तासीर तो तभी जब बहाने से आयें ।
गुरुवार, 11 सितंबर 2025
शनिवार, 6 सितंबर 2025
अन्धकार में बैठा मैं था
भटकाव भरा यह जीवन था
चहुंदिश केवल तम ही तम था
तड़प रहा अन्तरमन था ।
कृष्ण विवर सा अहम् शून्य था
पर अवशोषित वहां सभी था
शुष्क, आद्र, तरल जीवन था
भष्म तमाग्नि में पर चिन्तन था ।
धैर्य धरा पर जब तुम आये
चिन्तन जागा तुम मुस्काये
तम अवशोषित काया ले कर
विवेक जगा कर धैर्य जगाये ।
मधुर तेरी मुस्कानों से
स्वर लहरी जो मचल चली
मेरे अन्तस के पोर पोर में
उमंग नई किसलय सी पली ।
तेरी सांसों की छंदों में
वीणा का मेल भी मिलता है
भौतिकता के अनगूंज गूंज में
रस सरगम सा घुलता है ।
तिमिर छटा,आलोक है छाया
खड़ी है सम्मुख, तेरी काया
बदल रही माया की डोरी
शिव सम्मुख हूं जब से आया ।
ना है भटकन ना ही तम है
तरल सरल सा जीवन है
बस हूं मैं और, तू ही तू है
मन अन्तस है अन्तस मन है ।
हूं अब बैठा तुझ संग भोले
जो होना जीवन को हो ले
कर धारणा हूं ध्यान में बैठा
जगी समाधी शरण में ले ले ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ०४.०९.२०२५
बुधवार, 3 सितंबर 2025
गज़ल : अय यार तेरी सोहबत में
गजल
अय यार तेरी सोहबत में हम
हंस भी न सके रो भी न सके ।
किया ऐसा तुने दिल पे सितम
चुप रह भी न सके औ कह भी न सके।
बेदर्द जमाना था ही मगर'
हंसने पे न थी कोई पाबन्दी
खारों पे सजे गुलदस्ते बन
खिल भी न सके मुरझा न सके
हम जीते थे बिन्दास जहां
औरों की कहां कब परवा की
पर आज तेरी खुशियों के लिये
खुश रह न सके गम सह न सके
हल्की सी तेरी इक जुंबिस
रुत ही बदल कर रख देती
पर आज दूर तक सहरा ये
तप भी न सके न जल ही सके
जब साथ न देना था तुमको
तो दिल यूं लगाया ही क्यूं था
यूं दम मेरा तुम ले हो गये
ना जी ही सके ना मर ही सके ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव ०४.०९.१६
शुक्रवार, 22 अगस्त 2025
मुक्तक
बे ख्याली मेरी तूने दिल से लगा ली
बिना जाने की ख्यालों मे तेरी किस कदर डूबा था मैं
धड़कन ,दिल औ लहू ए जिगर के कतरे से पूछ ज़रा
ओ तेरा है या मेरा उसे मालूम है क्या.......उमेश
बुधवार, 20 अगस्त 2025
मदमस्त सूरत
नूर चमकती आंखो की ,
रूख्सारों की दमकती ये लाली
गेसू में झलकती, जो सांझ की मस्ती,
लब पे जो धरी मदिरा प्याली
इनकी उमर न हो कोई,
अजर रखे रब की प्याली
यूं ही खुशियां बरसाओ तुम
बरसे इनसे रुत मतवाली
किसी मुखड़े के नूर पर ,
यूं फ़िदा हुआ जाता नहीं।
गर फिदा हो जाये तो , फिर,
ज़ुदा हुआ जाता नहीं ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
२० अगस्त २०१६
सोमवार, 18 अगस्त 2025
मैं और तू
मुझे चाहिये तू, अन्तस में बैठा क्यूं यूं
भटक रहा था बाहर, अब भीतर आता हूं
छिप सके तो छिप ले छलिये
स्व छान रहा हूं अब मैं
काया छान चुका हूं कब का
मन माया छान रहा हूं अब मैं
गन्ध तेरी सु संग ले, बनी राह है मेरी
श्वान बना हूं फिरता, क्या करे राह अंधेरी
माया ! तेरी ये माया, भ्रमित करेगी कब तक
हूं अंश तेरा जब मैं तो, है विश्वास !
