटि प्रदेश का कम्पन ये
गतिमान तुम्हे जो करता है
ना जाने कितनों को ही
गति शून्य बना कर रखता है।
है जो तेरी चंचल चितवन
हदयवेध जो देती है
जाने क्यूं पीड़ा की जगह 
उन्माद वहां भर देती हैं
ना देख इधर यूं तीखे दृग से
अधरों पे छिड़क मद हाला तू
हूं पाषाण नही भगवान नही
कहना ये नही मतवाला तू ।

उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर , २८.०७.२०१६

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें