सोमवार, 24 अगस्त 2020

है भूल ये किसकी

क्या ये मेरा 
वही ,
चेतना का शहर है !
जो,
चहकता था अहिर्निस,
गुनगुनाता हुआ,
भटकता था हर क्षण,
गीत गाता हुआ ၊
रातों में भी 
जिसे,
सोना न आता
दर्द , चाहे हो जैसा
रोना न आता ၊

अचंभित हूं यारो
खड़ा मैं जहां हूं
यहीं तो महफिल सजती रही थी
वीरानियों से दो-चार 
हुआ जा रहा हूं
अचरज से यहीं मैं
गड़ा जा रहा हूं ၊

ये सड़कें वहीं हैं ?
या बदल ही गई हैं ! 
या चलते ही चलते
चली ही गई हैं
वीराने में आ कर
सुस्ताती ये सड़कें
लगती तो अपनी 
पर लगती नहीं हैं ၊

न लोगों का रेला
न मोटर न ठेला
बस हवा सरसरी है
खुशबू भरी है
खगों की चहचहाहट
खड़खड़ाहट पल्लवों की
यही कह रहीं हैं
कि, कुछ तो हुआ है
ठहरा हुआ जो
हर कारवां है ၊

श्वानों को देखो
खड़े हैं अचंभित
वो इन्सा कहां है
जो करते अचंभित
नही दिख रहे सब
गये वो कहां है 
सारी धरा अब 
लगती है अपनी
ये गली भी है अपनी
ये सड़क भी है अपनी
सूनी सड़कें पर भाती नहीं हैं
गलियों से रौनक, जो आती नहीं है ၊

चमन सज रहा है
पवन सज रहा है 
जरा सा जर्जर ये गगन 
सज रहा है
धरा का नगीना 
सिसकता घरों में
उसे छोड़ सारा
वतन सज रहा है ၊
कुछ तो गलत था
हमारी चाल में ही
हमें छोड़ सारा चमन सज रहा है ၊

उमेश : इन्दौर : दिनांक ..०३.०४.२०


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