मिल ही लूंगा अब तुझसे ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक २०.०८.२०२५
रविवार, 17 अगस्त 2025
सोमवार, 11 अगस्त 2025
रविवार, 3 अगस्त 2025
मित्रता दिवस की सभी मित्रो को शुभकामनाएँ
दिल के दरवाजे बंद रखोगे तो कैसे कोई वास करेगा
शर्मो हया से ढके रहे तो कैसे कोई आभास करेगा
अहंकार मे डूबे गर तो कैसे कोई विश्वास करेगा
सरल तरल निश्च्छल कर्मो से ही मीत हृदय पेंग भरेगा......
......... उमेश ......
शुक्रवार, 25 जुलाई 2025
प्यार होने लगा है
आंखों की पुतली
मुस्कुराने लगे जब
गालो की रंगत
सुर्ख होने लगे जब
नुथनों पे लाली
छाने लगे जब
अधरों की फांके
थरथराने लगे जब
धड़कन दिल की
गुनगुनाने लगे जब
गुदगुदी उदर में
सताने लगे जब
कदमों की चालें
डगमगाने लगे जब
नीद में बन सपने
वो आने लगे जब
बता देता तन मन
प्यार होने लगा है ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक : २६.०७.२५
बुधवार, 23 जुलाई 2025
शुक्रवार, 18 जुलाई 2025
शुक्रवार, 4 जुलाई 2025
बयारी ये बरखा
वो छू गई जो
मदमस्त कर गई वो
सिहरन जगी जो
गई रूह तक वो
बजी रागनी जो
गुंजित अभी वो
खो सा गया हूं
इस रागनी में
घुल सा गया हूं
बन गंध हवा में
अभी भी है सिहलन
तन में व मन में
जगी जो है थिरकन
जीवन की उमंग में
हैं बदरा कि ये
छटते नहीं हैं
पवन वेग से भी
हटते नहीं है
आषाढ़ी ये बून्दे
तपता बदन है
बयारी ये बरखा
झुलसा ये तन है
न छुई ये तन को
गई सीधे मन को
मैं भीगा नहीं हूं
मचल सा गया हूं
लगा अंग इसको
पिघल सा गया हूं
उमेश कुमार श्रीवास्तव, जबलपुर, दिनांक ०५.०७.१७
गुरुवार, 3 जुलाई 2025
माया का खेल
अब तक गूंज रहें हैं
वे शब्द
आंखो ने जिनको सुन
किया था
कर्ण पटल पर अंकित मेरे
" कुछ नही है मेरे दिल में
आपकी खातिर "
प्रेम, घृणा, तिरस्कार के
भावों के मध्य
अनेको अन्य भाव हैं जाग्रत
परा जगत के
मैं भी जान रहा , तुम सा ही
जिन्हे छिपा सकेगा कोई
क्यूं कर ।
हूं जान रहा
बहता हूं अब भी
उसी तरह
तेरे हिय के, लहू कणों में
सांसों में भी तेरी
वैसे ही भरा हुआ हूं
जैसा खुद
अनुभव करता हूं तुमको
अपने रक्त कणों में
और
अपान , उदान, व्यान, समान
के संग प्राण वायु के
हर आरोह अवरोह में ।
कितना निष्ठुर किया होगा तुमने
अपने हिय को
तरल सरल अविरल
बहती सरिता को
शुष्क रेत में परिवर्तित
बस, तुम कर सकती हो
बस मेरे खातिर
हर झंझावात से दूर
मुझे करने को
तुमने बड़वानल को
खुद के खातिर
आज चुना है
मुस्कान लिये अधरों पर
श्रृंगारिक
अग्निपथ पर
अपना जीवन होम दिया है ।
ना तुम भूल सकोगे
मुझको
ना मैं तुमको
पर
आभासित इस जीवन में
तेरे कथनों का
मान रखूंगा
कि तेरे हिय में
कुछ नही है
मेरे खातिर,
ना प्रेम ना घृणा
पर इससे इतर
जानना है बहुत
समाया जो इन सब से परे
है परा जगत की माया ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
बुधवार, 2 जुलाई 2025
अषाण घन
अषाण घन
शुष्क धरा पर अंधियारी छाई
अधिवासी वन, पुर, पुरवा के
झूम उठे बरखा ऋतु आई ।
चहक रहें सब थलचर नभचर
जलचर ने भी तरुणाई पाई
सरसर सरसर बहे पवन है
बूंदो ने अगुवाई पाई ।
रिमझिम रिमझिम गाती बूंदें
पड़ धरती पर ताल बजाई
सोंधी सोंधी महक बिखरती
चपला चमक नृत्य दिखाई ।
मार्तण्ड छिपे वारिद में जा कर
उद्विग्न प्राण ने शीतलता पाई
जग आनन प्रमुदित फुहार तक
घन दुदुंभि दे बजे बधाई
बाजत ढोल दुदुंभि तुल्य घन
आतप दबा पावस ऋतु आई
इकसार बना रहा कब कोई
काल चक्र बस ले अंगड़ाई ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ०२.०७.२०२५
शुक्रवार, 27 जून 2025
क्यूं रोता है
क्यूं रोता है
गीता कहती क्यूं रोता है
कौन था वो ! जिस पर रोता है
जन्म पूर्व अज्ञात रहा जो
स्वयं था आया स्वयं गया जो
उस हेतु ये क्रन्दन क्यूं करता है
गीता कहती क्यूं रोता है
वह एकाकी यायावर था
आदि काल से अनन्त काल तक
कर्म जनित प्रारब्ध साथ ले
ध्येय धरा का, पथिक निरन्तर
उसका पथ कंटक क्यूं होता है
गीता कहती क्यूं रोता है
जितने क्षण का कर्म भोग था
भोग, धरा से गया पथिक वो
शेष कर्म का ऋण भरने को
या मुक्त किसी को कर जाने को
प्रारब्ध मर्म कब सोता है
गीता कहती क्यूं रोता है
तू भी तो बस भोग रहा है
प्रारब्ध बने हुए कर्मों को
तू भी इक दिन जायेगा ही
संचित कर के अपने कर्मों को
उऋण कहां कोई होता है
गीता कहती क्यूं रोता है
मोक्ष यहां बस उसने पाया
साक्षी बन जो कर्म निभाया
निर्लिप्त जगत में रह सकते हो ?
सबमें स्व को लख सकते हो ?
नहीं ! तब धैर्य यूं क्यूं खोता है
गीता कहती क्यूं रोता है
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , भोपाल
दिनांक : ३०.०६.२५
अबूझ अनन्त
गुरुवार, 26 जून 2025
प्रेम
यदि किसी हृदय में
स्पन्दित होता है, प्रेम ,
ना जाने क्यूं ,
हृदय मेरा
अनायास ही ,
गीत प्रेम का गा उठता है ၊
और बनाने पुष्प ,
हर मुकुल ह्रदय को,
एकाकी ही,भ्रमर सदृष्य
गुंजित हो उठता है
घृणा ,क्रोध की
छल , कपट की
लोभ , मोह की
जो अनगिनत तरंगे
चहुदिश छाई
उन घोर तमस की
बदली से,
तड़ित सदृष्य
प्रेम रश्मि मोहित कर देती
और ह्रदय मेरा
दीपस्तम्भ सा
उसे भेजता सन्देश
समधरा पर
आने को
प्रमुदित हो,
"जीवन मधुमय प्रेम पुष्प"
यह बतला
तम के कंटक दलदल से
ना घबराने को ၊
संघर्ष सदा है जीवन
पर आनन्द वहीं है
संघर्षहीन पथ
रस स्वाद औ गंधहीन
बस भोग देह ,वह
जीवन आनन्द नही है ၊
प्रेम सुधा से सान
ईश ने यह गेह रची है
जगा उसे
खुद जाग ,प्रेममय कर,
हर क्रिया ,कर्म को
अमर नही तू , तू भी जायेगा ही
पर,संघर्षों से जीवन के,
यूं हार मान कर,
अपने ही हाथों ,
अपने,अद्भुत जीवन को
ना मिटा इसे ၊
उमेश कुमार श्रीवास्तव
इन्दौर
दिनांक 27.06.2020
मंगलवार, 6 मई 2025
महामहिम
मैने देखा है
राज पुरुष इक ऐसा भी
जिसमें जीती संवेदनाएं
धर रूप अनेकों
अपने अपने स्तर पर
मानव तन धर ।
राजपुरूष
वह , गणमान्य प्रथम
जिसके चहुंदिश
गुंजित,अजश्र शक्ति की
छंद ऋचाएं
पर निर्लिप्त सा वह
सौम्य, अथक, करुणाकर
है अन्तस पाये ।
वय जर्जर
मन काया सुघड़
पुरुषार्थ चतुर से
गढ़ा हुआ तन,
मन - करुणा
करुणाकर सी
दयानिधी की छाया है ।
मानस - वाणी - कर्म त्रयी
ऋजु रेखा से गमन करें
मनु वंशज की प्रथम पंक्ति सा
हर में स्व का मनन करे ।
राज नही, सेवक सा स्वामी
चिन्तन मात्र,अकिंचन सेवा
मानव तन पा, उद्धार कर सकूं
तपी व्रती साधक की रेवा ।
चाह नही वैभव की कोई
राह कंटकी अवरोध नही हैं
अथक निरन्तर ध्येय ध्यान धर
चरेवेति का गान करे है ।
चिन्तन, अनुकरणीय है, जीवन में
मानव तन जो पाये हैं;
दलित पतित को, पावन करने
जो वानप्रस्थ खपाये हैं ।
निरोगी काया संग आयु दीर्घ हो
सभी कामना करते हैं
वरदहस्त यूं रहे राजभवन पर
सब किलकारी भरते हैं ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
मा० राज्यपाल के विधि अधिकारी
मध्य प्रदेश राजभवन , भोपाल
दिनांक : ११.०६. २०२५
बुधवार, 30 अप्रैल 2025
जीवन की राह
जीवन की राह
मैं जीता हूँ टुकड़ो में, हर पल को इक जीवन मान
जीवन है इक अबूझ पहेली,क्यूँ, कैसी,हो झूठी शान
अगले पल की खबर नहीं जब, क्यूँ न जीऊं हर पल को
रेवा तट बालू पर बैठूं या तका करूँ मैं मलमल को
तेरे सुख से ना खुश होंगे सब, ना दुःख तेरा तडपाएगा
ना जी जीवन किसी और का, अपना भी खोता जाएगा
सब के अपने दुःख सुख हैं काल चक्र का खेल है ये
पल पल जी ले अपना जीवन आदि शक्ति का मेल है ये
पर जान ले जीवन क्या है, जिसे मैं जीना कहता हूँ
जो मैं जीता हूँ हर पल,परे मौत जो कहता हूँ
आन रखो पर शान नहीं, मान रहे अभिमान नहीं
प्रज्ञा संग ज्ञान रहे पर,अहंकार कृति गान नही
धन दौलत ,पद, बल से, क्या आनंद खरीदा जा है सका
मृगमारीचिका ने अब तक क्या प्यास किसी की बुझा है सका
अंतस शुद्ध रखो जो सदा, सब में प्रतिबिंबित होगे तुम
दे न सकोगे दुःख उन्हे बस सुख उन्हे बाँटोगे तुम
कर्म राह को सीधी रखना सुख श्रोत यही है जीवन का
दुःख मिले राह में तो जानो कर्म फलों का ये है लेखा
सुख कपोत को खुला गगन दो लौट लौट वो आएगा
दुःख बस है इक आगंतुक कहाँ ठहर वो पाएगा
सानिध्य मिले जिसे तुम्हारा चाहे वह हो क्षण भर का
दुःख का कण हर, हर लो उसका दे दो सुख घट भर का
हर क्षण जी लो ऐसा जीवन भूल रहो कल क्या होगा
सुख शान्ति नहीं जब जीवन में, तो जीवन का ही क्या होगा
मौत आ रही हो अगले पल, भय, चिंतन क्या करना
जब जीवन ही है इक क्षण का युगों युगों का क्या करना
उमेश कुमार श्रीवास्तव (२९.०४.२०१६)
मंगलवार, 29 अप्रैल 2025
छिपा के रख
छिपा के रख, हर वो बात, जो सयानी है
जिसे जमाने को, करीने से बतानी है
खुली किताब के पन्नों को कोई पढ़ता है ?
जो पढ़ाना है तो जिल्द भी चढ़ानी है ।
परदों में छिपी हर चीज खूब सूरत है
सूरतें खूब हों,जो उघड़ी तो बेमानी हैं ।
न खुल इतना, ज्यूं आसमां हो तू
न छिपा सके जज्बात जो छिपानी है
अदावत रख ज़रा जमाने के वसूलों से
खुली मुठ्ठी सा नही , नही तो तू बेमानी है ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
रिवांचल एक्सप्रेस ट्रेन
दिनांक : २९ . ०४ . २०२५ ।
रविवार, 27 अप्रैल 2025
अनुभूति "तेरी"
अनुभूति "तेरी"
अनुभूतियों के झरोखों से
जब कभी भी मैं,
लखता हूँ,
तेरे अतिरिक्त,
रिक्त सी प्रतीत होती है
सारी सृष्टि.
इक विवर की आवृति सी
नज़र आती हो तुम
जिसने मेरे सम्पूर्ण वातावरण को
अपने में समाहित कर रखा हो
हर रश्मि मेरे चिंतन की
तुमको ही समर्पित हो,
अपना प्रभाव खो बैठती है
या यूँ कह लीजिए
तुम तक जा
समाधिस्थ हो जाती है
हर करण-कारण में
तुम और केवल तुम ही
दृष्टिगोचर होती हो मुझे
हर आचार व्यवहार और संस्कार में
तुममे ही आबद्ध स्वयं को पाता हूँ
ज्यूँ तुममे ही विलीन हो जाता हूँ
शिव शक्ति के बिना शव है
सुनता आया था
पर प्रत्यक्ष की अनुभूति
अब पा रहा हूँ
आनंदित हूँ, हूँ प्रमुदित भी
अपनी शक्ति में समाहित हो
प्रत्यक्ष में भी आज , जो
शव से शिव बनता जा रहा हूँ
उमेश कुमार श्रीवास्तव
बुधवार, 23 अप्रैल 2025
रात की नरमियां
रात की नरमियां
राख की गरमियां
दीखती जो नहीं
हैं मिजाजे हरम
आप खामोश हैं
या कि मदहोस हैं
जान पाते ,क्यूं नही
पाल रखा क्यूं भरम
ख्वाब आते नहीं
या कि भाते नहीं
दीखते क्यूं नहीं
रंगीनियों के सितम
रागिनी गा रही
या कि भरमा रही
लहरियों से जाना,
तूने नहीं
आज की जो तपिश
आज की वो नहीं
उड़ रही राख जो
आग की वो नहीं
पाल तू न भरम
तू बच जायेगा
राख है राख बन
तू भी उड़ जायेगा
यूं भटका किया
साथ तू ना जिया
नीद की गफलतों सा,
रहा,सारा तेरा करम
ये अगन ये जलन
औ रहेगा करम
शेष रह जायेगा
बस तेरा ये भरम
उमेश कुमार श्रीवास्तव , जबलपुर दिनांक २३.०४.२७
मंगलवार, 15 अप्रैल 2025
वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)
वन प्रान्तर (ग्रीष्म का)
धूप जेठ की चुभे
जल रहा तन बदन
सूखते तड़ाग भी
सूखता है ये चमन
नीम के पुष्प भी
ले रही निम्बोली है
भौरों की गुंज से
अब कर रही ठिठोली है
बेल के वृक्ष पर
सज गये विल्व है
पत्र से निःपत्र हो
लग रहे शिल्प हैं
आम्र की टिकोर तो
कर रहे किलोल हैं
बालकों के झुण्ड से
अब हो रही तोल है
शुष्क शुष्क सी धरा
शुष्क मृदा के प्राण हैं
शुष्क से खड़े दरख्त
वन प्रान्त के जो प्राण हैं
पलास रंग यहां अलग
हरितिमा की शान है
कहीं कहीं ताम्रता ले
हैं ताने वो वितान हैं
कृष्ण कायता लिये
पाषाण खण्ड विशाल हैं
तृणों की शुष्क चादरें
चढी जिन पे जाल हैं
बांस की ये श्रृंखला
सुदूर तक जो दीखती
कैनियों के मध्य फंसे
उनके भी आज प्राण है
धूप से टपक रहे
पीत से, रस भरे
गमक रहे महक रहे
महुपुष्प प्रान्तरो की आन हैं
मृगों के झुण्ड छांव में
'सिमट गये रार कर
वानरों की टोलियां
खड़ी यहीं इधर उधर
सिहं नाद कर रहे
जल श्रेणियों की खोह में
पक्षियों के झुण्ड भी
उड़ चले हैं रोर में
दिग दिगंत जल रहा
पर चल रहे हर प्राण हैं
प्रचण्ड ,प्रचण्ड हो गया
यूं दे रहा जो त्राण है ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव,जबलपुर,दिनांक १६.०४.२०१७
शनिवार, 12 अप्रैल 2025
चाह
चाह
गंगा सी निर्मल धार बनूं
इक सोच सरल सी रहती है
मन मस्तिष्क हृदय से हो
इक निर्झरणी सी बहती है ।
कोयल सी कोमल कूक बनू
हिरणी सी चपल समअक्षि लिये
निडर रहूं तनिक न डिगूं
शार्दूल बनूं सत लक्ष्य लिये ।
दधीचि सदा आदर्श रहें ।
जन तारण की यदि मांग उठे
प्रमाद तनिक उर ना मैं धरूं
भगीरथ सा संकल्प रहे ।
व्यान अपान उदान समान
साध्य बने प्रण प्राण लिये
यमुना सी शीतल काया बनूं
तिस्ता सी चंचल स्वांग रचूं
हर हिय, हर हरि द्वार लगे
हर द्वार मुझे हरिद्वार लगे
हर हिय मे बसूंआदर बन के
हर हिय में बसें तापस बन के
जीवन की बस चाह यही
जी मैं सकूं सबका बन के
दे मैं सकूं हर की चाहत
साध सकूं अपना आगत ।
उमेश कुमार श्रीवास्तव
जबलपुर १२.०४.१७ ,(१२.३३)
पराभव
पराभव
सूखते तड़ाग, ताल ,कुओं की क्या बिसात
जब सूख रहे चारों तरफ,सागर के ही काफिले
पानी पानी हो गई पानी की हर बूँद
सूखे अधर कंठ जर्जर औ बंद बोतल देखकर
हमने सुना था कभी, पानी जो उतरा सब गया
अब तो चाँदी है उन्ही की जिनमे पानी ना रहा
अब कलरव है कहाँ,कहाँ,गोधूली की रम्भान अब
छोड़ जाते जो धरा को उन प्राणियों का बस शोर है
जागने को कह रहे सोते रहे जो उम्र भर
है कयामत की रात जागो कह रहे वो चीख कर
पतन का भी कोई तल अब तो तू मान ले
हर अस्थि मज्जा रक्त में, खुद को ही पहचान ले
इस धरा पर कोई ,ना जिया, अनन्त काल तक
नीर बन, फिर जी जगत में, सब प्राणियों का उद्धार कर
उमेश कुमार श्रीवास्तव (१२.०४.२०१६)
सोमवार, 7 अप्रैल 2025
चरेवेति चरेवेति
चरेवेति चरेवेति
यात्राओं का अन्त कहां !
निरन्तर
आदि ही है इसकी
अन्त कहां
चरेवेति चरेवेति
अनन्त से
अनन्त की ओर गमन
वह भी निरन्तर
हर पल बढ़ते पग
गंतव्य जो उसकी
है किसे खबर
यह क्षणिक यात्रा
व्यथित न हो
जाना दूर
इस गंगे से उस गंगे
परिभ्रमण निरन्तर
ऐ पथिक
हो भ्रमित न ठहर
बस चल निरन्तर
यात्रा सार्थक
ठहराव निरर्थक ।
इक पथिक " उमेश '
दिनांक ६ अप्रेल २०२५
राजभवन , भोपाल
गुरुवार, 27 मार्च 2025
*साख से गिर कर*
*साख से गिर कर*
साख से गिर कर बिखर गये जो
उन पत्तों का कहना क्या
पीत बदन जो पड़े बावले
उन पत्तों का कहना क्या
कल तक जिन के अंग रहे थे
सुख दुख जिन के संग सहे थे
वे विदेह बन जायें तो फिर
उन शाखों को कहना क्या
कई कई अंधड़ थे देखे
कई मेघ भी आये झूमे
जेठ दुपहरी जिन संग झेली
वे सब अब हो गये पराये
दूर उन्ही से यूं पड़े एकाकी
इन पत्तों का कहना क्या
शिखर से टूटा अब कदमों में
सखा वृक्ष की शाखाओं का
आज एकाकी मात्र पात जो
सूखे सिमटे पीत गात के
उन पत्तों का कहना क्या
पिछला पल ही जीवन था
वह भी जीता हर पल था
नही जानता अगला पल क्या
समय भागता पल पल था
समय की धारा से अनजाने
झ्न पत्तों को कहना क्या
शरद,शिशिर,हेमन्त भी देखे
बसन्त राग संग झूमा भी था
ना जाने कितने पुष्पों को
अपने अधरो से चूमा भी था
पद तल विखरे निःसहाय पड़े जो
इन पत्तों का कहना क्या
शेष बची कुछ चंद घड़ी हैं
कदमों में भी ना आश्रय होगा
पवन लहर पर सवार हो
दूर दृगों के पार जो होंगे
शाख से टूटे विलग हुए
इन भग्न ह्रदय पत्तों का क्या
प्रकृति नियम ये सदा रहा
जो जुड़ा रहा वह फूला फला
एकाकी बन जो रहा अहंपोषित
वो पर चरणों का दास रहा
परिपक्व हुआ, हूं श्रेष्ठ जना
ज्यूं भाव जगा ,वो विलग हुआ
ज्यूं विलग पड़ा पीतांग बना
इन पीत बदन पत्तों का क्या
उमेश कुमार श्रीवास्तव ,जबलपुर दि० २७.०३.१७
सोमवार, 3 मार्च 2025
कैसे कह दूं श्याम तुझे ना चाहूं मैं
कैसे कह दूं श्याम
तुझे ना चाहूं मैं
श्याम घनेरी छांव तेरी
बलि जाऊं मैं
लख छवि तोरी, हो विभोर
नित गाऊं मैं
ओढ़े पीत गात तुम मोरा
सबही को भरमाऊं मैं
Y
ताक रहे ले नयन बावरे
कैसे हिय बचाऊं मैं
वंशी धुन अन्तस में उतरी
कैसे राग मिलाऊ मैं
हो कहते तुम हुए पराये
संग हर पल राश रचाऊ मैं
जाओ कान्हा तुम झूठे हो
कैसे प्रीत निभाऊ मैं
उमेश कुमार श्रीवास्तव
०३ ०३ २०२५ / २.३२ रात्रि
भोपाल एक्सप्रेस
शिव स्तुति
हे कृपालु दयालु अभय शंकर
किरात उमापति हे विषधर
मझधार घिरा विमूढ़ खड़ा
अमोघ अभय कर हे हर हर
चंचल विवेक, मति मूढ़ मेरी
हर राह मेरी बिखरी बिखरी
अभिराम मेरे हे ध्यानधरा
जाऊं कहां, अब तू ही बता
भटक रहा तम पंक लिये
नाम तेरा बस संग लिये
हे विश्वरूप हे विरुपाक्ष
दो गंगधार हूं पवित्र साफ
हे शूलपाणि हे खटवांगी
हे रुद्र मेरे भव उग्र मेरे
हे भक्तवत्सल अम्बिकानाथ
कर कल्याण मेरा हे भूतनाथ
चरण शरण दो हे शम्भू मेरे
ध्यान धरा अर्पण है तुझे
भीम मेरे पशु हूं मैं तो
भव पातक हर सच नाम करें ।
उमेश
दिनांक : ०३.०३.२०२५
शताब्दी ट्रेन, भोपाल से ग्वालियर यात्रा
बुधवार, 26 फ़रवरी 2025
चाह
चाह
चाहता हूं
शून्यता, नही निर्जीवता ।
सजीवता, बस स्पन्दन ही नही ।
ढूढता हूं एकान्तता
निर्जनता नहीं
सरसता बस तरलता नही
मैं चाहता हूं
वाटिका
पुष्प गुच्छो से आपूर्ण ही नहीं
कलरवों से गुंजित
भंवरों, तितलियों के संग
हूं चाहता मानव समूह
उत्साह उमंगों से परिपूर्ण
नकारात्मकता से दूर
सकारात्मक बन्धुत्व की
भावनाओं के सागर में
तिरती
पर यह व्योम
अन्ध कृष्ण विवर सा
दॄष्टि किरणे जिसमें
विलुप्त
भटकती आत्मा जिसमें
देती दिशा निर्देश
अनदेखा कर जिसे मन
स्वार्थ चिन्तन में
मग्न
लगता नहीं कि,
ढूढ पाऊंगा कभी उस व्योम को
जो चिन्ताओं को भी
समाहित कर शान्त कर दे
नयनों के परे के उझास में
उमेश कुमार श्रीवास्तव
२६ फरवरी २०१७
पात्रता
पात्रता
अंजुलियो में धूप भर
बैठा रहा
साथ देगी ज्यूं जिन्दगी भर
पर फिसलती ही गई
वो सांझ तक
आ गई चुपके से घनेरी रात अब
रिक्त देखूं अजुलियों को
मैं अचंभित
शुष्क मरू मृदा सी
कब तक ठहरती वो
गदेलियों पर ।
मैं रहा ठहरा
तलैया जल बना
ओस की बून्दो से आपूर्त होता
और सरिता राशि पर विहंसता
दूर होती जाती जो
उद्गम छोड़ कर
डूब कर आकण्ठ तम में
छटपटाहट ये कैसी
धूप की ?
क्या काम इसका ?
रवि दे रहा था प्रचूर
तब ले सका ना
अनन्त झोली लिये तू
फिर घनेरी रात में
करना विलाप
रश्मिरथी को
यूं कोसना
शोभा न अब
दे रहा
बहते समय के नद
में खड़े
गुजरे समय की बाट में
जड़ बने
मुझको जड़ की ही उपमा
दे रहा है
उमेश कुमार श्रीवास्तव
दिनांक : २६ फरवरी २०१७
बुधवार, 19 फ़रवरी 2025
क्या कहूं
खुद को ढूढ़ा बहोत, फिजाओं में
मिली न कोई खबर , हवाओं में
सर्द रातों में , जल उठी रूह मेरी
ताब इतनी थी , मेरे नालों में
खड़कते पत्ते कहीं जो राहों पर
लगता जैसे अब मेरा दीदार हुआ
खौफजदा ताकूं सूनी राहों को
इल्म हो क्यूंकर जो दीदार हुआ
उम्र गुजरी बेज़ार रहते
वक्त फ़ना होने का, अब तलबगार हुआ
ऐ ख़ुदा ! मेरा नाखुदा बन
कस्ती डूबती जब मझधार हुआ
तिरी इबादत में सिर नगू करता
नज़र उठती नही यूं वजू करता
पास तू है या नही क्या जानूं
फ़ना तुझमें हूं ये यकीं करता ।
कातिल तू ही रहनुमा तू ही
दिल को ऐसा क्यूं ऐतबार आया
कोई महका कहीं फिजाओ में
जैसे खिजा को खुमार आया
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन , पचमढ़ी
दिनांक १४ .०८.२५
सोमवार, 17 फ़रवरी 2025
शिव स्तुति
हे शिव हे शंकर हे त्रिपुरारी
कोटिशः अभिनन्दन, हूं आभारी
वरदहस्त तेरा यूं शीश मेरे
कर कल्याण हर, हर पातक भारी ।
उमेश
१७ फरवरी २०१७
बुधवार, 5 फ़रवरी 2025
अहसास
उसकी आखों में मैने देखा है
प्यार , बेसुमार
जब वह देखती है मुझे ,
उसके भाव समर्पित से लगते है
मुझे ।
आंखों से वह,
तौलती सी लगती है मुझे ;
महसूसता हूं मैं
उसका छूना ,
अपने माथे पर, आखों पर,
ओठों पर,
नजरों के सहारे ;
और बिछ जाना
अपने वक्ष स्थल पर,
उसके सूक्ष्म बदन का ।
बहुत कुछ कह देती हैं
उसकी आंखे
व चेहरे के भाव
जो वाणी की अवरुद्ध गति
कह न पाती है उसकी ।
मर्यादाओं की सीमा
कितनी कठोर होती है
वह कहां जानती
मृदु हृदय की विवसता
उस निस्पृह को कहां ज्ञात
पीड़ा की गति व
संवेदनाओं का मोल
उमेश कुमार श्रीवास्तव
राजभवन, भोपाल
दिनांक ०५ . ०२ . २०२५
सोमवार, 20 जनवरी 2025
शुक्रवार, 10 जनवरी 2025
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